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Showing posts from 2018

कविता चाहे जैसी करें जगह का ध्यान रखें

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मित्रो अभिवादन।  कार्यक्रम के मुख्यअतिथि का काम होता है कि वह अतिथि की तरह आए। मुख्यता से आयोजन में उपस्थित रहे। अंत में चाय भोजन आदि ग्रहण करके चला जाए। लेकिन मुझे कहा गया है कि मैं इस कवि सम्मेलन के अध्यक्ष महोदय के कविता पाठ और उद्बोधन से पूर्व बोलूँ। डॉ तातेड़ सर ने अभी कहा कि आजकल सब लाइव हो जाता है। मुझे इस बात की गहरी चिंता रहती है। कोई भी व्यक्ति आपके कहे को, बातचीत को और आपकी उपस्थिती को अपने फोन में रेकॉर्ड कर सकता है वह उसे लाइव भी कर सकता है। हम किसी भी कार्यक्रम मे अपनी तैयारी और अध्ययन के बिना जाने के अभ्यस्त हैं। इसका एक कारण है कि अधिसंख्य आयोजन और बुलावे तात्कालिक होते हैं। आमंत्रण निजी सम्बन्धों के आधार पर दिये जाते हैं। ऐसे प्रेम भरे आमंत्रणों और आयोजनों में अक्सर मैं अनियोजित और असंगत बातें बोल जाता हूँ। मुझे अभी तक ये सीखना है कि संतुलित, सारगर्भित और विषय से संबन्धित बात कैसे कही जाये। आज का विषय कवि सम्मेलन है तो इसके बार में कोई पूर्व तैयारी नहीं की जा सकती थी कि किस तरह कम शब्दों में अच्छी बात कही जा सके। लेकिन मुझे इस महविद्यालय में आना सदैव रोमांचि

हम जाने कहाँ चले गए

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संसार है एक नदिया दुःख सुख दो किनारे हैं स्टूडियो की ख़ुशबू आकाशवाणी के दरवाज़ों तक साथ चली आती है। सर्द सुबहों की हल्की धूप में बुझते अलाव के पास बैठे हुए लगता है कि टर्न टेबल पर ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड अभी घूम रहा है। निडल नोट्स को सस्वर पढ़ रही है। स्पीकर के अलावा रिकॉर्ड के पास से भी एक महीन आवाज़ आ रही है। वायलिन प्लेयर आंखें मूंदे हुए बजाए जा रहा है। लेकिन ग्रामोफ़ोन रिकार्ड्स अब लाइब्रेरी की सीलन में चुप पड़े हैं। आधी नींद में उद्घोषणाएं करने वाले उदघोषक बूढ़े हो चले हैं। चाय ताज़ा है मगर उसका परमानंद खो चुका है। सुबह-सुबह के लतीफ़े सूखे पत्तों की तरह झड़ चुके हैं। हम बीती रात की कारगुज़ारियों पर न हंसते न उदास होते हैं। कम ओ बेश शक्ल वही है पर हम जाने कहाँ चले गए। प्ले लिस्ट में बैठे वे ही पुराने गाने अब नए अर्थों में पीछा कर रह रहे हैं।

हिलारिए कुंभटिये अकेसिया सेनेगल

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रेगिस्तान में सूखी सब्ज़ियाँ हर घर में मिल जाती है। हालांकि अब यातायात के साधन बढ़ने से हरी सब्ज़ियाँ आसानी से मिलने लगी है। इन हरी सब्ज़ियों के कारण सूखी सब्ज़ियों के प्रति लगाव कम हुआ है। अब भी काफी घरों में सांगरी, केर, कुम्भटिये, काचर आदि को पानी में उबालकर सुखा लिया जाता है। ये सूखी सब्ज़ियाँ साल भर कभी भी काम ली जाती हैं। ये हिलारे हैं। इनको कुछ लोग कुम्भटिये कहते हैं। रेगिस्तान में पाए जाने वाले पेड़ कुंभट के बीज हैं। कुंभट के फलियां लगती हैं। उनमें से ये बीज निकलते हैं। राजस्थान की प्रसिद्द पंचकूटा की सब्ज़ी में अगर हिलारिये नहीं है तो सब्ज़ी अधूरी है। कुंभट एक कम पानी की आवश्यकता वाला पेड़ है। इसे अंग्रेजी में अकेसिया सेनेगल कहा जाता है। कुंभट के पेड़ के तने से गोंद निकलता है। इस गोंद का उत्पादन बढ़ाने के लिए जोधपुर स्थित काजरी में एक इंजेक्शन तैयार किया गया है। इस इंजेक्शन से प्राप्त गोंद की गुणवत्ता भी स्तरीय है। इस इंजेक्शन के पेड़ पर साइड इफेक्ट भी होते हैं, ऐसा कृषकों का कहना है। दो दिन पहले गोंद बेचने के लिए गांव से एक लड़का आया था। "भाई के जातियो है

यूनान का गरीब ब्राह्मण आर्किमिडीज़

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#भंगभपंग - 5 हनु भा जोशी ने श्यामपट्ट पर लिखा उत्प्लावन बल। "किसी भी क्रिया के परिणाम से उत्पन्न प्रतिक्रिया से प्राप्त परिणाम को उत्प्लावन बल कहते हैं।" एक सांस लेकर कहा- "क्रिया और प्रतिक्रिया का अर्थ है कि कुकरिये को भाटा मारना एक क्रिया है और कुकरिए का पूंछ दबा कर भाग जाना प्रतिक्रिया" हनु भाय्या ने आगे बताया-"क्रिया और प्रतिक्रिया अलग-अलग पदार्थों पर अलग-अलग होती है। कैसे होती है, कोई बता सकता है?" सबसे पिछली पंक्ति में बैठे लड़के ने ऊंची आवाज़ में कहा- "सर कुकरिया लोंठा हो तो पूंछ दबाने की जगह बाका भी भर सकता है" "शाबाश। अब आपको समझ आ गया कि क्रिया और प्रतिक्रिया में केवल इतना फर्क है कि पहले भाटा मारा जाना क्रिया है। उसके जवाब में पूँछ दबाना या बाका भर लेना प्रतिक्रिया है।" हनु भाय्या ने कहा- "उत्प्लावन बल का सिद्धान्त है कि क्रिया के कर्ता का जितना भार होता है, वह उस भार के बराबर अगले को विस्थापित कर देता है।" "माड़सा जैसे भाटा जित्ते ज़ोर से भाया उतना..." "ज़्यादा लपर चपर नह

काळी भींत गेमरिंग रो तोड़

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#भंगभपंग - 4 बाड़मेर स्टेडियम में पाँच छह सौ दर्शकों की हुटिंग चल रही थी। खेल का पहला हाफ पूरा हो गया था। फुटबाल को अपने पाँव के नीचे दबाये हुये नबी ने मांगिलाल से कहा- "ईए गेमरे दुख दीयो है। डीकरो कालो पाडो" इतना सुनते ही गेमर सिंह ने एक बेंत बताई और कहा- "गेमरो काळी भींत है, होएं माथो फोड़ो।" लक्ष्मी नगर में रहने वाले पुलिस कांस्टेबल गेमर सिंह फुल बैक थे और फुल टेंशन भी थे। दुनिया में बाड़मेर ही इकलौता क़स्बा था जहां के फुटबाल प्रेमियों में सेंटर फॉरवर्ड से अधिक लोकप्रिय कोई फुल बैक खिलाड़ी था। क़स्बे में फुटबाल खेलने वालों की बड़ी पूछ थी। मांगिलाल, कुन्दन, नबी, रवि जैसे साधारण अदने लोग सड़क पर निकल जाते तो युवाओं का एक कारवां उनको घर तक पहुंचा कर आता था। हर मैदान के खिलाड़ी खेल समाप्ति पर दूध पीने रेलवे स्टेशन के सामने के चाय ढाबों पर आया करते। खेरू की दुकान पर इन खिलाड़ियों के लिए दूध के स्पोंसर तक आते थे। इन काले कलूटे, बिखरे बालों वाले, घिसे स्पाइक्स शू पहनने वालों के लिए प्यार की एक बंदनवार लगी रहती थी। ये खेरू की चाय दुकान और लवली टी स्टाल को जोड़ती थी। इसी ब

हवाई जहाज के आविष्कार का रहस्य

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#भंगभपंग - 3 बाड़मेर क़स्बे में आयुर्वेदिक औषधियाँ वैद्य आदरणीय शास्त्री जी के यहाँ मिलती थी। शास्त्री जी के औषधालय में मिलने वाली औषधियाँ के मुकाबले उपयोग में सर्वाधिक और निर्विरोध विजया औषधि ही आती थी। वैद्य जी किसी भी प्रकार के नशे के विरुद्ध थे। मुख्यतः आयुर्वेदिक औषधि कहकर भांग का सेवन करने वाले लोग उनको असह्य थे। बाड़मेर में जिस गली ने अच्छा नाम कमाया, वह वैद्य जी की गली है। इस गली को प्रसिद्ध करने में स्त्रियों की बड़ी भूमिका है। इसी गली में गोटे और चूड़ी की दुकाने रही हैं। स्त्रियों के लिए ओढ़ने के गोटे, साड़ी के फाल, पिको और चूड़ियों का क्या महत्व है ये कोई भी व्यक्ति शादी करके जान सकता है। हालांकि फाल, पिको, गोटे आदि का काम क़स्बे के हर मोहल्ले में होता रहा है लेकिन वैद्य जी सद्गुणों के प्रताप से इसी गली की दुकानें ही स्त्रियों में लोकप्रिय रही हैं। दस फीट की गली में दोनों तरफ दुकानें हैं इसलिए भीड़ ही अधिक रहती है। स्त्रियों के साथ आने वाला प्रत्येक पुरुष इस गली के नाम से परिचित होने लगा और कम समय में ही वैद्य जी की गली बाड़मेर में एक जानी पहचानी गली हो गयी। वैद्य जी

अजवाइन

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अजवाइन एक औषधीय पादप वनस्पति है। मेरा बचपन इसकी गंध से भरा रहा है। मैं कई बार इसकी गंध से घबरा जाता था। खासकर स्त्रियों के कपड़ों से इसकी तीखी गन्ध आती थी। एक बार भूल से उनको छू लेने पर मैं बार-बार अपनी अंगुलियां सूंघता था। मुझे कभी उबकाई आने लगती थी। घर में भिन्न अवसरों पर अजवाइन की खोज होती उसे पीसा जाता था। हमारे घर में अब भी पत्थर की चाकी है। इसे घटी कहते हैं। माँ, मौसी या चाची इस पर कुछ न कुछ पीसते रहते हैं। लेकिन जब कभी इस पर ये मसाला पीस लिया जाता उसके बाद मैं उस कमरे में नहीं जाता था जहां घटी रखी रहती थी। अजवाइन असल में रामबाण औषध कहलाने की योग्यता रखता है। किसी भी प्रकार की बीमारी अथवा स्वस्थ होने पर इसका नियमित सेवन हमारे स्वास्थ्य की बेहतरी में साथ देता है। उदर से संबंधित सभी रोगों का नाश करता है। इसके बीज माने जिसे हम अजवाइन कहते हैं उसके अलावा इसके पुष्प बहुत उपयोगी होते हैं। वे सुंदर नीले-सफ़ेद या हल्के बैंगनी-सफेद दिखते हैं। उन सूखे पुष्पों से भी अनेक औषधियां बनाई जाती हैं। लेकिन रेगिस्तान के लोगों के ग्राम्य जीवन में अजवाइन बिना लाभ हानि सोचे शामिल रहा है। आजक

मोनालिसा मुस्कान का रहस्य

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जिस बात पर दुनिया अभी तक अंधेरे में है उस रहस्य को केवल बाड़मेर के चुनिन्दा लोग जानते हैं। । #भंगभपंग - दो बाड़मेर के रेलवे स्टेशन से बाहर आते ही आपको गांधी जी मिलेंगे। वे उसी तरफ जा रहे हैं, जिधर बल्लू भाई की भांग की दुकान है। स्टेशन रोड पर सीधे चलते हुए एक टी पॉइंट आ जाता है। गांधी जी केवल टी पॉइंट साथ चलते हैं। इस जगह से वे दायें मुड़कर बापू कॉलोनी की ओर चले जाते हैं। टी पॉइंट के बाएँ मोड़ से शहर शुरू होता है। मोड़ पर गांधी चौक स्कूल है। उसके सामने दल्लू जी की कचौड़ी वालों की असली दुकान है। इससे आगे एक सरकारी कार्यालय, उसके सामने अंग्रेजों के ज़माने की स्कूल है। स्कूल से थोड़ा आगे गोपाल सेठ चप्पल वालों की दुकान आती है। गोपाल सेठ ने आसमानी चप्पल बेचकर बहुत सारा सफ़ेद धन बना लिया था। इस धन के बूते सफाई महकमे की आला कमिटी के सदर बनने के चक्कर पड़ कर मेवाराम से उलझ बैठे थे। जड़ी बूटी रसिकों का मानना है कि मेवारामजी ने ही चप्पल सेठ गोपाल की सराय जैसी होटल के आगे रेलवे पुल का लक्कड़ खड़ा करवाया है। पुल की लम्बाई मंत्री जी के घर तक खत्म हो रही थी लेकिन मेवारामजी रंढू

पीवन को भंग नहावन को गंग

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बाड़मेर में भांग, बिजली के आने से बहुत पहले आ गयी थी। मान्यता ये है कि बाड़मेर आने वाले पहले आदियात्री की धोती से चिपक कर आई। मंदिरों और चौपालों के पिछवाड़े उग गयी थी। ढाणी बाज़ार से रिस कर नीचे उतर रही संकरी पेचदार गलियाँ प्रताप जी की प्रोल पहुँचती हैं। वहाँ पहुँचते ही मोखी नंबर आठ के पास वाले और नरगासर के बकरों की गंध पीछे छूट जाती है। गायों का गोबर गली-गली की धूल से अपवित्र हुई चप्पलों और मोजड़ियों को पवित्र करने के इंतज़ार में मिलता है। यहीं जोशी जी की एक पान की दुकान है। दिन भर से दुकान पर बैठे जोशी जी को आराम देने के लिए छोटे भाई आ गए। "हमें जावों" इतना कहकर उन्होने दुकान की पेढ़ी की ओर टांग बढ़ाई। गल्ले के पीछे तक पहुँचने में टांग थोड़ी छोटी पड़ गयी। टांग की क्रिया-गति इतनी धीमे थी कि गिरने की जगह टांग हवा में लटकी रह गयी। उन्होने ध्यान से हवा में स्थिर टांग को देखा। टांग को थोड़ा उठाया, थोड़ा आगे बढ़ाया लेकिन अन्तरिक्ष के निर्वात में स्थिर की भारहीन वस्तु की तरह टांग फिर भी लटकी रही। दायें बाएँ देखे बिना नाप को सही किया और वे तीसरे प्रयास में दुकान में पहुँच गए।

रेगिस्तान के विद्यालयों शौचालय

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मेरे पास एक माइक्रोफोन और एक छोटा रिकॉर्डर था। विद्यालय में प्रवेश करते ही मेरी नज़र इसी तरफ गयी। मैंने अपने साथ चल रहे गुरुजी से पूछा कि क्या मैं ये टॉयलेट्स देख सकता हूँ। वे बोले "अरे ज़रूर देखिए।" विद्यालय के मुख्य द्वार से हम उसी ओर चल पड़े। रेगिस्तान के बीच किसी विद्यालय में इतने सुंदर दिखने वाले और स्वच्छ शौचालय मेरे लिए आकर्षण का कारण होने से अधिक प्रसन्नता का विषय थे। ये छह शौचालय हैं। फाइबर से बने हुए हैं इसलिए इनकी उम्र काफी होने की आशा की जा सकती है। इनको इतना ऊंचा इसलिए बनाया गया कि इस ऊंचाई के नीचे पीछे वेस्ट के लिए पिट बने हैं। उनमें एक विशेष प्रकार का सूखा रासायनिक मिश्रण डाला हुआ है जो विष्ठा को गंध रहित खाद में बदल देता है। फाइबर बॉडी के ऊपर जो लाल रंग की पट्टी दिख रही है, वह असल में वाटर टैंक है। शौचालय का उपयोग करने के बाद फ्लश किया जा सकता है। एक फ्लश में इतना कम पानी खर्च होता है कि एक टॉयलेट का वाटर स्टोरेज तीन दिन तक चल जाता है। मैंने गुरुजी से पूछा कि क्या विद्यालय की लड़कियां इनका उपयोग कर रही हैं। उन्होंने कहा- "लड़कियों के लिए सचमुच ये क

हमारा क्या होगा?

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पहाड़ की ऊंची चोटी पर एक मंदिर था। वहाँ से नीचे पाँच सौ मीटर का रास्ता तय करना था। जब हम ऊपर गए थे तब उसे जाने क्या हो गया था। वह कुलांचें भरते हुए पत्थरों की ओट में बढ़ती गयी। उसे इस बात की परवाह न थी कि वह अकेली है। मैं पीछे छूट गया हूँ। बाइस की उम्र ऐसी भी नहीं होती कि बचपना जाग उठे। जब मैं ऊपर पहुंचा तब वह एक अधेड़ पुजारी से बात कर रही थी। मुझे देखकर चहक कर बोली "ये चमत्कारी जगह है, देखो बाबा ने मुझे पहचान लिया" मैं पल दो पल निर्विकार रहा तब तक उसने आगे कहा "सचमुच ये बड़ी बात है। किसी लड़की के चेहरे पर थोड़े ही लिखा होता है कि उसके पिता आर्मी ऑफिसर है" वह मंदिर के चारों ओर पत्थर की दीवार को छूते हुए परिक्रमा करने लगी। जब चक्कर पूरा हुआ तब मैंने कहा- "चलें" उसने मंदिर के चारों ओर बनी रेलिंग को पकड़कर एक दो बार नीचे ज़मीन की ओर झाँका। हम उतरने लगे। इस बार वह तेज़ नहीं उतर रही थी। बल्कि हाथ थामकर आहिस्ता साथ चल रही थी। "हमारा क्या होगा?" पहाड़ की ढलान उतरते हुए उसने पूछा। मैंने कहा- "हम बहुत जल्द सब भूल जाएंगे" उसने शंकित निगाहें मेर

चुनावी टिप्पणी - अशिक्षित असभ्य समाज

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देश के कुल बजट में शिक्षा का बजट केवल ढाई प्रतिशत है। वर्ष दो हज़ार अट्ठारह-उन्नीस के लिए शिक्षा को इक्यासी हज़ार करोड़ रुपये मिले हैं। ये ऊंट के मुंह में जीरा भी नहीं है। मैं समझता हूँ कि देश चलाने के लिए भिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं लेकिन एक सुशिक्षित समाज का निर्माण ही किसी देश का प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए। एक अफसोस ये भी है कि देश की कुल स्कूली शिक्षा में से तीस प्रतिशत निजी शिक्षा ने हथिया लिया है। इनका कुल बजट माने इन निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा की जाने वाली लूट भी इतने ही हज़ार करोड़ की हो चुकी है। ये एक विडम्बना है। शिक्षा को लेकर मेरी चिंता आज अचानक इसलिए फिर से पेशानी पर उभरी है कि आज कुछ राज्यों से चुनाव परिणाम आये हैं। मेरी फेसबुक मित्र सूची के आम और खास लगभग सभी अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इनकी प्रतिक्रिया की भाषा अशिक्षित, द्वेषपूर्ण, कुंठित और निम्न स्तरीय व्यक्ति होने का बोध करा रही है। नेताओं से भारतीय समाज कोई अपेक्षा नहीं करता है, ये दुखद है। लेकिन पत्रकार, शिक्षक और विद्यार्थी भी उन्हीं की भाषा के पदचिन्हों पर चल रहे हैं। अंत में वे जो प्रगतिशी

हो तो फिर

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नदी में ठहरी रहे कोई नाव पोखर के पानी पर पड़ा हो सूखा पत्ता रेत के धोरे पर हो सोनल घास का बूंठा तब ही सुंदर लगता है किसी का इतना बड़ा होना। दिल पर भी होना चाहिए कोई ज़ख्म। * * *

मैं अपनी एक बेहद झूठी तस्वीर हूँ

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लगता है ऐसा कभी कभी जैसे कि शाम ढल गयी। हर दिन मैं एक नए मन के साथ जागता हूँ। मैं बहुत कुछ भूल चुका होता हूँ। अपनी ही लिखावट को पढ़कर याद नहीं कर पाता कि ये किसके लिए लिखा था। मेरी लिखावट में किसी का नाम नहीं होता। इससे भी अधिक मुश्किल की बात ये है कि अक्सर लिखावट में किरदार इतने गहरे और सुंदर लिखता हूँ जितना मैंने उनको सुंदर होना चाहा था। ऐसे किरदार दोबारा सच में कभी खोजे नहीं जा सकते। तस्वीरें इसके उलट एक खाका अपने साथ लिए बैठी रहती हैं। जैसे अभी-अभी ही उस कॉफी टेबल से उठ कर आया हूँ। लेकिन एक दिक्कत है कि तसवीरों में भी किरदार छुपाए जा सकते हैं। हम बाद अरसे के हमारी मुस्कान और दुख को नए अर्थों में पढ़ पाते हैं। ये सच है कि लिखावट झूठ से भरी होती है। तस्वीरें झूठी नहीं होती ऐसा नहीं है लेकिन वे इसलिए बच निकलती हैं कि वे कभी कुछ कहती नहीं। केवल देखने वाला ही उनको पढ़ता है। मैं अपनी एक बेहद झूठी तस्वीर हूँ।

मन अंधेरे से भरी भखारी है

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या तो रख लो या ठोकर मार दो। दो साल बाद अब मुझे इस बात के लिए आग्रह नहीं रहा। अब लगता है कि जैसे जो बीत रहा है, उसमें अधिक हस्तक्षेप न करो। किसी की भी प्रकृति और बन्धनों को जाना नहीं जा सकता। इसलिए उसे जगह और समय दो ताकि वह सांस ले सके। हो सकता है तुम्हारी ही तरह वह भी किन्हीं दूजी बातों की परेशानी में घिरा है। इतना उकताया हुआ है कि कुछ करना उसके बस की बात न रहा। हताशा ऐसी ही कि खुलकर रो भी नहीं पा रहा। सबके मन अंधेरे से भरी भखारी है, उसमें जाने कैसे कैसे डर बैठे हैं।

या उसका होना न होता तो अच्छा होता ?

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रंगीन पेंसिल की लकीर थी। आगे न बढ़ी तो रुक गयी। आहिस्ता आहिस्ता हल्की हो गयी। अब गौर से देखना पड़ता। किसका रंग था ये? बहुत अधिक बरस नहीं, बस कुछ एक बरस पीछे झाँकने पर याद आता। उसका चेहरा थोड़ा सा बनता। खाली छूटे हुए चेहरे के पार कोरा आकाश झाँकता। प्यार करते थे। जैसे नदी के किनारे की रेत और पानी। नदी कम पड़ती तो रेत आगे बढ़कर उस तक पहुँच जाती। रेत दूर सरकती तो पानी आगे बढ़कर उसे छू लेता। इस तरह एक साथ ही दिखे। पानी और रेत की तरह। मगर जिस तरह रंगीन पेंसिल की लकीर खो गयी थी, उसी तरह पानी दूजी तरफ बहा, रेत दूजी ओर उड़ी। एक पानी की लकीर शेष रह गयी। कैसे होता है ऐसा ? उन दिनों वही सब कुछ लगता। इन दिनों उस होने के बारे में सोचकर ठहर जाते हैं। समझ नहीं आता कि वो जो हुआ, वह अच्छा था या उसका होना न होता तो अच्छा होता। झड़े हुये फूलों के रंग उड़े हुये हों ज़रूरी नहीं। कई बार रंग गहरे होते जाते हैं। मन श्वेतपट्ट है। बुझी बुझी लकीरों से भरा। दिल, रेत के धोरे की उपत्यका है, जिसमें एक सूखी नदी बहती है। ये कितना उदास दृश्य है। इस दृश्य से अधिक सुंदर भी क्या होगा?  * * * लेखक भले ही चला

कोई बतलाओ कि

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हमें हमारे बारे में क्या बताना चाहिए और जो हम बताएंगे क्या वह पर्याप्त और उचित होगा? क्या उस सबके होने से हम ये कह पाएंगे कि जीवन का ठीक उपयोग कर सके। ठीक न सही, क्या इतना भर कह पाएंगे कि जीवन जैसे जीना चाहते थे वैसे जिए। अगर न जी सके तो क्या ये कह पाएंगे कि हमने कोशिशें ईमानदारी से की थी। अगर हम अपने बारे में बताना चाहें। मैं अगर अपने परिचय में एक काफी लम्बी उम्र के बारे में लिख दूँ। जीवन जीने के लिए किये कार्यों का ब्यौरा दूँ। जैसे मैंने अख़बारों और पत्रिकाओं में लिखना सीखा। मैंने रेडियो के लिए बोलने का शऊर जाना। मैंने आत्मा में कीलों की तरह चुभी हुई घटनाओं को कहानी के रूप में कहकर मुक्ति चाही। प्रेम के वहम में जो महसूस किया उसे कविता की तरह बातें बेवजह कहकर एक ओर रख दिया। क्या रेडियो ब्रॉडकास्टर होना, पत्रिकाओं के पन्नों पर अपनी तस्वीरों के साथ छपना, कहानी की किताबों वाला कहलाया जाना कोई बड़ी बात है? पक्का नहीं ही। ये कहना कि मैं अपनी किताबों का प्रचार नहीं करता भी एक तरह का प्रचार है। ये कहना कि मैंने जो किया उससे कोई मोह नहीं है, ये भी एक तरह से अपने विगत का

जागती आँखों के बाद

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रात भर स्वप्न झड़ते हैं  मैं एक बेंच पर बैठा हुआ इस बरसात को देखता हूँ। झड़ते फूलों और सूखे पत्तों को हवा बुहार कर ले जाती। घास के किसी बूझे में कोई पत्ता ठहर जाता। कोई फूल किसी गिरह के साथ किनारे अटक जाता। हवा रुककर फिर से बहती। हवा के साथ और सूखे पत्ते और फूल आ जाते। झड़ जाने के बाद हम एक नयी इच्छा पा सकते हैं। झड़े हुये पत्तों और फूलों के साथ बहते जाने की इच्छा। पीले, हल्के गुलाबी और ऐसे ही उड़े-उड़े रंगों के बीच अपना प्रिय रंग खोजने की इच्छा। हम कहाँ जाएंगे। हवा कहाँ ले जाएगी? जिस तरह शाख से बंधे होने पर किसी से प्रेम करने के लिए कहीं जाया न जा सका। न कोई आ सका। क्या इसी तरह टूट बिखर जाने के बाद भी हम अलग कहीं उलझ जाएंगे? क्या मौसमों को पार करते हुये बहुत दूर पहुँच कर भी एक लम्हे को ठहरना और फिर बिछड़ जाना है? सफ़ेद कुर्ते पर जेब के पास नीले, लाल, पीले रंग फैलने लगते हैं। जैसे जेब में पानी के रंगों की टिकड़ियाँ रखीं थी। पतझड़ को देखकर उदासी में भीग गयी हैं। अब सब रंग फैलते जा रहे हैं।  * * * दायीं और हाथ बढ़ाता हूँ। पिछले महीनों तीन चश्मे टूट गए थे। इसलिए नीम न

होर्डिंग्स से ढके शहर

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शहरों को मल्टी नेशनल कम्पनियों के होर्डिंग और स्टोर्स व रेस्तराओं की चैन ने एक सा लुक दे दिया है। संकरी गलियों में भी एक से डिस्प्ले लगे हुए। अगर किसी की आवाज़ न सुनाई दे तो लगता ही नहीं कि किस महानगर में खड़े हैं। इन एमएनसी का नाश हो। हम शहरों को उनकी अपनी लिखावट, दीवारों, मेहराबों और कंगूरों से पहचान सकें। हम चमचमाती रोशनी से परे चेहरों के दुख सुख पढ़ सकें। हम हर जगह पूछ सकें कि ये रास्ता कहाँ जाता है। बताने वाला भी सोचे कि परदेसी है इसे बताने की ज़रूरत है। जिस कलकत्ते पर चम्पा बजर गिरने सा क्रोध करती थी। उसी कलकत्ते से प्यारे बांग्ला लोगों का प्रेम लेकर लौट आये हैं। कल कलकत्ते की दोपहर गरम थी। आज सुबह का रेगिस्तान बहुत ठंडा मिला। तस्वीर परसों शाम की है। पिता पुत्री बंगाली शादी के रिच्युअल्स देखते हुए।

जयपुरी पगड़ी वाले गांधी जी

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हेनरी डेविड थोरो एक विचारक थे। उनका मूल विचार था कि संसार में स्वविवेक से बड़ा कोई कानून नहीं है। गांधी जी को थोरो का ये चिंतन प्रिय था। गांधी जी ने भी आत्मपरीक्षण सम्बन्धी काफी प्रयोग किये। अपने अनुशासन पर काम किया। रेगिस्तान का प्रिय विचार है कि "माथो तावड़े में नी तपणो चाइजै" इसलिए गांधी जी को किसी जयपुर वासी ने पगड़ी पहना दी है।  * * * तस्वीर आज सुबह ली थी। अभी तो दिल्ली जा रहा हूँ। शताब्दी वालों ने फटाफट सेन्डविच नमकीन पॉपकॉर्न और पानी पुरस दिया। सारे यात्री जैसे इसी इंतज़ार में थे। भूखी अवाम की तरह टूट पड़े। मैंने आभा से कहा- "इतनी हड़बड़ी में सबको एक साथ खाना शुरू नहीं करना चाहिए।" आभा ने कहा- "क्या दिक्कत है?" मैंने कहा- "ये सब चीजें यहां तक कि सेन्डविच ठंडे ही हैं।" "तो ?" "बाड़े जैसी फील आ रही है" मैंने ध्यान दिया कि नमकीन आ गई लेकिन ग्लास नहीं आया। मुझे इस चिंतन में देखकर आभा ने पूछा- "क्या सोच रहे हो?" "नमकीन आ गई लेकिन ग्लास और बोतल अभी नहीं आये।" आभ