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Showing posts from March, 2016

एक स्थगित क्षण

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वो जो अनजाने दफअतन हमारे जीवन में घट जाता है. वह जिसके पहले कुछ सोचा न था. वह जिसके बाद का सोचना अभी बाकी हो. उसका मन गुंजलक था. वह दरवाज़ा खोलकर सीढियाँ नहीं उतरी. उसे इस बात का सब्र नहीं था कि मुख्य दरवाज़े के सामने बनी दुछ्ती से बाएं मुड़े और फिर रेलिया कि हेजिंग के पास से होती हुई चले. वह सदाबहार के फूलों के बराबर बने कच्चे रास्ते से जाये. उसे याद था कि रास्ता गीला है. पिछवाड़े में बने छोटे से कृत्रिम तालाब से बहकर पानी, काली मिट्टी के छोटे ढेर तक जा रहा था. वहीँ खरपतवार के बीच कुछ बैंगनी रंग के जंगली फूल उगे हुए थे. वह खिड़की से कूद गयी. चार हाथ ऊँची खिड़की में ग्रिल नहीं थी. बस दो पल्ले भर थे. पिछले कुछ दिनों से वह इस खिड़की में घंटो पालथी मार कर बैठी रहा करती थी. वह वहीँ से कूदी. बे आवाज़ चलते हुए छोटे तालाब तक आई और गीली मिट्टी से सने पैरों को पानी में डालकर बैठ गयी. मुड़कर देखे बिना आहटों की टोह लेती रही. क्या कोई इस तरफ आ रहा है. क्या आस-पास कोई आवाज़ है. क्या किसी ने देखा है? उसने धप से अपनी दोनों आँखें ढक लीं. एक लम्हा सामने खड़ा हुआ था. जैसे कोई मुकदमे का पहला

उन हथेलियों में कई सारे रास्ते हैं

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सुरिन ने जतिन को कहा कि मैं कुछ लेकर आती हूँ. वह तेज़ी से उठी और बिल काउंटर तक चली गयी. बिल काउंटर पर बैठे लड़के से सुरिन ने पूछा- “यहाँ फ्लेट वाइट के अलावा कोई दूसरा फ्लेवर है ?” काउन्टर के अंदर की तरफ खड़े लड़के ने अपनी पीठ की ओर संकेत किया. वहां एक लम्बी सूची थी. “कैफ़े लात्ते...” “तुम्हें कैसे मालूम?” “जाने दो. मैं तुम्हें एक बात याद दिलाता हूँ शायद तुम भूल गयी हो.” सुरिन अचरज से देखने लगी. उसने अपने होठों पर लम्बी मुस्कान रखी. वे दोनों जीवन की अबूझ बातें करते हुए थक गए थे. उनके पास यही रास्ता था कि वे कोई ख़ुशी की बात करें. अक्सर ख़ुशी को लालच देना होता है. जैसे आप बड़ी मछली को फांसने के लिए छोटी मछली को चारे की तरह कांटे में फंसाते हैं न वैसे ही बड़ी हंसी तक पहुँचने के लिए एक छोटी मुस्कान खुद बनानी पड़ती है. फिर ये छोटी मुस्कान बड़ी मुस्कान को खींच लाती है. इसलिए सुरिन ने अपने चेहरे पर एक लम्बी मुस्कान रखी. “हाँ बताओ वो बात जो शायद मैं भूल गयी हूँ” “वो बी ब्लॉक वाला शोपिंग काम्प्लेक्स याद है?” “जहाँ हम पहली बार मिले थे” “अच्छा तुम्हें तो खूब याद है सब. मैंने समझा तुम

जैसे नंगी पीठ पर फिसलता हो पंख

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उस खाली-खाली से पड़े रेस्तरां में क्रिकेट मैच देख रहे लड़के की अलग दुनिया थी. वहीँ पास ही बैठे हुए जतिन और सुरिन की दुनिया अलग थी. लड़का किसी एकांत से उपजे खालीपन में खेल भर रहा था. सुरिन इतनी ज्यादा भरी हुई थी कि कुछ खालीपन जुटाना चाहती थी. जतिन ने खालीपन और भरे होने के भावों को स्थगित कर रखा था. उसके ठीक सामने तीन साल बाद सुरिन थी और वह इन लम्हों को सलीके जीना और स्मृति में बचा लेना चाहता था. जब सुरिन उसके जीवन वृत्त से बाहर कदम रख चुकी थी तब जतिन ये याद करने की कोशिश करता था कि सुरिन के इस वृत्त में होने से क्या था और न होने से क्या नहीं है? “तुम” सुरिन ने कहा. “मैं क्या?” जतिन ने पूछा. “क्या सोच रहे हो?” “मैं सोच रहा हूँ कि हम जो कुछ करते हैं उसकी कोई पक्की वजह होती है.” “जैसे?” “जैसे हम मिलते थे. फिर हम सालों नहीं मिले. जैसे अभी एक दूजे के सामने बैठे हैं और शायद..." जतिन ने कांच के पार देखा. वो जो बादल चला गया था, उसकी स्मृति भर बची थी. सड़क धूप से भरी थी. दोपहर का रंग वैसा ही था. जैसा बादल के आने से पहले था. जतिन को इस तरह बाहर देखते हुए देखक

किसी ख़राब साधू का दिया हुआ शाप

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उस दिन जब वे दोनों एक नयी जगह पर बैठे हुए दूसरी बार कॉफ़ी पी रहे थे तभी सुरिन ने पूछा- “मैं जब भी बुलाऊं तब क्या तुम हर बार इस तरह कॉफ़ी पीने आ सकोगे?”  जतिन ने कहा- “हाँ अगर मैं कहीं नौकर न हो गया तो...”  “तो क्या अब जिस तरह हम मिलते हैं वैसे हमेशा मिलना नहीं होगा?” “नहीं होगा” “क्यों नहीं होगा?”  “इसलिए कि हमारे पास हमेशा मिलने की इच्छा से भरा ये आज का मन नहीं बचेगा”  सुरिन को उस दिन इस बात पर यकीन नहीं हुआ था. मगर आज वह सचमुच तीन साल बाद जतिन के साथ बैठकर कॉफ़ी पी रही थी. कैसे न? सबकुछ बदल जाता है. इस पल लगता है कि जीवन स्थिरता से भरा है. मन जो चाहता है वही हो रहा है. हम कल फिर से इसी तरह मिलने की अकाट्य आशा कर सकते हैं. और अचानक....  जतिन कुछ खाने को लेकर आया. इस बार वह चुनने को नहीं कह सकता था. उसने कहा- “फिर आगे क्या हुआ?” “हम मिले थे. कई-कई बार मिले. शादी का दिन बहुत दूर था. वह फोन करता था. आ जाओ कहीं घूमने चलते हैं. मैं जाने क्यों डरती ही न थी. किस तरह ये विश्वास मेरे भीतर आया कि वह मुझे ऐसी किसी जगह न ले जायेगा जहाँ कुछ गलत हो. वह सचमुच कभी न ले गया

कोई ऐसी जगह मालूम है?

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एक बार उसने सुरिन से कहा था- “हम कॉफ़ी पीने के लिए आते हैं या कोई और वजह है?” सवाल सुनकर सुरिन के बंद होठों पर हंसी ठहर गयी थी. सुरिन ने कहा- “पगले ये उबला हुआ पानी पीने कौन आता है? ये कॉफ़ी तो बहाना है. असल में तुम्हारे साथ बैठने में मजा आता है. मैं बहुत सी बातें भूल जाती हूँ. जब तक हम साथ होते हैं मन जाने क्यों सब सवालों को एक तरफ रख देता है.”  ये सुनकर जतिन ने पीठ से कुर्सी की टेक ले ली थी. उसे ऐसे देखकर सुरिन मुस्कुराई थी. जतिन ने पूछा- “अब किस बात की मुस्कान है?” सुरिन ने टेबल पर रखे सेल फोन को गोल घुमाते हुए कहा- “कभी बताउंगी तुमको” जतिन टेक छोड़कर सीधा हो गया- “अभी बताओ” सुरिन फिर से मुस्कुराई. जतिन ने फिर से कहा- “प्लीज अभी बताओ” सुरिन ने उसे कुछ न बताया- “तुम अभी ये समझने के लायक ही नहीं हो”  जतिन ने उसकी अँगुलियों के बीच गोल घूम रहे फोन को उठा लिया. “अब ये नहीं मिलेगा. जब तक नहीं बताओगी, मैं दूंगा ही नहीं.”  “है क्या तुमको... गधे कहीं के” सुरिन ने लगभग झल्लाते हुए उसके पास से फोन छीन लेना चाहा. जतिन ने कुछ देर हाथ पीछे किये रखे मगर उसे लगा कि सुरिन लगभग रोने जै

चीज़ें बदल चुकी होती हैं

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सुरिन टेबल की तरफ नज़र किये चुप बैठी थी. जतिन उठकर कुछ लेने गया. सुरिन ने जब नज़र उठाई जतिन उसके सामने बैठा था. जतिन ने दोनों प्यालों की ओर देखते हुए सुरिन से पूछा- “बोलो कौनसा?” सुरिन ने दोनों प्यालों को नहीं देखा. वह जतिन की आँखों में देखते हुए हलके से मुस्कुराई. जतिन ने कहा- “चुन लो, फिर कहोगी तुम्हारे कारण पीना पड़ा.” “दोनों में क्या है?” “कॉफ़ी” “इसमें कौनसी” “फ्लेट वाइट” “और इसमें” “फ्लेट वाइट” अचानक से सुरिन की आँखों से मुस्कराहट खो गयी- “क्या तुम कभी थोड़े से बड़े हो जाओगे? मुझे तुम्हारी कुछ चीज़ें जो अच्छी लगती थी, अब उनका न बदलना अच्छा नहीं लगता.” जतिन ने पूछा- “त्तुम्हारा हाथ छू लूँ?” सुरिन की आँखें से खोई मुस्कान से बनी खाली जगह को भरने के लिए दो बूंदें चली आई. “मुझे मालूम है. मेरे हाँ कहने पर तुम कहोगे कि छूना थोड़े ही था, पूछना था” गरम रुत थी. हवा बुहारने के काम पर लगी थी. बड़े शीशे के पार कुछ एक कागज़ के टुकड़े उड़ते जा रहे थे. कबूतरों ने आकाश के सूनेपन को बिखेरने के लिए फिर से एक फेरा दिया. वे लयबद्ध कलाबाज़ी खाते हुए खिड़कियों, छज्जों,

सुरिन तुम्हें याद है, वहां एक नन्हा गुलमोहर था - एक

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तुम कब से बैठी हो?  चालीस मिनट से.  सब मेज खाली पड़ी हुई थी. बिना खिड़की वाली इकलौती साबुत दीवार के बीच टंगे टीवी पर क्रिकेट मैच का प्रसारण था. उसे देखने वाला कोई नहीं था. दुनिया के किसी कोने में खिलाड़ी अपने खेल में मग्न थे. एक उड़ती निग़ाह उस तरफ डाल लेने के बाद जतिन ने सामने की कुर्सी को थोड़ा पीछे खींचा. मेज पर कोहनियाँ टिका कर बैठ गया.  चालीस मिनट?  "हाँ" कहते हुए सुरिन ने जतिन की आँखों में देखा. आँखों में झाँक से नीचे उतरते हुए सुरिन ने देखा कि जतिन की आँखों के नीचे हलकी स्याही थी. स्याही के नीचे गालों पर कुछ बेहद छोटी लाल फुंसियाँ निकली हुई थी. बाल लम्बे थे और कलमें बेतरतीब थी.  वह उसे देख रही थी तभी उसका ध्यान टूटा. जतिन कह रहा था- तुम्हारे ब्रेसलेट के सुरमई पत्थर अच्छे हैं. तुम्हें सलेटी रंग पसंद है न ? हाँ मगर हल्का.  काउंटर पर एक लड़का बैठा हुआ था. बाकी कोई दिख नहीं रहा था. प्रीपेड था सबकुछ. वे वहां आराम से बैठ सकते थे. जब तक कि बहुत से लोग न आ जाएँ और मेजें खाली न बचें. काउंटर वाला लड़का क्रिकेट मैच से अनजान ऊँचे स्टूल पर दीवार का सहारा लिए बैठ

सामने खड़ी पीछे छूटी हुई चीज़ें

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तुम दो बरस का मतलब जानते हो? कल की दोपहर मुझसे यही पूछती रही. रेगिस्तान की हवा खिड़कियों के रास्ते धूल लिए चली आ रही थी. हवा की आवाज़ में सिहरन थी मगर मन इस सांय-सांय से बेखबर अपने दूजे ख़यालों में डूबा रहा. एक सूखा पत्ता सोने के कमरे में पलंग के पांवों तक चला आया. साफ़ आँगन में बारीक धूल की परत पर पड़ा हुआ सूखा पत्ता. जब मौसम शबाब पर होता है तब दीवारों के पार तक आता है. पतझड़ भी आँगन, बरामदे के रास्ते होता हुआ कहाँ तक न पहुंचा. एक बार मन हुआ कि इस पत्ते को उठा लूँ. लेकिन फिर टूटी हुई चीज़ों को सहेजने की तकलीफ के दिन याद आये. मैंने जो हाथ उस पते की तरफ बढाया न था, उस हाथ को वापस खींच लिया. पल, घडी, दिन, रात और बरस. तुम देख रहे थे. तुम पढ़ रहे थे. तुम समझ रहे थे. क्यों फिर इस तरह आँख मूंदे रहे. क्यों तुमने चुना कि आँखों में धोखे का सम्मोहन भरो और बने रहो. एक धुंधलाती हुई शाम है. एक सुल्फी है. माने चिलम है. एक तम्बाकू की पोटली है. जले हुए तम्बाकू की गंध से भरा पैरहन है. एक ऊंट है. और एक वीराना है. उसने पूछा- "ये कैसी गंध है?" मैं अपने बाजू को उठाता हुआ सूँघता हूँ. व

वहां जाने और भी क्या रखा हो

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मैं जाने क्या खोज रही थी. मुझे याद नहीं था लेकिन मेरी अंगुलियाँ अतीत की राख से भरी थीं. खिड़की के परदे खुले हुए थे. हवा खिड़की के रास्ते आती और दरवाज़े से होती हुई बरामदे की ओर गुम हो रही थी. खिड़की के पास दीवार में बनी छोटी अलमारी के दोनों पल्ले उढ़के हुए थे. एक कोने के नीचे की तरफ नीली स्याही का धब्बा बना हुआ था. उस दिन की याद आई जब दवात से स्याही भरते समय अंगुलियाँ सन गयीं थीं. पेन में स्याही इसलिए भरी थी कि लग रहा था, आज बहुत कुछ है लिखने के लिए. लिखने से ही अच्छा लगेगा. हाँ, तो वो एक जगह लिखकर रखा था न. कहाँ, जाने कहाँ रखा उसे. मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ इस तरह भूल जाती हूँ. मैंने अगर लिखा था तो उसे इस तरह रखने की क्या ज़रूरत थी. कौन मुझसे कहता कि तुमने ऐसा क्यों लिखा है. अगर कोई कह भी देता तो क्या फर्क पड़ता. प्यार और सम्बन्ध जैसी चीज़ें वास्तव में है थोड़े ही. ये सिर्फ गिनाने भर को बचा है. हम ये हैं. हम तुम्हारे वो हैं. अगर ऐसे तुम इतने कुछ मेरे हो तो पढोगे वो पन्ना, जो मैंने एक अजाने को याद करते हुए लिखा. फिर शांत होकर किसी उत्साह में पूछोगे कि और बताओ उसके बारे में. मै

मौसमों के बीच फासले थे - अंतिम

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“घर चाहे जितना छोटा हो असल में बहुत बड़ा होता है. घर के किसी कोने, दरवाज़े के सामने, खिड़की के पास, छत पर कभी ठीक बीच में, कभी मुंडेरों के आस पास. मन कोई जगह चुन लेता है. हम उसी जगह पर जाकर बैठना, खड़े होना पसंद करते हैं. फिर कभी वह जगह छूट जाती है. एक रोज़ जब फिर से उसी जगह पर जाते हैं तो पाते हैं कि समय वहीँ ठहरा हुआ है. हम उस जगह को इस तरह देखते हैं जैसे अपनी अनुपस्थिति के ब्योरे दे रहे हों.” आदमी की आँखों में झांकते हुए औरत कह रही थी. “असल में हमारे जीवन के उतने हिस्से हैं, जितनी हमारी पसंद की जगहें हैं. तुम याद करना उस जगह को और फिर वहीँ बैठकर देखना. ऐसा लगेगा कि हम जो कुछ यहाँ छोड़ गए थे, वह फिर से शुरू हो रहा है.” आदमी ने कहा- “शायद ऐसा होता होगा” “तम्हें कोई जगह याद है?”   “हाँ” हामी भरने के बाद आदमी ने सोचा कि वह कितना बताये. कहाँ से शुरू करे? आदमी ने औरत की ओर देखा. उसके कंधे पर धूप की एक फांक पड़ी थी. ये फांक शायद कंधे से होती हुई कमर के नीचे तक जा रही होगी. वह उठकर देख लेना चाहता था. वह उठा नहीं. उसने एक बार अपने सर को दायें घुमाया. जितनी दूर देख सकता था, उतनी द

मौसमों के बीच फासले थे - पांच

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आदमी ने कहा- “छत पर कोई कोना है जहाँ तुम सच बोलती हो” औरत चुपचाप आदमी की तरफ देखती रही. आदमी ने अगला सवाल किया.- “क्या तुम उसी जगह बैठी हो”  आसमान पर छाये हुए बादल छितराने लगे. हलकी सी धूप आई. जितनी धूप आई, उससे ज्यादा हवा चली. झूले पर बैठी औरत ने अपने हाथ बाँध लिए. उसके चेहरे की शान्ति में थोड़ी सी उदासी घुलने लगी. गमलों से उठती गंध, छत की मुंडेर से टकराती हवा, पड़ोस के छत पर टहलते अजनबी जोड़े, गली से गुजरने वालों की आवाज़ों के वृन्द में चुप्पी साफ़ सुनी जा सकती थी.  “हम कभी सच नहीं बोलते” औरत की आवाज़ में भारीपन था. “हमारी आत्मा सच बोलती है, दिल उसे बरगलाता है और दिमाग आखिरकार मूर्ख निकलता है.”  “सुनो, मैं तुम्हें अपने बारे में बताती हूँ.” औरत झूले पर ठीक से बैठी. आदमी उसकी ओर देखता रहा.  “मेरा एक सपना था कि अपना घर होगा. बहुत छोटा सा घर. उस घर में मैं रहूंगी. उसमें एक कोना रसोई बनाने को होगा, एक पढने को और एक आराम करने को. इन तीन कोनों के सिवा मुझे चौथा कोना जो चाहिए था, वह पूरी तरह खाली चाहिए था. खाली कोने मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. मुझे लगता था कि जब मैं अपने घर के उस

मौसमों के बीच फासले थे - चार

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छत पर रखे गमलों के पास एक झूला था. या झूले के आस-पास बहुत से गमले रखे थे. वह आदमी इस औरत से मिलने आया था या इस औरत ने मिलने की चाहना की थी. जिस तरह झूला और गमले थे. उनको अलग देखने पर दोनों के बीच कोई रिश्ता नज़र नहीं आता था. साथ रखने पर ये समझ नहीं आता कि कौन किसके लिए हैं. झूला गमलों के लिए या गमले झूले के लिए. या ये महज एक संयोग है. या किसी रिक्त स्थान की आवश्यक पूर्ति भर. जब वे सीढियां चढ़कर छत की ओर आ रहे थे तब आदमी ने देखा कि औरत ने हलके हरे रंग का कुरता पहना था. उस पर न...ीले रंग के छोटे फूल खिले थे. नीली जींस चप्पलों को चूम रही थी. औरत के पीछे सीढियाँ चढ़ते हुए उसने देखा कि पीठ जहाँ से खुली थी, वहीँ बाएं कंधे पर बैठा हुआ तिल भी उचक-उचक कर सीढियाँ चढ़े जा रहा था. औरत ने एक बार मुड़कर देखा था कि वह ठीक से आ रहा है या नहीं. आदमी ने उसके क्षणभर के देखने को अपने देखने से आश्वस्त किया कि वह आ रहा है. औरत के हाथ में चाय की ट्रे थी. आदमी के हाथ में कुछ न था. “आओ बैठते हैं” ऐसा कहकर औरत खड़ी रही. उसने आदमी के बैठ जाने की प्रतीक्षा की. आदमी ने उसके कहे को सुनते हुए कुछ पल देखा और फि

सिरे के उस तरफ

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क्यों किया था ऐसा? तुमने कहाँ गलती की थी केसी. तुम किस तरह नाकाफी हो गए. अपना सबकुछ सौंप देने के बाद भी लगातार महीने दर महीने तुम्हारी झोली में क्या गिरता रहा. तुम एक ज़हीन आदमी न सही मगर इतना तो समझते ही थे कि अब तक जो भोगा है, उसकी पुनरावृति कैसे रुक सकती है. यही फिर से लौट-लौट कर न आना होता तो पहली बार ही ऐसा न होता. तुम जिस यकीन को मोहोब्बत की बिना पर लिए बैठे रहे उसी पर लगातार चोट होती रही. अपनेपन में आने वाली उदासियों की ठोकरों पर, तुमने झांक-झांक कर देखा, तुमने बार-बार पाया कि यही सब हो रहा है. तुमने खुद को किसी और के लिए धोखे दिए. तुम उसके आहत न होने की कामना में खुद को सताते रहे. तुम क्या चीज़ हो केसी. तुम्हें खुद से नफरत नहीं होती क्या?  एक एक सांस रुक रुक कर आती है. दफ्तर के सूनेपन में एक जाने पहचाने दुःख पर आंसू बहाने में असमर्थ, सीने में दर्द की तीखी चुभन लिए हुए. रो सकने से लाचार. ऐसे क्यों बैठे हुए हो. तुम जानते तो हो ही. तुम्हें मालूम तो सब है है. फिर भी. आओ आंसुओं  घने पतझड़ की झर की तरह  लू के बोसों की तपिश की तरह.  रुखसारों पर  बढई के रणदे क

मौसमों के बीच फासले थे - तीन

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उन्हीं दिनों लड़की ने एक बार कहा- ना. सर्द दिनों की दोपहर को कोट उतार कर बिस्तर पर लापरवाही से फेंक दिया. एक लम्बी दोपहर के स्वागत में दीवार घड़ी की ओर देखा. लड़की जिस किराये के घर में थी उसके आस-पास के ज्यादातर घर खाली पड़े थे. जब भी लड़की उन घरों के पास से गुजरती उसे लगता कि इन घरों से एक अजीब सी हूक उठती है. उसने माँ को कहा- “हाउसिंग बोर्ड के इन घरों में लोग रहते नहीं है. मैं मगर कुछ बुरा फील नहीं करती हूँ.” माँ ने शायद चिंता जताई होगी कि लड़की फोन पर कह रही थी- “माँ क्या फर्क पड़ता है? कोई क्या करेगा किसी का. कोई डाकू-लुटेरा आया तो कहूँगी भाई ये एक एटीएम है मेरे पास और इसका पिन ये है इससे चालीस हज़ार रूपया निकलेगा. जा निकाल लेना.” लड़की हंस रही थी. सटाक-सटाक दिन गिरे. फटाक-फटाक उदासियाँ आई. दफ़्तर के माहौल में वह लड़की एक जींस थी. सहकर्मियों ने चीज़े इस शक्ल में ढाल दी कि लड़की का अकेला होना एक अभिशाप की तरह पेश किया जाने लगा. उसके अकेले होने से जो ईर्ष्या थी, उसे अभिशाप के रूप में पेश किया जाने लगा. उपेक्षा को हथियार की तरह लगातार उपयोग में लिया गया. साल भर के फासले में उस रुआंसा लड़क

मौसमों के बीच फासले थे - दो

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वो लड़का जो सामने के डिपार्टमेंट में था, उस घटना के बाद कुछ न बोला. उसका जीवन प्रेक्टिकल फाइल्स बनाने, फूलों को पहचानने, उनका डिसेक्शन करने, स्लाइड्स बनाने में बीतता रहा. नौकरी लगने की उसे कोई आशा नहीं थी. वह इससे परेशान भी नहीं था. उसे नहीं मालूम था कि जीवन से उसे क्या चाहिए. उसे एक लड़की मिली. वह लड़की एक बार नहीं कई बार उसे देखकर मुस्कुराई. फिर उसके फोन आने लगे. अच्छा लगता था. कई बार अच्छे से ज्यादा अच्छा लगता था. लड़की उसे हर संभव और असंभव अवसर पर फोन करती थी. भरी दोपहर या आधी रात हो, फोन करने के लिए कोई बाधा न थी. मैं तुमसे प्यार करती हूँ. लड़का सर से पाँव तक सिहर उठता. उत्तेजना की लहरें उसे विचलित करने लगती. फोन रखने के घंटों बाद तक वह उसी असर में डूबा रहता. उसे फोन का इंतज़ार रहने लगा. उसने कई बार लड़की से कहा कि वह कोई नियत समय बताये कि कब फोन करेगी. इस तरह लगातार इंतज़ार में जीना कठिन है. उसके भीतर ऐसी चाहना मचलने लगती है कि दौड़कर लड़की के पास पहुँच जाये. लड़की शायद मुस्कुराती थी. शरारत भरी मुस्कान. एक दिन सिक्का उलट गया. जो लड़की उसके लिए जितने एफर्ट लेती थी, उससे अधिक लड़के