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Showing posts from May, 2016

लगा लो होठों से

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इतनी कसमें न खाओ घबराकर  जाओ हम एतबार करते हैं. उस आखिरी कश में क्या होता है? अक्सर मैं मांग लेता हूँ. उसने शेयर करना जाने कब का छोड़ दिया होगा कि देने से पहले एक सवालिया निगाह उठती है. उसने ज़रा सा जाने क्या सोचकर अपनी अंगुलियाँ आगे कर दी. यही कोना है, मेरा. ऐसा सुनते हुए मैं उसकी अँगुलियों से आखिरी कश चुन लेता हूँ. क्या उसके लबों को छूकर ठहरी चीज़ें बेशकीमती हो जाती हैं. हो ही जाती होंगी कि मैं अपनी नादानी पर चुप रखे हुए धुएं को रोशनदान से बाहर जाते हुए देखता हूँ. आह ! किस चीज़ को किस चीज़ से मिला रहा हूँ मैं.  कभी किसी परिंदे का मन भी उस बाग़ से भी उठ जाता होगा. जिस बाग़ से सुकून और अपनेपन की आस रहती थी. कई बार वे रास्ते भी फीके लगते हैं, जिनपर चलते हुए वक़्त जाने कहाँ चला जाता था. कई बार खिड़कियाँ वहीँ रहती हैं मगर बाहर के सब दृश्य गुम हो जाते हैं. कई बार हम वो नहीं होते जो कभी थे.  इसी होने और बदल जाने के बीच, अतीत को धन्यवाद.  अगर वह सबकुछ न जीया होता. तकलीफें हिस्से न आई होती. वो बना ही रहता अपने आवरणों के भीतर और सजा आगे खींचती ही जाती. तो क्या कर सकते थे. उस रोज़

पार्टनर तुम आबाद रहो.

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मिर्ज़ा ग़ालिब की वो बात याद है न? कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं.  मैं सोचता हूँ कोई तो कुछ वजीफे छोड़ जाता हिस्से में कि कहानियां कहते, तनहा रहते, फाकों की चिंता न होती. हर महीने रूपया घर आ जाता. मन मुस्कराता है. ऐसा कहाँ होता है. मैं तो जहाँ से याद कर पाता हूँ वहां से जीवन जीने को नौकरी करने की ही चिंता दिखाई देती है. बड़े नौकर, छोटे नौकर और मंझले नौकर मगर पक्के सरकारी नौकर. यही नौकरी सुख की नांव है.  सुख ने सही वक़्त से पहले ही गलबहिंयाँ डाल दी थी. उसे पता था नाज़ुक दिल आदमी है ख़ुद को सता लेगा मगर कोई छल-प्रपंच न कर सकेगा. जियेगा, चाहे निचले दोयम हाल में ही जीना पड़े. कहीं किसी अख़बार में कुछ एक लेख लिखता. पुराने दुष्टों की झिडकियां सुनता रह न सकेगा इसलिए बार-बार नयी नौकरियों की ओर भागेगा. इस तरह का भागना इसे हताश करेगा. तो कुदरत और हालत ने बाईस साल की उम्र में रेडियो में बोलने की नौकरी पर लगा दिया.  नौकरी का ख़याल कल दिन भर पार्टनर के कारण रहा. छोड़ दो नौकरी या रिटायर हो जाओ का हिसाब इसलिए नहीं जमता कि ये पार्टनर कि अपनी चीज़ है. उसपर कोई हुक्म चलाना या दखल देना बेजा है. इसलिए कड़ी

एक जुगलबंदी को

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कितनी ही दफा कितने ही मौसमों से गुज़र कर दिल भूल जाता है. कभी-कभी हवा, पानी, ज़मीं और आसमान के बीच किसी एक ख़याल की छुअन होती है. ये छुअन मौसम की तासीर को अपने रंग में ढाल लेती है. तल्ख़ हवा, तपिश भरी ज़मीं, उड़ चुका पानी और साफ़ या भरा आसमान सब बदल जाते हैं.  कोई शहर किसलिए बुलाता है किसी को? क्या कुछ कहीं छूट गया था? क्या कोई हिसाब बाकी था. क्या कोई नयी बात रखनी थी ज़िन्दगी की जेब में. फिर अचानक ख़याल आता है फटी जेबों और उद्दी सिलाई वाली जिंदगी के पास यादों के सिवा क्या बचेगा? अब तक यही हासिल है तो आगे भी... पिछले सप्ताह के पहले दिन को मुकम्मल जी लेने के बाद एक लम्बी सांस आती है. याद से भरी सांस कि हाव यही वे लम्हे थे. दिल फिर उसी मौसम से गुजरता है.  जबकि कुछ ही देर पहले गुज़रा हो कोई अंधड़ सूखी पत्तियों की बारिश लिए। बूंदें गिरती हो कम-कम। इतनी कि भीग जाएँ और भीगा भी न लगे। दुकानें पूरे शबाब पर हों मगर गिरे हुए हों शटर आधे-आधे। जब दो अलग तरह के प्याले रखे हों एक साथ जैसे कोई दो अलग वाद्य आ जुटे हों एक जुगलबंदी को। जब सर रखा हो उसकी गोद में और आवाज़ बरसती हो आहिस्ता मीठे सलीके स

कासे में भरा अँधेरा

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“माँ, तुम मेरी चिंता करती हो. एक आदमी की प्रतीक्षा करती हो. एक मूरत पर विश्वास करती हो.” रेहा के कहने का ढंग चुभ गया था या इस बात को माँ सुनना नहीं चाहती थी. उनका चेहरा कठोर हो आया था. “जो बातें समझ न आये वे नहीं करनी चाहिए” “समझने के लिए ही पूछा है” माँ कुछ नहीं कहती पहले रेहा की तरफ देखती है फिर दीवार के कोने में झाँकने लगती हैं. चेहरा स्थिर से जड़ होता जाता है. रेहा पास सरक कर माँ के कंधे पर अपनी हथेली रखती है. “बुरा न मानों माँ. ऐसे ही कई बार लगता है कि तुमसे पूछूं. तो आज पूछ लिया” “तुम्हें मालूम है? तुम्हारी उम्र क्या है? इस साल तुम पंद्रह की हो जाओगी”  “हाँ तो?” “तो ये एक आदमी की प्रतीक्षा क्या होता है? कैसे बोलती हो?..” रेहा ने माँ को कभी ऐसे नहीं सुना. वे शांत रहती हैं. उनका चेहरा ठहरा रहता है. उनके चेहरे की लकीरें, रंगत, फिक्र, ख़ुशी कभी नहीं बदलती. लेकिन उन्होंने चिढ कर कहा था. इस चिढ में दुःख भी था. उन्होंने अपने हाथ भी कुछ इस तरह उठाये जैसे जो बात शब्दों से न कही गयी उसे इशारे से कहना चाहती हों. “माँ.” रेहा ने आहिस्ता से कहा. इसमें एक अर्ज़ भी थी

चल दिए सब चारागर

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क़फ़स भी हो तो बन जाता है घर आहिस्ता-आहिस्ता याद तो क्या है, रेगिस्तान के अंधड़ हैं. नहीं आते तो नहीं आते. आते हैं तो फिर नहीं रुकते. क्या सचमुच तीलियों के पीछे क़ैद कोई परिंदा पिंजरे को आहिस्ता-आहिस्ता अपना घर समझने लगता है? रात दो पच्चीस पर नींद उचट गयी. आला किस्म की शराबें आहिस्ता चढ़ती हैं और आहिस्ता उतरती हैं. फिर ये नींद जो आहिस्ता आई थी जल्दी क्यों उचट गयी? नींद कमतर ही थी. क्या नींद को कोई नश्तर चुभता है. कौन जाग करके भाग जाता है. फ्रिज से पानी की बोतल लेकर पीने लगता हूँ. बहुत सारा पी लूँ कि पानी का नशा हो जाये. आँख फिर लगे. मगर कुछ एक ख़याल गिरहें बन कर कस जाते हैं. कोई सिरा फटकार की तरह दिल पर बरसता है. उलटे-सीधे, दायें-बाएं हर करवट मगर कहीं कोई आराम नहीं. तभी याद आया कि एक दिन पिंजरा भी घर लगने लगता है. तो क्या हम सब दुखों और तकलीफों के आदि हो सकते हैं. क्या सचमुच? मैं आँख मूंदे हुए मुस्कुराता हूँ. कुछ हल्का सा लगता है. उसके पेट पर रखा अपना बायाँ हाथ हटा लेता हूँ. शायद बोझ हो गया होगा. कहीं उसकी नींद न उचट जाये. सुबह की ठंडी हवा घर से होकर गुज़रती है. सोफ़ा से

जाने किसी और बात की

रेहा बहुत पीछे से याद करती है. उतना पीछे जहाँ से उसकी स्मृतियाँ शुरू होती हैं. शाम का धुंधलका डूब रहा था. चौक की दीवार में एक आला था. बहुत नीचे. लगभग वहीँ जहाँ से दीवार उठती थी. एक छोटी मूरत थी. काले रंग के पत्थर पर सुन्दर चेहरा था. बंसी साफ़ न दिखाई देती थी मगर थी. मूरत के आगे घी की चिकनाई फैली हुई थी. मूरत के ऊपर दीपक की लौ से बनी स्याही थी. माँ धुंधलके के डूबने की प्रतीक्षा कर रही थी. अँधेरा बढ़ा तो एक कांपती हुई लौ दिखी. श्याम मूरत और आला कभी-कभी टिमटिमाहट की तरह दिखने लगे. माँ ने अपनी हथेलियाँ आहिस्ता से हटा लीं. मूरत पर टिकी आँखें पढना चाहती थी कि क्या ये लौ जलती रहेगी. एक बार माँ ने पीछे देखा. रेहा चौक के झूले पर बैठी हुई माँ की तरफ ही देख रही थी. माँ फिर मूरत को निहारने लगी. माँ मौन में कुछ कह रही थी. या वह प्रतीक्षा में थी कि कोई जवाब आएगा. माँ रसोई से सब्जी की पतीली, रोटी रखने का कटोरदान, एक थाली, अचार का छोटा मर्तबान लेकर आई. रेहा झूले से उतरी और चटाई पर बैठ गयी. माँ मुस्कुराई. मगर इतनी कम कि ये न मुस्कुराने जैसा था. आले में दीया जल रहा था. मूरत ठहरी हुई थी. माँ ने ए

केसी, क्या हो तुम?

एक लम्हा आता है, आह सुबह के काम पूरे हुए। फिर? फिर सम्मोहन की डोर एक खास जगह खींच लेती है। खिड़की, मुंडेर, कुर्सी या कोई कोना एक बिस्तर का। कोई गली में सूनी झांक, कोई किताब का पन्ना या टीवी पर कहीं से भी कुछ देखना। मगर वह चुप लबों, ठहरी आँखों और खोये मन में ढल जाती। वह अतीत के उस सिरे तक जाती जहाँ वह पिछली फुरसत में थी। जब उसे रोज़मर्रा के कामों ने बुला लिया था। मालूम है? जीवन को पीछे की तरफ देखने पर वह दूर तक फैला हुआ दिखाई देता है। वह उसी अतीत को पढ़ते जाने को पूरा करना चाहती थी। जैसे कोई आखिरी सीढ़ी पर खड़ा हो कब से इस इंतज़ार में कि ज़िन्दगी का पाँव फिसल जाए। कहानियां उतना नहीं रुला पाती जितना ज़िन्दगी। मगर मैं लिखता हूँ। सोचता हूँ मन हल्का होगा, न हुआ तो कुछ कहानियां अगले बरस किताब आने जितनी हो जाएँगी। लोग पढ़ेंगे, उदास होंगे और कहेंगे केसी, क्या हो तुम?

दिल उदास तो नहीं मगर

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मैं दफ्तर की कुर्सी पर बैठा हुआ उकता गया था। मैंने कुछ काम किया, कुछ फोन देखा और फिर स्टूडियो से बाहर इस घने पेड़ की छाँव में चला आया। ये पेड़ जाल का है मगर बोगनवेलिया भी इसके साथ-साथ बढ़ा था। अब दोनों प्रेमपाश में इस तरह गुंथे है कि दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। अब गहरा हरा और गुलाबी रंग एक साथ मुस्कुराते हैं। दीवार के पास रेडियो कॉलोनी का रास्ता है वहीँ छोटी लड़कियों की चहचाहट सुनाई देने लगी। बारह बज रहे होंगे और स्कूल जा रही होंगी। एक ने शिकायत की- "तुम आई नहीं" दूसरी ने उसकी शिकायत को काटते हुए कहा- "मैं सबके लिए करती हूँ, मेरे लिए कोई कुछ नहीं करता" वे तीनों एक साथ चुप हो गयीं। शायद तीनों इस बात से सहमत थीं। मैंने किसी के लिए कुछ नहीं किया इसलिए असहमति में फोन खोजने लगा कि वह किस जेब में रखा है। सामने दफ्तर के लोग दिखाई दिए। इस साफ़ धूप में वे अच्छे दिख रहे थे। सोचा तस्वीर उतार लूँ। तस्वीर को देखा तो ख़याल आया कि इस रेगिस्तान में भी इंसान का जीवट कैसी हरियाली बना लेता है। वैसे बात ये थी कि आज धूप के साथ उमस भी है। दिल उदास तो नहीं मगर ऊब से भ

तुम पुकारना

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तुम जब मिले उस साल बारिशें बेढब हुई थी. तुम जब गए थे, सड़कों पर बिछा स्याह कोलतार पिघल गया था. उसके बाद दूर तक कोई आवाज़ नहीं आती थी. अलाव तापते हुए लोग कम्बलों में ढके हुए रहते थे. उन्हें देखकर लगता था दुनिया ने स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली थी. मौसमों का क्या है? वे हर रंग में आते हैं. मगर याद सिर्फ वे रहे जिनमें तुम्हारी कोई बात थी. मुझे कई बार लगता है कि मेरे हाथ में कोई एक कलम है. फिर मैं बेहिसाब मुस्कुराता हूँ कि वह कलम कोई काम नहीं आती. मैं सिर्फ प्रेम करना जानता हूँ. लिखना क्या चीज़ है ईश्वर जाने. हाँ जिस रोज़ तुम मेरी बाहों से गुज़रोगे. मैं ठीक-ठीक पढ़ लूँगा तुम्हे जैसे दीवारों पर लिखी हुई बारिशें पढता हूँ. तुम पुकारना- केसी. ये सुनकर मैं भले न रुकूँ मगर ठिठक ज़रूर जाता हूँ. तस्वीर सौजन्य : सुप्रतिम दास फ़ोटोग्राफ़ी