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Showing posts from February, 2016

मौसमों के बीच फासले थे - एक

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साफ़ रंग के चेहरे पर कुछ ठहरी हुई लकीरें थीं. इन लकीरों की बारीक परछाई में ताम्बई धागों की बुनावट सी जान पड़ती थी. वह मोढ़े पर बिना सहारा लिए घुटनों पर कोहनियाँ टिकाये बैठी हुई थी. चाय की मेज के पार भूरे रंग का सोफा था. वह उसी सोफे की तरफ चुप देख रही थी. कुछ देर ऐसे ही देखते रहने के बाद वह फुसफुसाई- “मैंने तुमको क्यों बुलाया था?” उसे कुछ याद आया. उसने मुड़कर पीछे देखा. वह उठकर रसोई की ओर चल पड़ी. उसने फ्रीज़ से दूध का बर्तन हाथ में लिया तो लगा कि गरम दिन आ गए हैं. बरतन को थामे हुए अँगुलियों में मीठा-ठंडा अहसास आया. उसके डिपार्टमेंट में लगे वाटर कूलर के नल को पकड़ने पर भी ऐसा ही अहसास हुआ करता था. उसने अक्सर नल को पकड़े हुए पानी पिया. वे गरम दिन थे जब नया सेमेस्टर शुरू हुआ ही था. ऐसे ही किसी दिन पानी पीने के वक़्त उसने कहा था- “तुम दूसरी लड़कियों की तरह पानी की बोतल साथ नहीं लाती हो?” नहीं वह थोड़ी देर उसे देखता रहा. वो देख रहा था कि उसने होठों के आस पास लगी पानी की बूंदों को पौंछा नहीं. कुछ बूंदें आहिस्ता से बह गयी थी, कुछ ठहरी हुई थी. ऐसे देखते हुए उसने पूछा- “शहर में रहत

वह क्यों नहीं?

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वह थके क़दमों से आहाते को पार करता हुआ कमरे में दाखिल हो गया. कमरे में अँधेरा था. खिड़कियाँ के पल्लों में भूरे-स्याह रंग के कांच लगे थे. वे थोड़ी सी आ सकने वाली रोशनी को भी कम कर रहे थे. वह यंत्रवत एक कोने की तरफ बढ़ गया. एक पुरानी मेज के कोने में दीवार से सटी हुई छोटी सी तस्वीर रखी थी. वह उसके सामने चुप खड़ा हो गया. उसने याद किया कि वे दिन कितने पीछे छूट गए हैं, जब वह यहाँ खड़ा होकर मौन में प्रार्थनाएं किया करता था. कुछ एक शब्दों की प्रार्थना में इतना भर होता. पापा वह क्यों नहीं? मन ही मन ऐसा कहने के बाद चुप खड़ा रहा करता था. क्या पीछे छूट गए दिन कुछ बातों को अपने साथ पीछे ही नहीं रख सकते थे? जैसे उसे पीले और लाल गुलाबों का गुलदस्ता पसंद था. वे सारे फूल वहीँ क्यों न छूट गए. मेरी ये प्रार्थना वहीँ क्यों न छूट गयी. वह चेहरा वहीँ क्यों न छूट गया. वह इसी तरह की कुछ बातें सोचता रहा. उसने आहिस्ता से एक पाँव आगे रखा और तस्वीर को अंगुली से छू लिया. बारीक गर्द अंगुली के पोर पर बिंदी की तरह ठहर गयी. अचानक किसी के गिरने की आवाज़ ने उसे डरा दिया. वह दौड़ा और आहाते में सीढियों के पास पहुंचा. जह

संतु महाराज की चिलम धू-धू

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उस छितरी हुई भीड़ में भी कोई न कोई टकरा जाता था. किताबों का मेला था और मौसम बेढब था. विशाल कमरों में बनी गुमटियाँ सरीखी दुकानें और कागज़ की ख़ुशबू दिलफ़रेब थी. मैं कुछ साल से वहां जाता हूँ. अक्सर वहां होना एक सुख होता है. ऐसा सुख जिसमें भरी-भरी जगह पर तन्हाई साथ चलती रहे. कोई तपाक से मिले, झट हाथ मिलाये, पट मुस्कुराए और ओझल हो जाये. कंधे पर सवार तन्हाई फिर से खाली मैदानों में कानों में बजने वाली सिटी बजाने लगे. मुझे किताबों से प्रेम है. प्रेम से अधिक ये सम्मोहन है. माने मन उनकी ओर भागता रहता है. अगर पागलपन रहे तो किताब दर किताब पढ़ते हुए मेरे दिन-रात गुम होते जाते हैं. जैसे इधर कई दिनों से हर मौके मैं किसी न किसी किताब के पहलू में जा बैठता रहा.  बालज़ाक को पढ़ते हुए अचानक कृष्ण बलदेव वैद को पढने लगता. चित्रा दिवाकरुणी के लिखे पन्ने पलटते हुए अचानक देखता कि मेरे हाथ में कैथरीन मेंसफील्ड के अक्षर भरे हुए हैं. इसी बेढब पढ़ाई में नज़र उन किताबों पर जाती जो इस बार मेला से मेरे साथ चली आई. मैं अक्सर किताबें नहीं पढ़ता, मैं लेखकों को पढ़ता हूँ. किताबें पढना ज्ञान अर्जन हो सकता है लेकिन लेखकों को