स्थायी दुःख से कैसलिंग


काश बहुत से हैं जैसे गिरहें जब पैर में उलझी तब गिर पड़ने की सीख को पहले उठाया होता और ख़ुद बाद में उठता. आज ढलती हुई शाम में रेल पटरी पर बने पुल से गुज़रते हुए सोच रहा था कि पुल के उपर से देखने पर नीचे का दृश्य ज्यादा समझ आता है. इसी तरह जीवन बिसात को देखा समझा होता. बीते दिनों के किसी अफ़सोस की दस्तक के साथ फिर एक काश आता है. काश उन दिनों कुछ सोचा जा सकता परिस्थिति से थोडा ऊपर उठकर.

एक गिर पड़ने का ख़याल और एक ज़रा उपर से गिरहों को देखने की समझ. थोडा सा फासला कितना कुछ बदल देता है. सुख के भेष में दुखों को आमंत्रण पत्र लिखते समय सोचा होता कि रेगिस्तान के तनहा पेड़ सूखे के स्वागत में कुछ ज्यादा रूखे और ज्यादा कंटीले हो जाते हैं तो हमने ख़ुद के लिए क्या तैयारी की है?

मगर कुछ नहीं होता. 
बेख़याली में समय की ढलान पर फिसलते हुए दिन रात, बरस के बरस लील लेते हैं. इस छीजत में उदास काले धब्बे, अनामंत्रित खरोंचें, अनगढ़ सूरत बची रह जाती है. दुःख आता है कि बीते वक़्त रिश्तों, सम्मोहनों और कामनाओं के प्रवाह में किनारा देखा होता. खो देने के भय में लुढकते खोखले ढोल से बाहर आ गए होते. सोचा होता जिस तरह पुराने दुःख बुझी हुई भट्टी की तरह ठन्डे पड़ गए हैं आगामी दुःख भी अस्त हो जायेंगे. एक ख़ामोशी की दीवार चुनी होती. एक पत्थर का पर्दा बनाया होता. एक बार खुद से कहा होता, नहीं. कहा होता जाने दो. कहा होता कि जाने देना ही सुख है.

शतरंज के खेल में राजा और हाथी के बीच, जगह की अदला-बदली वाली कैसलिंग की सुविधा की तरह काश एक पुराना दुःख नए दुखों के सामने खड़ा कर दिया होता. काश एक स्थायी दुःख के मोल को समझा जा सकता. काश किसी स्थायी दुःख से कैसलिंग कर ली होती.

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