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एक रोज़ तुम्हें मालूम हो

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उस सूनी पड़ी सड़क पर कोलतार की स्याह चमक के सिवा कुछ था तो एक फासला था. उमस भरे मौसम में हरारत भरा मन दूर तक देखता था. देखना जैसे किसी अनमने मन का शिथिल पड़े होना. दफअतन एक संदेसा गिरा. जैसे कोई सूखी पत्ती हवा के साथ उडती सड़क के वीराने पर आ गिरी हों. सहसा कोई हल्की चाप हुई हो आँखों में. मन को छूकर कोई नज़र खो गयी हो. हवा फिर से दुलारती है सूखी पत्ती को. एक करवट और दो चार छोटे कदम भरती हुई पत्ती सड़क की किनार पर ठहर जाती है. ऐसे ही किसी रोज़ ठहर जाना. शाम गए छत पर बैठे हुए क़स्बे की डूबी-डूबी चौंध में उजाले में दिखने वाले पहाड़ उकेरता हूँ. चुप पड़ा प्याला. बारीक धूल से अटा लाइटर. और बदहवास बीती गर्मियों की छुट्टियों की याद. फोन के स्क्रीन पर अंगुलियाँ घुमाते हुए अचानक दायें हाथ की तर्जनी उस बटन को छूने से रुक जाती है. जिससे फोन का स्क्रीन चमक उठे. क्या होगा वहां? आखिर सब चीज़ें, रिश्ते, उम्मीदें एक दिन बेअसर हो जाती हैं. उनके छूने से कोई मचल नहीं होती. कब तक उन्हीं चंद लफ़्ज़ों में बनी नयी बातें. कब कोई ऐसी बात कि लरज़िश हो. मगर उसके लफ्ज़ पढता हूँ.  सोचता हूँ कि क्या बात उसे ब