इतवार का स्वाद

मैं कहता हूँ- "तुम्हारे जैसे स्ट्रीक्स मेरे बालों में होते तो कितना अच्छा लगता." भावना मुझे थोड़ी ज्यादा आँखें खोलकर देखती है. मैं उसे समझाता हूँ कि ये जो तुम्हारे बाल हैं. इनमें दो रंग हैं. ऐसे बाल रंगवाने के लिए लोग पैसे खर्च करते हैं. भावना पूछती है- "कित्ते?" मैं कहता हूँ- "तीन हज़ार से तीस हज़ार रूपये" वह ऐसे हंसती हैं जैसे ऐसा हो ही नहीं सकता.

मैं कहता हूँ- "मुझे चोटी बनाने जित्ते लम्बे बाल अच्छे लगते हैं." भावना कहती है कि उसके भी चोटी बनती थी. अपने सर पर बालों को ऊपर की ओर लम्बा तानते हुए अंदाजा लगाती है- "इत्ती लम्बी तो थी." मैं कहता हूँ- "मैं इससे भी लम्बी चोटी और ऐसे स्ट्रीक्स वाले बाल बनाऊंगा." वह हंसती है. उसे लगता है कि मैं केवल उससे बातें बना रहा हूँ.

मैं अपने फेसबुक प्रोफाइल में अपनी चोटी वाली तस्वीर खोजने लगता लगता हूँ. वह अपनी ताई से कहती है- "ये क्या सब्जी है? उबलते-उबलते ही सौ घंटे लग जायेंगे." ताई कहती हैं- "ये तो अभी बन जाएगी. तेरी मम्मी बनाती है, सौ घंटे में ?" भावना कहती है- "पापा बनाते हैं."

"तो फिर पापा सब्जी बनाने का कहकर सो जाते होंगे."

भावना और ताई के सवाल जवाब सुनते हुए मुझे याद आया कि मेरे पापा तो कभी रसोई में नहीं जाते थे. उन्होंने मुझे बताया था कि कभी एक दो बार उन्होंने रोटी बनाई थी. उन्होंने साग कभी नहीं बनाया था. मगर पापा बाल बनवाने के मामले में बड़े सख्त थे. वे एक ऐसे नाई के पास ले जाते थे. जिसने मेरे दादा जी के भी बाल बनाये थे. प्रताप हेयर ड्रेसर वाले प्रताप चंद, हमारे सर को टेढ़ा नीचा करके बाल बनाना भूल जाते थे.

जब वहां से छूट जाते थे तो लगता था कि ज़िन्दगी कितनी खूबसूरत है. इस मुक्ति के बाद इतवार का स्वाद, इस दुनिया का सबसे मीठा स्वाद होता था.