ओ मुसाफिर ! ये बस पीले और टूटे पत्ते भर हैं

हसरतों के पत्ते पीले होकर गिरते रहते हैं। मुसाफ़िर रफ़ू की हुई झोली में सकेरता जाता है। सफ़ेद फूलों वाला कम उम्र दरख़्त कहता है- मेरे कोरे पीले और टूटे पत्ते ही तुम्हारे हिस्से में आते हैं। तुम ऊब नहीं जाते। क्या तुमको थकान नहीं होती।

मुसाफ़िर मुस्कुराता है।

जाना तुम्हारी छाँव के साथ प्रेम बरसता है। ज़िन्दगी की तल्खी में नरमाई उतरती है। इसमें डूबे हुए कभी लगता नहीं कि पीले पत्ते सकेर रहा हूँ। लगता है, तुम थोड़ा-थोड़ा मेरे हिस्से में आ रहे हो।

शाम गुज़र गयी। कोई तन्हाई आई। कोई खालीपन उतरा। कोई आवाज़ दूर हुई। इसे भरने के लिए यादों का कारवां चला आया। उड़ता-गरजता और सब तरफ से घेरता हुआ। कोई याद का चश्मा नुमाया हुआ। हल्के छींटे बरस-बरस कर बिखरते गए। भीगा लिबास ज़िन्दगी का। याद होने की, जीने की, रूमान की।

जाना, कहो तो। हम जैसे हैं क्या हम पहले से बने हुए थे या हम ख़ुद बने। बोलो, कुछ उसी तरह जैसे भरी-भरी आँखें जवां दोपहर को कह रही थी- ये सुख है। आत्मा खुश है। दुनिया से कह दो- आगे जाता हुआ पहिया ज़रा देर रोक लो।

दूसरी ओर आमीन, आमीन।