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Showing posts from October, 2017

क्या होगा सोचकर

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उसकी आँखें, रेत में हुकिए का बनाया कुआं थी. मैं किसी चींटी की तरह उसे खोजता रहता था. प्रेम पूर्वक उस भुरभरी रेत पर फिसल जाना चाहता था. उसके दांतों से मुक्ति मेरी एक कामना थी. उसके होंठ बंद रहते थे, मैं देर तक चुप उनको देखता था. कि हंसी की उफनती लहर आएगी और मैं एक पतली नौका की तरह उसमें खो जाऊँगा. मगर जिस रोज़ मैंने जाना कि वह किसी के प्रेम है. उसी रोज़ मैं रेगिस्तान की रेत के नीचे छुप गया. यहाँ रेत के नीचे सीलन है, अँधेरा है पर यहाँ भी कभी-कभी उसकी आँखें याद आती हैं, यहाँ भी उसके बंद होठ दीखते हैं. इसके आगे मैं नहीं सोचता हूँ. क्या होगा सोचकर... [हुकिया समझते हैं? आंटलायन]

याद करते हुए एक बरस

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शाम के ढलने से कुछ पहले बची हुई कच्ची धूप में लम्बी परछाइयां सामने की दीवार को ढक लेती थी। इयरफोन से झरती बातों को सुनते हुए आर्म गार्ड रूम के पास तक के चक्कर काटते हुए, एक ढलती दोपहर को देखा कि बेरी पर लाल-पीले रंग मुस्कुरा रहे हैं। उस पहली बार देखने से ही लगा कि तुमसे मिलने का यही मौसम है। दफ़्तर के भीतर आने पर मालूम होता कि कमीज़ की बायीं जेब में या कुर्ते के दाएं बाए या कभी जीन्स की अगली जेब में कच्चे हरे, आधे पीले या लाल बेर रखे हैं। बेर की ख़ुशबू से स्टूडियो भर जाता। कभी कुछ बेर घर तक साथ चले आते थे। वे कभी टेबल, कभी छोटी अलमारी के ऊपर या बिस्तर पर पड़ी किताबों पर रखे मिलते। ऐसा लगता कि हमारी बातों के बचे हुए रंगीन छोटे कंचे रखे हैं। एक रोज़ बातें ख़त्म हो गईं। बेर मगर हर साल आते रहे। बेरी पर उनका रंग हंसता रहा। जैसे वो याद दिलाने का रंग बन गया कि यही तो वो मौसम था, जब उतरती धूप का मतलब था, तुम्हारा फोन आना। देर तक टहलते हुए बच्चों के बारे में सुनना। आर्ट क्लास में बीती दोपहर। सुबह छूट गई बस। खुले पैसे। और ये शिकवे भी कि दुनिया इतनी बड़ी क्यों है। लोग इतने दूर घर क्य

जोगी ही बन जाएँ मगर

अंगुली की मुद्रिका, कानों के कर्णफूल, गले का हार, जेब में रखा बटुआ और साथ चलने वाला हमें अत्यधिक प्रिय ही रहते हैं। हम ही उनको चुनते हैं। अनेक बार नई मुद्रिका की ओर हमारा ध्यान जाता है। उसे दूसरी अंगुलियां बार-बार स्पर्श करके देखती है। गले मे बंधे हार का आभास होता रहता है। जेब को नया बटुआ अपने होने का संदेश देता रहता है। नए साथी की ओर बारम्बार हमारा ध्यान जाता है। उसके पास होने भर से सिहरन, लज्जा, मादकता जैसी अनुभूतियाँ हमारे भीतर अग्निशिखा की तरह लहराती रहती है। समय के अल्पांश में मुद्रिका, कर्णफूल, हार और साथी हमारा हिस्सा हो जाते हैं। हम इस तरह उनके अभ्यस्त हो जाते हैं कि उनका होना ही भूल जाते हैं। कभी सहसा चौंकते हैं कि मुद्रिका है या नहीं। गले को स्पर्श कर पता करते हैं कि हार वहीं है न। कर्णफूल को स्पर्श कर आराम में आते हैं। साथी को असमय अपने पास न पाकर विचलित हो जाते हैं। भय के छोटे-छोटे टुकड़े हमें छूते हैं और सिहरन भर कर चले जाते हैं। एक दिवस। मुद्रिका की याद नहीं रहती। कर्णफूल, हार और वह सब जिसे हमने चुना था। उसके होने की अनुभूति मिट जाती है। जेब में पड़ा बटुआ चु

उसकी आमद का ख़याल

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शाम और रात के बीच एक छोटा सा समय आता है। उस समय एक अविश्वसनीय चुप्पी होती है। मुझे कई बार लगता है कि मालखाने के दो पहरेदार अपनी ड्यूटी की अदला बदली कर रहे हैं।  उन्होंने मालखाने के ताले पर गहरी निगाह डाली है। इसके बाद चाबियों के गुच्छे की खनक के साथ चुप्पी टूट जाती है। दूर तक एक बीत चुके दिवस की स्मृति पसर जाती है। जैसे खाली प्याले के भीतर चाय की याद। * * * मेरे गालों पर लाल लकीरें खींचने फिर सर्दी आएगी। दस्तानों में अंगुलियां डालते मुझे एक गार्ड देख रहा होगा। जाने कितनी ही बार की कोशिश के बाद स्टार्ट होगा स्कूटर। तब तक शिफ्ट के बाकी लोग पहुंच चुके होंगे पास की कॉलोनी में अपने घर। पहले मोड़ पे छूकर गुज़रेगी बर्फ। मैं सोचूंगा कि क्या इस वक़्त भी कोई क़ैदी जागता होगा जेल में। कुछ दूर आगे एसपी साहब की हवेली से आती होगी व्हाइट स्पायडर लिली के फूलों की मादक गंध। जिलाधिकारी के घर से दिख जाएंगे आदमकद स्वामी विवेकानन्द, अस्पताल जाने वालों को निर्विकार देखते अपने हाथ बांधे हुए। मैं स्कूटर धीरे चलाऊंगा। मैं लम्बी सांसें लूंगा। मैं देखूंगा दूर तक कि कोई नहीं है और रास्ते

तुम्हारे लिए हमेशा

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"तुम आ जाओ। तुम्हारा इंतज़ार है।" ऐसा कहने वाले ने आने का रास्ता भी रखा हो, ये ज़रूरी नहीं होता। उसने किसी पुरानी बात को याद करके महज इसलिए कह दिया होगा कि वह ख़ुद को ग़लत साबित न करना चाहता होगा। हम इस लम्हे को सच जानते हैं। किसी आवेश में कह देते हैं कि तुम्हारे लिए हमेशा हूँ। एक घड़ी में हमारा मन बदल जाता है। फिर हम कभी इतने सच्चे और हिम्मती नहीं होते कि उसे कह दें। अब वो मन न रहा। जाने किस मोह में मैंने ऐसा सोच लिया कि सबकुछ हमेशा के लिए हो सकता है। बातें और रिश्ते कभी-कभी पारदर्शी कांच बन जाते हैं। उनके आगे का संसार दिखता तो है मगर वहां तक जाने का कोई रास्ता नहीं होता। हम सम्बन्ध की इति को नहीं स्वीकारते और भँवरे की तरह बन्द रास्ते के पार पहुंचने की आस में वहीं टूट बिखर जाते हैं।

प्रिय को बदलते हुए देखकर

धीरे से बादल चले आये. दोपहर में शाम का भ्रम होने लगा. बाहर निगाह डाली. खिड़की से दीखते सामने वाले घर की दीवार पर छाया उतरी हुई थी. एक गिलहरी ज़मीन की ओर मुंह किये लटकी थी. वह चुप और स्थिर थी मगर उसे इस तरह नीचे देखते हुए देखकर लगा कि वह है. उसे देखकर तसल्ली आई कि अभी सबकुछ ठहरा नहीं है. शहतीर के नीचे उखड़े प्लास्टर में बने घरोंदे से झांकते तिनके हवा के साथ हिल रहे थे. लोहे के जंगले पर बैठी रहने वाली चिड़ियाँ गुम थी. इस तरह बाहर झांकते हुए लगने लगा कि ये कोई स्वप्न है. वही स्वप्न जिसमें ज्यादातर खालीपन पसरा होता है. दफ़अतन कुछ हमारे सामने आता है और हम उससे टकराने के भय से भरकर सिहर जाते हैं. मन भी ऐसे ही सिहर गया. अचानक लगा तुम खिड़की के आगे से गुज़रे. इस दौर में हमारे पास कितना साबुत मन बचा है. उसकी उम्र क्या है. इसलिए कि हम जल्दी-जल्दी लिखकर, तेज़-तेज़ बोलकर, कैमरा पर फटाफट देखकर, बाहों में भर लेने जैसा सबकुछ सच्चा-सच्चा लगने सा जी लेते हैं. और शिथिल होकर बैठ जाते हैं. ठीक वैसे जैसे बादलों ने एक कड़ी दोपहर को छाँव से भर दिया हो. आँखें सामने दिखती दीवार को देखती रहती है

इतवार का स्वाद

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मैं कहता हूँ- "तुम्हारे जैसे स्ट्रीक्स मेरे बालों में होते तो कितना अच्छा लगता." भावना मुझे थोड़ी ज्यादा आँखें खोलकर देखती है. मैं उसे समझाता हूँ कि ये जो तुम्हारे बाल हैं. इनमें दो रंग हैं. ऐसे बाल रंगवाने के लिए लोग पैसे खर्च करते हैं. भावना पूछती है- "कित्ते?" मैं कहता हूँ- "तीन हज़ार से तीस हज़ार रूपये" वह ऐसे हंसती हैं जैसे ऐसा हो ही नहीं सकता. मैं कहता हूँ- "मुझे चोटी बनाने जित्ते लम्बे बाल अच्छे लगते हैं." भावना कहती है कि उसके भी चोटी बनती थी. अपने सर पर बालों को ऊपर की ओर लम्बा तानते हुए अंदाजा लगाती है- "इत्ती लम्बी तो थी." मैं कहता हूँ- "मैं इससे भी लम्बी चोटी और ऐसे स्ट्रीक्स वाले बाल बनाऊंगा." वह हंसती है. उसे लगता है कि मैं केवल उससे बातें बना रहा हूँ. मैं अपने फेसबुक प्रोफाइल में अपनी चोटी वाली तस्वीर खोजने लगता लगता हूँ. वह अपनी ताई से कहती है- "ये क्या सब्जी है? उबलते-उबलते ही सौ घंटे लग जायेंगे." ताई कहती हैं- "ये तो अभी बन जाएगी. तेरी मम्मी बनाती है, सौ घंटे में ?" भावना कहती है-

दफ़्तर के चूहे, बिल्ली और सांप

सांप चूहे खा जाते हैं। इसलिए बिल्लियां उनको पसन्द नहीं करती। वे उनको मार डालती हैं। हमारा आकाशवाणी वन विभाग के छोर पर बना है तो बहुत सारे सांप आते रहते हैं। विषैले और विषहीन। इधर बिल्लियां भी रहती हैं। वे अक्सर ड्यूटी रूम के सोफे पर सोई मिलती हैं। उनके बच्चे भी सोफे को बहुत पसंद करते हैं। ड्यूटी रूम में आने वाले मेहमानों को अक्सर याद दिलाना पड़ता है कि देखिए बिल्ली के बच्चे हैं। उन पर न बैठ जाना। एक शाम को उद्घोषक डरी हुई बाहर गेट तक चली आई। सर प्ले बैक स्टूडियो के दरवाज़े पर मैंने सांप देखा। गार्ड ने कहा कि अभी देखते हैं। सांप कहीं इधर-उधर हो गया। वह लौट कर अंदर जाने लगी तो जनाब फिर से दरवाज़े पर रास्ता खोज रहे थे। वह वापस भागी। सांप को फिर हटा दिया गया। वे स्टूडियो में डर रही थी। उनको कहा कि आप मैं तेरी दुश्मन गीत प्ले कीजिये। अमरीश साहब के आने का सोचकर सांप खिसक लेगा। एक शाम एक उद्घोषक की उद्घोषणा अधूरी रह गयी। माइक से दरवाज़ा खुलने की आवाज़ भर आई। वे बाहर आये और बोले। सर स्टूडियो के कंसोल पर फेडर्स के बीच एक बिच्छू आ बैठा है। उनको सुझाव दिया कि बिछुआ मोरे साजन का प्यार गीत

दूर से आते हुए पिता

पहले तो दिख जाते थे दूर से आते हुए पिता। अब धुंधला जाती हैं आंखें भरी-भरी गली में नहीं दिखता उनका आना। कभी-कभी इससे भी अधिक उदास हो जाता हूँ। उन पिताओं के बारे में सोचकर जो इसी तरह जा चुके बच्चों का भूल से करने लगते होंगे, इंतज़ार। * * * मैं सो नहीं सकता हूँ कि मैं सो गया तो कौन जागेगा तुम्हारी याद के साथ? तुम्हारे बिना इस खाली-खाली दुनिया मे कितनी तन्हा हो जाएगी तुम्हारी याद। * * *

बिछड़ने के बाद के नोट्स

बाद बरसों के देखते हुए  हालांकि हमें ज्यादा कुछ याद नहीं होता।  फिर भी लगता है कि  उसके चेहरे पर ऐसी उदासी पहले कभी न देखी थी। * * * वह हमेशा उल्लास से भरी रहती। एक जगह एक ही भाव में रुकना उसका हिस्सा न था। जब हमने तय किया कि अब आगे हम एक साथ नहीं हो सकते। तब भी उसने ज़रा सी देर चुप रहने की जगह गहरी सांस ली। कुर्सी से उठी और जल्दी में कुछ खोजने लगी। बाद बरसों के देखा कि वह टेबल पर झुकी कुछ पढ़ रही थी। वह क्या पढ़ रही थी, ये नहीं जाना जा सकता था। इतनी एकाग्रता से उसे पढ़ते हुए कभी नहीं देखा था। वह जो जेब से बाहर दिखते पेन को पसन्द न करती थी, उसी ने पेन को दांतों में दबा रखा था। उसके बाएं गाल पर बहुत ऊपर का बड़ा तिल अब और बड़ा हो गया था। उसके बाल अब भी पहले की ही तरह उलझे थे, यही एक बात नहीं बदली थी। मैंने अपने पैरों की तरफ देखा। मैंने काले फॉर्मल शू पहने हुए थे। मैंने याद करना चाहा कि सेंडिल पहने घूमना कब बन्द कर दिया था। मैं बदल गया था। मैं बदलना नहीं चाहता था। मैं उसके लिए वैसा ही रहना चाहता था केजुअल सेंडिल, जीन्स और सफेद कमीज वाला। इससे पहले कि वह मेरे जूते देख

आस्ताने में दुबकी छाँव

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धीरे से बादल चले आये. दोपहर में शाम का भ्रम होने लगा.  बाहर निगाह डाली. खिड़की से दीखते सामने वाले घर की दीवार पर छाया उतरी हुई थी. एक गिलहरी ज़मीन की ओर मुंह किये लटकी थी. वह चुप और स्थिर थी मगर उसे इस तरह नीचे देखते हुए देखकर लगा कि वह है. उसे देखकर तसल्ली आई कि अभी सबकुछ ठहरा नहीं है.  शहतीर के नीचे उखड़े प्लास्टर में बने घरोंदे से झांकते तिनके हवा के साथ हिल रहे थे. लोहे के जंगले पर बैठी रहने वाली चिड़ियाँ गुम थी. इस तरह बाहर झांकते हुए अचानक लगने लगा कि ये कोई स्वप्न है. वही स्वप्न जिसमें ज्यादातर खालीपन पसरा होता है. अचानक कुछ हमारे सामने आता है और हम उससे टकराने के भय से भरकर सिहर जाते हैं.  मन भी ऐसे ही सिहर गया. अचानक लगा तुम खिड़की के आगे से गुज़रे. इस दौर में हमारे पास कितना साबुत मन बचा है. उसकी उम्र क्या है. इसलिए कि हम जल्दी-जल्दी लिखकर, तेज़-तेज़ बोलकर, कैमरा पर फटाफट देखकर, बाहों में भर लेने जैसा सबकुछ सच्चा-सच्चा लगने सा जी लेते हैं. और शिथिल होकर बैठ जाते हैं.  ठीक वैसे जैसे बादलों ने एक कड़ी दोपहर को छाँव से भर दिया हो.  आँखें सामने दिखती दीवार को दे

चश्मे के पीछे छुपी उसकी आँखें

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छोटे बच्चे की तरह  अँगुलियों पर जाने क्या गिनता रहता है मन. उसने कहा- "किशोर सर, स्मार्ट फोन में एक एप है. जो हमारे बोलने को लिखता है और लिखे हुए को पढ़कर सुनाता है. ये कितना अच्छा है" उसकी आवाज़ में उत्साह था. प्रसन्नता भी थी. उसकी ख़ुशी सुनकर मेरी आँखें मुस्कुराने लगी. हालाँकि उसे लिखना आता था. कुछ साल पहले उससे मिला था तब उसने कागज़ पर मेरा नाम उकेर कर दिया था. अपनी अंगुली से अपने ही लिखे उस नाम को पढ़ा, किशोर चौधरी. और फिर ऐसे हामी में सर हिलाया जैसे काम सही हो गया हो. स्टूडियो में उसने पूछा. "क्या मेरे सामने माइक्रोफोन रखा है?" मैंने कहा- "हाँ आपके सामने है." उसने कहा- "माइक्रोफोन को छूना तो अच्छा नहीं होता न?" मैंने कहा- "आप चाहें तो छू सकती हैं" उसने अपने हाथ को चेहरे की सीध में लाने के बाद सामने बढ़ाया. मुझे लगा कि वो माइक को देख पा रही हैं. इतने सधे तरीके से माइक को छूना, मुझे एक ठहराव से भरने लगा. बेहद नाज़ुकी से उसकी अँगुलियों ने माइक की जाली की बुनावट को चारों तरफ से छुआ. उसके चेहरे पर संतोष था. अचानक कहा- "तो ये

तुमसे कभी नहीं मिलना चाहिए था

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बेचैनी के पांव नहीं थे। उसके आने की आहट नहीं सुनाई दी। आहिस्ता से हर चीज़ का रंग बदलने लगा। कमरे में खालीपन भरने लगा। पेशानी में और बल पड़े कि शायद बालकनी में भी एक चुप्पी आ बैठी होगी। तुम एक लकीर की तरह होते तो भी मिटाया न जा सकता था। कि तुम्हारे होने को अंगुलियां किस तरह छूती। कोरे मन पर एक स्याह लकीर को छूना सबसे अधिक डरावना लगता है। न इंतज़ार, न कोई आमद का ख़याल कि सब कुछ ठहरा हुआ। दुख भी कुछ नहीं। बस एक ठहरी हुई ज़िन्दगी। छू लो तो जाने किस जानिब चल पड़े, यही सोच कर अंगुलियां आपस में बांध ली। आवाज़ के नन्हे टुकड़े फेंकती एक चिड़िया के फुर्र से उड़ जाने के बाद गिलहरी की लंबी ट्वीट से सन्नाटा टूट गया। एक सिहरन सब चीजों पर उतर गई। दोपहर का एक बजा होगा। शायद एक। ये किस मौसम की दोपहर है। हल्की धूप है। कमरे में सर्द सीली गन्ध है। गुनगुनी छुअन वक़्त में कहीं नीचे दब गई है। अपने घुटने पेट की तरफ मोड़ते हुए लगता है कि मेरा होना थोड़ा और सिमट गया है। कि अब खालीपन कम-कम छुएगा। खिड़की से दिखते पहाड़ पर सब्ज़ा उग आया है। काश ऐसे ही इस अकेलेपन को भेदते हुए किसी आवाज़ के बूटे उग आएं। ब