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Showing posts from October, 2015

तुम जो मिलोगे इस बार तो

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उदासी के झोंके ने  गिरा दिया शाख से पत्ता  ज़िंदगी को इतना भी यूनिक क्यों होना चाहिए कि जीया हुआ लम्हा बस एक ही बार के लिए हो. कुछ क्लोन होने चाहिए कि हम उसी लम्हे को फिर से जी सकें. एक याद का मौसम जब भी छू ले, उसी पल कोई दरवाज़ा बना लें. दरवाज़े के पीछे एक छुअन हो. एक लरज़िश हो. एक धड़क हो. इस तरह याद जब उदासी और नया इंतज़ार घोले, उससे पहले हम उसी लम्हे को फिर से बुला लें.  जिस तरह गिरते हुए पत्ते ख़ुद को धरती को सौंप देते हैं, उसी तरह कभी हम ख़ुद को प्रेम को सौंप दें. प्रेम लुहार की तरह हमें लाल आंच में तपाकर बना देगा कोमल. किसी बुनकर की तरह बुन देगा एकसार. किसी राजमिस्त्री की तरह चुन देगा भव्य.  वह जो दरवाज़े के पीछे अँगुलियों के रास्ते बदन में उतर आई लरज़िश थी. वह उसी एक पल के लिए न थी. उसका काम बस उतना सा ही न था.  तुम जो मिलोगे इस बार तो पूछेंगे ये हवा क्या है, उदासी कैसी है और तन्हाई कब तक है? 

तेरे बाद की रह जाणा

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मौसम ऐसा है कि कमरे अंदर ठंडे और बाहर गरम। प्लास्टिक के सफ़ेद छोटे कप चाय से भरे हुए। नया हारमोनियम।। जमील बाजा के बारे में कुछ और बताते हुए गुनगुनाना शुरू करते हैं। तेरे बाद की रह जाणा... मैं कहता हूँ गाते जाइए। जमील मुस्कुराते हुए स्वरपटल पर अंगुलियां रखे हुए अपनी आँखें मेरी आँखों में उलझा देते हैं। मैं डूबता जाता हूँ। सचमुच तुम्हारे बाद जीवन में क्या बचा रह जायेगा। उदासी, तन्हाई और बेकसी। आकाशवाणी के विजिटर रूम में ढोलक की हलकी थाप से सजी संगत और सिंधी-पंजाबी के मिले जुले मिसरों का मुखड़ा, गहरी टीस से भरता रहता है।  जमील अपने कुर्ते के कॉलर ठीक कर एक लम्बे सूती अजरक प्रिंट के अंगोछे को गले में डाल कर बिना सहारा लिए आँगन पर बैठे हैं। ग़फ़ूर सोफे पर बैठे हैं। मैं अधलेटा सोफे का सहारा लिए सामने खिड़की की ग्रिल पर पाँव रखे हुए। मैं कहता हूँ ये हारमोनियम कितने का आया? ग़फ़ूर कहते हैं कल ही अट्ठारह हज़ार में लिया। मैंने पूछा कलकत्ता का है? बोले- नहीं! पंजाब की बॉडी है और सुर... मैं कहीं खो गया कि ये न सुन पाया सुर कहाँ के हैं। मेरा मन उकस रहा था कि कहूँ कोई बिछोड़ा सुना दो। ऐसा विरह गीत की