मौसमों के बीच फासले थे - तीन

उन्हीं दिनों लड़की ने एक बार कहा- ना.
सर्द दिनों की दोपहर को कोट उतार कर बिस्तर पर लापरवाही से फेंक दिया. एक लम्बी दोपहर के स्वागत में दीवार घड़ी की ओर देखा. लड़की जिस किराये के घर में थी उसके आस-पास के ज्यादातर घर खाली पड़े थे. जब भी लड़की उन घरों के पास से गुजरती उसे लगता कि इन घरों से एक अजीब सी हूक उठती है. उसने माँ को कहा- “हाउसिंग बोर्ड के इन घरों में लोग रहते नहीं है. मैं मगर कुछ बुरा फील नहीं करती हूँ.” माँ ने शायद चिंता जताई होगी कि लड़की फोन पर कह रही थी- “माँ क्या फर्क पड़ता है? कोई क्या करेगा किसी का. कोई डाकू-लुटेरा आया तो कहूँगी भाई ये एक एटीएम है मेरे पास और इसका पिन ये है इससे चालीस हज़ार रूपया निकलेगा. जा निकाल लेना.” लड़की हंस रही थी.
सटाक-सटाक दिन गिरे. फटाक-फटाक उदासियाँ आई.
दफ़्तर के माहौल में वह लड़की एक जींस थी. सहकर्मियों ने चीज़े इस शक्ल में ढाल दी कि लड़की का अकेला होना एक अभिशाप की तरह पेश किया जाने लगा. उसके अकेले होने से जो ईर्ष्या थी, उसे अभिशाप के रूप में पेश किया जाने लगा. उपेक्षा को हथियार की तरह लगातार उपयोग में लिया गया. साल भर के फासले में उस रुआंसा लड़की को एक सहकर्मी ने कहा- “क्या मैं तुमको पसंद हूँ?”
वह पसंद नहीं था.
एक रोज़ वे दोनों शादी के मंडप में थे.
इसके बाद लड़की ने पाया कि वह सही थी. वह उसे पसंद नहीं था. जिस कमजोर पल में उसने लोगों को जवाब देने के लिए फैसला किया था, वही पल उसके लिए लाजवाब हो गया था. वह देखती थी कि जिसने कंधे पर हाथ रखा था, वह अब उसे जींस की तरह इस्तेमाल करना ही चाहता था. कुछ एक असहमतियों पर छिटपुट कार्रवाही और जवाबी कार्रवाही के बाद दफ़्तर में जो असुविधा थी उसने अपनी जगह बदल कर घर में डेरा जमा लिया.
जब धूप की चौंध में उसका चेहरा झिलमिला रहा था. जब वह अपने बीते ग्यारह बरस का फेरा दे रही थी. तभी उसके घर की डोरबेल बजी.
उसने दरवाज़ा खोला. सामने आदमी की शक्ल में वही लड़का खड़ा था जो कभी डिपार्टमेंट के सामने वाले बरामदे में दीखता था. जिसने कहा था- तुम पानी की बोतल साथ नहीं लाती? जिसको उसने कहा था मैं एंगेज हूँ और जा रही हूँ. जिस लड़के ने उसे जाने से पहले कुछ नहीं कहा था.
आओ 
कैसी हो?
मैं अच्छी हूँ मगर इस बात से खुश हूँ कि तुम आये. 
मैंने सोचा था कि न आऊँ मगर आ गया 
क्यों सोचा ऐसा?
इसलिए कि हम क्या बात करेंगे

ज़रा देर रुक कर आदमी बोला- असल बात ये है कि हम बात करके भी क्या कर सकेंगे?
लड़की हंसी- “अच्छा तो तुम अब बोलना सीख गए हो?”
बोलना तो तब भी आता था मगर लगता था तुमको खो दूंगा इसलिए चुप रहा 
माने 
माने कि तुम शायद लौट आओगी, मुझे लगा था

उस वक़्त की लड़की जो इस वक़्त एक औरत थी चुप से आगे बढ़ी. उसने कहा- आओ यहाँ बैठते हैं.
ड्राइंग रूम की दीवारों में आले बने थे. उनमें कुछ एक मिटटी के गुलदस्ते रखे थे. उनमें फूल नहीं थे. उन पर कोई चित्रकारी भी नहीं थी. एक फानूस खूब नीचे तक लटकाया हुआ था. आदमी जब इसे देख रहा था तब औरत ने कहा- मुझे इसकी रौशनी पसंद है. मैं अक्सर रात में इसके नीचे बैठती हूँ.
आदमी मुस्कुराने लगा.
“क्या मैं तुम कहूँ?” 
हाँ, यही कहो वर्ना बड़ी परेशानी होगी.

फिर एक हल्की हंसी. एक छोटी चुप्पी. एक सरल सा अंतराल. एक अनकहा अपनापन उगा.
औरत ने कहा- “तुम्हारा जीवन कैसे चल रहा है?”
मेरे एक बीवी है. हमारे कोई बच्चा नहीं है. और हम एक साथ हैं.
औरत ने सोचा कि वह आगे कैसे और किस तरह सवाल करे. ज़रा देर असमंजस में रहने के बाद उसने कहा- “मैं चाय लेकर आती हूँ.” वह उठते हुए रुकी और बोली- “तुम चाय पीते हो न?” आदमी मुस्कुराने लगा- “हाँ मैं कुछ भी पी लेता हूँ?”
औरत ने कहा- “ये कुछ ज्यादा नहीं हो गया?”
आदमी उसे देखता रहा. औरत ज़रा देर बाद रसोई की ओर चल दी. वह जब लौटी तो चाय के साथ खाने को भी कुछ लेकर आई.
आदमी ने कहा- “अपने बारे में कुछ बताओ”
औरत ने सोचा कहाँ से शुरू करूँ और कितना बताऊँ.
इस तरह ग्यारह साल बाद मिले को कोई कैसे कुछ और क्या बता सकता है? जीवन प्रवाह के बारे में बात करना आसान नहीं होता है. लोग जज करते हैं. लोग साथ देने का दिखावा करके एकल में उपहास करते हैं. लोग अवेलेबल समझने लगते हैं. लोग कुछ भी यानी कुछ भी कर सकते हैं.
मगर उसने कहा- “क्या तुम ये चाय मेरे साथ छत पर बैठ कर पीना चाहोगे?
आदमी चुप था.

औरत ने कहा- “छत पर एक कोना है, जहाँ मैं सच बोलती हूँ.”
वे दोनों ऊपर चले गए. वहां बहुत सारे गमले थे. हरियाली थी. उतनी हरियाली आदमी ने अपने रिश्तों में कभी नहीं देखी थी. एक वीराना था. एक दूर तक फैली हुई बंजर ज़मीं थी.
[इंतज़ार एक नया खिला फूल है जो बूढ़ा होने में वक़्त लगाता है]
Painting courtesy : kauber Carol