बेमन क्या बात कहूँ?

क्या मेरे पास कोई बात सुनने का मन बचा है 
क्या मेरे पास कहने के लिए कोई बात बची है?

क्या मैं सेलफ़ोन का चमकता स्क्रीन देखता रह सकता हूँ. क्या मैं समय पर दफ़्तर पहुँच सकता हूँ. क्या मैं इसी बिस्तर पर देर तक चुप लेटा हुआ महसूस कर सकता हूँ कि थकान बहुत बढ़ गयी है. क्या मैं तय कर सकता हूँ कि इस थकान के कारण आगे के सब काम स्थगित कर दूँ. मैं कितने दिन ऑफिस जाऊँगा? मैं कितने दिन लोगों को सुन सकूंगा. मैं कब तक अपने बारे में क्या बातें बता सकूंगा.

पॉकेट में रखे फ़ोन में रिंग बजने लगती है. मैं स्कूटर चलाते हुए सोचता हूँ कि जेब में रखे फ़ोन पर किसका नाम चमक रहा होगा. इस समय कौन फ़ोन करता है. मैं कुछ नाम याद करता हूँ. हर नाम की याद के साथ बहुत सी बातें याद आती हैं. मैंने उससे आख़िरी बार क्या बात की थी? हमने कब से बात नहीं की.

रेलवे ओवर ब्रिज पर बाईं तरफ मुड़ते हुए देखता हूँ कि लोग गलत तरीके से दायें मुड़ जाने को इंतज़ार में खड़े हैं. मैं अहिंसा चौराहे का चक्कर काट कर फिर उन्हीं लोगों के रास्ते बढ़ जाता हूँ. अस्पताल, विवेकानंद, टाउन हॉल, डाक बंगला, कलेक्ट्रेट, बाड़मेर क्लब, पीएचईडी, पुलिस लाइन, जेल, आरएसईबी और आकाशवाणी तक की गंदे पानी के बहाव, सीवरेज लाइन बिछाने को खोदी हुई सड़क, पीने के पानी के बहने से सड़क पर बने पेच और टूटे गति अवरोधकों पर इस तरह गुजरता हूँ जैसे कंचे के जाने के रास्ता बना हुआ है. कंचा इस गति से लुढका दिया गया है कि सीधे अपने घर में जाकर गिरे.

इस तरह मैं ख़यालों में खोया रहता हूँ और स्कूटर किसी ऊँट की तरह चलता रहता है. जैसे ऊँट जानता है कि मालिक को कहाँ जाना है, उसी तरह मेरा स्कूटर भी समझता है. वह रास्ते के अनुसार अपनी गति कम ज़्यादा करता है. गड्ढों से बचता है. सामने आते लोगों को देखता है लेकिन चलता रहता है.

स्कूटर सवार को फिर से फ़ोन में रिंग सुनाई देती है. वह सोचता है कि किसका फ़ोन होगा? फिर कोई नाम ज़ेहन में आता है लेकिन मिट जाता है. उससे अब क्या बात होगी? कितने ही बरस बीत गए हैं जब हमने लड़ते हुए ऊँची आवाज़ में फ़ोन काट दिया था. फ़ोन काटने के बहुत देर बाद तक कुछ न सूझा कि अब क्या करूँ. अपना थैला लिया और आर्म गार्ड रूम के पास बने शेड के नीचे चला गया. वहां पहरा देने वाले लोगों की चारपाई रखी रहती है. उस पर बैठ गया. कभी देर तक यूं ही बैठा रहा. कभी थैले से कोई किताब निकाली. कभी देखा कि लाइटर रखा है क्या? अँगुलियों को वह न मिला तो आँखें शेड के नीचे लोहे के एंगल पर झाँकने लगी कि पिछली बार यहाँ एक माचिस की डिबिया रखी तो थी.

फ़ोन जब जेब से निकलता तो पाता कि जितने लोगों को सोचा उनमें से किसी का फ़ोन न था. सब अनजान नम्बर थे या उनके नम्बर जिनसे कहा है कि मन अच्छा नहीं है. जब मन ठीक होगा तुमको कॉल करूँगा. बेमन क्या बात कहूँगा. वह कुछ अपने मन की कहे और मैं हाँ - हूँ करता हुआ उड़ती धूल को देखूं, स्टूडियो की घड़ी में बदलते डिजिट्स का पीछा करूँ, कल शाम उद्घोषक ने कौनसे फ़िल्मी गीत प्ले किये वह लिस्ट देखता रहूँ. क्या होगा इस तरह की बात करने से? उसे भी अच्छा न लगेगा और मेरी थकान और बढ़ जाएगी.

तो क्या हो गया है? क्या मैं कहीं चला गया हूँ और फ़ोन किसी दूजे आदमी के पास रह गया है? या मैं यहीं हूँ और ये फ़ोन किसी और का है?

मैं अचानक चौंक जाता हूँ कि फिर से टिंग टिंग...

[ये तस्वीर साल दो हज़ार ग्यारह के जून महीने की है. वो सही आदमी था.]

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