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Showing posts from 2015

कितनी तहें हैं, और रंग कितने हैं

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दिसम्बर का महीना आरम्भ हो गया है. हल्की ठंड है मगर सर्द दिन ही हैं. सुबह धूप में बैठे हुए मुझे पुलिस दरोगा ओचुमेलोव की याद आई. और उसके साथ एक ग्रे हाउंड किस्म का मरियल कुत्ता और सुनार खुकिन याद आया. चेखव की कहानी 'गिरगिट' हमें बचपन में पढ़ाई गयी थी. शिक्षा विभाग ने सोचा होगा कि ऐसी कहानियां पढ़कर बच्चे सीख लेंगे. लेकिन बच्चों ने इस कहानी को पढ़ते और समझते हुए क्या सीखा मुझे नहीं मालूम मगर मैंने जो सीखा वह साफ़ सुथरा था.  एक- मनुष्य के स्वभाव एवं व्यवहार की जानकारी लेना दो- कथा की विषयवस्तु को अपने अनुभवों से जोड़ना तीन- नवीन शब्दों के अर्थ जानना और अपने शब्द भंडार में वृद्धि करना चार- नैतिक मूल्यों में वृद्धि करना इनके सिवा जो कुछ और बातें कहानी के बारे में बनायीं जा सकती थीं, वे छात्र को आधा अतिरिक्त अंक दिलवा सकती थी. इसमें आगे हमारे अध्यापक कहते थे कि इस तरह की कहानियां पढने से कथा कौशल में वृद्धि होती है.  कहानी आपने पढ़ी होंगी. इस कहानी में एक कुत्ता व्यक्ति की अंगुली काट लेता है. कुत्ते की पकड़ के हंगामे के दौरान सख्त औ

तलवे चाटते लोगों की स्मृति में

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एक पत्थर की मूरत थी, उस पर पानी गिरता था. एक सूखा दरख्त था उसे सुबह की ओस चूमती थी. एक कंटीली बाड़ थी मगर नमी से भीगी हुई. असल में हम जिसे सजीव देह समझते हैं, वे सब मायावी है. वे छल हैं. वे जागते धोखे हैं. वे असल की शक्ल में भ्रम हैं. उनके फरेब प्रेम की शक्ल हैं मगर असल में पत्थर और पानी के मेल जैसे सम्मोहक किन्तु अनछुए हैं. वे साथ हैं मगर दूर हैं.  अचानक याद आया कि बीते दिनों मैं ज़िन्दा था. अचानक याद आया कि कोई जैनी थे, तो अचानक याद आया कि बौद्ध भी तो थे. उन्हीं बौद्धों के महामना बुद्ध की बातों की स्मृति से भरी कुछ बेवजह की बातें.  महाभिनिष्क्रमण साधारण मनुष्यों के लिए नहीं है। वृद्ध, रोगी, मृतक और परिव्राजक को देखना और समझना छः वर्षों की कठिन तपस्या के बाद मार-विजय प्राप्त कर अज्ञान के अंधकार से बाहर चल देना। ये केवल बुद्ध का काम हो सकता है। बाकी दलाल मन उम्र भर दलाली ही कर सकता है। उसकी आत्मा को इसी कार्य में सुख है। यही उसकी गति है, यही उसका निर्वाण। [सम्यक सम्बुद्ध : मतिहीन प्रबुद्ध - 1] * * * विचित्र संयोग ही था कि बुद्ध का जन्म, बोधि-प्राप्ति और निर्वाण

बड़ी तकलीफ़ की छोटी कहानियां

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रात आहिस्ता सरकती रहे मगर मन और दिमाग ठहरे रहें, एक ही बात कि तुम कब तक अपने आपको सताओगे. कब तक पागलपन के झूले पर सवार रहोगे. कोई दिन आएगा? जब ज़रा सा खुद का फेवर करोगे, बिना किसी को सताए हुए. मन को कुछ समझ नहीं आता. वह बस इसी एक बात पर सहमत होता है कि फिलहाल चुप रहो कि तुम समझ चुके हो चीज़ें सरल नहीं है. इसलिए प्लीज एक बार अपना फेवर करो कि तुम वह कर चुके हो जो किसी चीज़ को टूटने से बचाने के लिए तुम्हारे लिए ज़रूरी था. वह आवाज़ तुम दे चुके हो, जिसे देना तुम्हारी ज़रूरत थी. अब तुम खुद को हर बात के लिए माफ़ कर दो. यही सब सोचते हुए कुछ एक सच्ची और तकलीफ़ भरी बातें लिखीं. आप इन्हें सच समझें या कहानी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. इससे फर्क पड़ता है कि अपने आस पास के धोखों को जल्दी पहचानना सीखना. ताकि आप गहरे दुःख से तब बाहर आ सको जब आने का अवसर हो न कि तब जब आपकी ज़रूरत हो.  * * *  हमारे घर में चार कमरे हैं और वहां हम दो लोग रहते हैं. मुझे बहुत डर लगता है. * * *  जब उसने मुझे ये बात बताई कि मैं जिससे प्रेम करती हूँ वह किसी और के साथ घूम रहा है, तब मैंने उसे झिड़क दिया था. मैंने इससे बड़ी भूल

तुम जो मिलोगे इस बार तो

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उदासी के झोंके ने  गिरा दिया शाख से पत्ता  ज़िंदगी को इतना भी यूनिक क्यों होना चाहिए कि जीया हुआ लम्हा बस एक ही बार के लिए हो. कुछ क्लोन होने चाहिए कि हम उसी लम्हे को फिर से जी सकें. एक याद का मौसम जब भी छू ले, उसी पल कोई दरवाज़ा बना लें. दरवाज़े के पीछे एक छुअन हो. एक लरज़िश हो. एक धड़क हो. इस तरह याद जब उदासी और नया इंतज़ार घोले, उससे पहले हम उसी लम्हे को फिर से बुला लें.  जिस तरह गिरते हुए पत्ते ख़ुद को धरती को सौंप देते हैं, उसी तरह कभी हम ख़ुद को प्रेम को सौंप दें. प्रेम लुहार की तरह हमें लाल आंच में तपाकर बना देगा कोमल. किसी बुनकर की तरह बुन देगा एकसार. किसी राजमिस्त्री की तरह चुन देगा भव्य.  वह जो दरवाज़े के पीछे अँगुलियों के रास्ते बदन में उतर आई लरज़िश थी. वह उसी एक पल के लिए न थी. उसका काम बस उतना सा ही न था.  तुम जो मिलोगे इस बार तो पूछेंगे ये हवा क्या है, उदासी कैसी है और तन्हाई कब तक है? 

तेरे बाद की रह जाणा

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मौसम ऐसा है कि कमरे अंदर ठंडे और बाहर गरम। प्लास्टिक के सफ़ेद छोटे कप चाय से भरे हुए। नया हारमोनियम।। जमील बाजा के बारे में कुछ और बताते हुए गुनगुनाना शुरू करते हैं। तेरे बाद की रह जाणा... मैं कहता हूँ गाते जाइए। जमील मुस्कुराते हुए स्वरपटल पर अंगुलियां रखे हुए अपनी आँखें मेरी आँखों में उलझा देते हैं। मैं डूबता जाता हूँ। सचमुच तुम्हारे बाद जीवन में क्या बचा रह जायेगा। उदासी, तन्हाई और बेकसी। आकाशवाणी के विजिटर रूम में ढोलक की हलकी थाप से सजी संगत और सिंधी-पंजाबी के मिले जुले मिसरों का मुखड़ा, गहरी टीस से भरता रहता है।  जमील अपने कुर्ते के कॉलर ठीक कर एक लम्बे सूती अजरक प्रिंट के अंगोछे को गले में डाल कर बिना सहारा लिए आँगन पर बैठे हैं। ग़फ़ूर सोफे पर बैठे हैं। मैं अधलेटा सोफे का सहारा लिए सामने खिड़की की ग्रिल पर पाँव रखे हुए। मैं कहता हूँ ये हारमोनियम कितने का आया? ग़फ़ूर कहते हैं कल ही अट्ठारह हज़ार में लिया। मैंने पूछा कलकत्ता का है? बोले- नहीं! पंजाब की बॉडी है और सुर... मैं कहीं खो गया कि ये न सुन पाया सुर कहाँ के हैं। मेरा मन उकस रहा था कि कहूँ कोई बिछोड़ा सुना दो। ऐसा विरह गीत की

ढब सब उलटे पड़े हो जहां

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इंतज़ार की कोई मियाद नहीं होती. तपते हुए दिन और रेगिस्तान पर कुछ एक हरे टप्पे से दीखते खेत पीले पड़ते जा रहे थे. कोई राह में मिलता तो कहता इस बार जमाना ख़राब. फसलें कहीं कहीं दिख रही हैं बाकि सब जगह सुनसान. वो सप्ताह भर जो पानी बरसा था जाने किस काम लगा. भीगे दिन भीगी रातें और धूप का इंतज़ार. कुछ एक दिन बाद बरसातें इस तरह गुम हुई कि गोया रेगिस्तान सदियों से सूखा ही था. कल शाम अचानक से हवा चली और ज़रा देर बाद शहर को भिगो गयी. एक बारिश सब कुछ बदल देती है. रात अँधेरी, छपरे पर गिरती पानी की बूंदों की आवाज़. कुछ एक मुरझाई हुई ककड़ी कि फांकें. उनका फीका स्वाद. और एक पुरानी व्हिस्की से भरा प्याला. कितना तो इंतज़ार था और कैसे अचानक खत्म हो गया. उसकी इतनी ही उम्र थी. रात भर बिजली गुल. हवा बंद. आसमान से छींटे. पलंग पर से भारी गद्दों को उठाकर बाहर बालकनी में डालकर लेटे हुए, भूले भटके आते हवा के झोंकों को शुक्रिया कहते हुए रात बीत गयी.  असल नींद उस वक़्त आई जो शैतानों के सोने का समय होता है.  स्मार्ट फोन में बेटरी के सिवा हर बात में स्मार्टनेस है. वह तुरंत दुनियावी षड्यंत्रों, जालसाजियों, धोखो

स्थायी दुःख से कैसलिंग

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काश बहुत से हैं जैसे गिरहें जब पैर में उलझी तब गिर पड़ने की सीख को पहले उठाया होता और ख़ुद बाद में उठता. आज ढलती हुई शाम में रेल पटरी पर बने पुल से गुज़रते हुए सोच रहा था कि पुल के उपर से देखने पर नीचे का दृश्य ज्यादा समझ आता है. इसी तरह जीवन बिसात को देखा समझा होता. बीते दिनों के किसी अफ़सोस की दस्तक के साथ फिर एक काश आता है. काश उन दिनों कुछ सोचा जा सकता परिस्थिति से थोडा ऊपर उठकर. एक गिर पड़ने का ख़याल और एक ज़रा उपर से गिरहों को देखने की समझ. थोडा सा फासला कितना कुछ बदल देता है. सुख के भेष में दुखों को आमंत्रण पत्र लिखते समय सोचा होता कि रेगिस्तान के तनहा पेड़ सूखे के स्वागत में कुछ ज्यादा रूखे और ज्यादा कंटीले हो जाते हैं तो हमने ख़ुद के लिए क्या तैयारी की है? मगर कुछ नहीं होता.  बेख़याली में समय की ढलान पर फिसलते हुए दिन रात, बरस के बरस लील लेते हैं. इस छीजत में उदास काले धब्बे, अनामंत्रित खरोंचें, अनगढ़ सूरत बची रह जाती है. दुःख आता है कि बीते वक़्त रिश्तों, सम्मोहनों और कामनाओं के प्रवाह में किनारा देखा होता. खो देने के भय में लुढकते खोखले ढोल से बाहर आ गए होते. सोचा होता ज

नासमझी के टूटे धागों में

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कुछ काम अरसे से बाकी पड़े रहते हैं. उनके होने की सूरत नहीं बनती. कई बार अनमने कदम रुकते हैं और फिर किसी दूजी राह मुड़ जाते हैं. फिर अचानक किसी दिन पल भर में सबकुछ इस तरह सध जाता है कि विश्वास नहीं होता. क्या ये कोई नियति है. घटित-अघटित, इच्छित-फलित भी किसी तरह कहीं बंधे है? क्या जीवन के अंत और उसके प्रवाह के बारे में कुछ तय है? मैं अक्सर पेश चीज़ों और हादसों और खुशियों के बारे में सोचने लगता हूँ. अब क्यों? अचानक किसलिए? और वह क्या था जो अब तक बीतता रहा. मुझे इन सवालों के जवाब नहीं सूझते. एक चींटी या मकड़ी की कहानी कई बार सुनी. बार-बार सुनी. निरंतर असफल होने के बाद नौवीं या कोई इसी तरह की गिनती के पायदान पर सफलता मिली. मैं यहाँ आकर फिर से उलझ जाता हूँ. कि पहले के जो प्रयास असफल रहे वे असफल क्यों थे और एक प्रयास क्यों सफल हुआ. हम कब तक जी रहे हैं और हम कब न होंगे. आदेश श्रीवास्तव. अलविदा. गीता का संदेश इसी नासमझी का सन्देश है कि कर्म किये जा और फल की इच्छा मत कर.  _____________________ हाथों में आ गया जो कल रुमाल आपका मेरा पेशा ही इतना मीठा है कि कभी खुद पर रश्क़ होने लगता ह

सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना- 2

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मेरे पास दो रास्ते नहीं है. मेरे पास दो मन नहीं है. मेरे पास दो कुछ नहीं है. मैं रूई का फाहा हूँ. जब तक डाल से बंधा हूँ, डाल का हूँ. जब हवा से मिलूँगा तो उसका हो जाऊँगा. मैं पहले कहाँ था, मैं अब कहाँ हूँ और मैं कल कहाँ होऊंगा, इसकी स्मृति और भविष्य कुछ नहीं है. मैं जब शाख पर खिल रहा था, प्रेम में था. मैं जब हवा से मिला प्रेम में रहा. मैं जब धूल में मिलूँगा तब प्रेम में होऊंगा. मेरा उदय और मेरा अस्त होना एक ही क्रिया की भिन्न अवस्थाएं हैं.  मैं सुनता हूँ तुम्हारी आवाज़ में एक कोमल धुन. जो इस तरह कोमल है कि फरेब भरी जान पड़ती है. पत्थरों पर पानी तभी तक पड़ा रहता है जब तक धूप का संसर्ग न हो. तुम्हारी भाषा भी कुछ विषयों पर बदल जाती है. मगर मैं जो था वह हूँ, शायद वही रहूँ. कुछ रोज़ से फिर अपनी पढ़ाई के दिन याद आ रहे थे. कुछ रोज़ से एक छूटी हुई पोस्ट याद आ रही थी. आज सुनो आगे की बात....  ______________________ कितने-कितनों को संदेशे भेजे कितनों के मन की शाखों पर अपने सुख का झूला, झूला. कितनों की बुद्धि पर झूठे नेह की कलमें रोपी. सुनो जाना, आवाज़ों का रेला आता कर्म-मल गहराता जात

कहाँ है तुम्हारी प्रेमिका

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लिखना सबसे चिपकू व्यसन है. एक अक्षर मांडो तो पीछे एक कतार चली आती है. एक बार शुरू होने के बाद दिन-रात उसी में रम आते हैं. इसलिए अक्सर शब्दों को छिटक कर रेगिस्तान पर तने आसमान को चुप निहारने लगता हूँ. छत से रेलवे ओवर ब्रिज दीखता है उस पर गुजरते हुए दुपहिया-चौपहिया वाहन मेरी गुमशुदगी पर दस्तक की छेड़ करते हैं. मैं पल भर को आकाश के विस्तृत वितान के सम्मोहन से बाहर आता हूँ और फिर उसी में लौट जाता हूँ. लिखना बस इतना था कि मुझे नीला रंग प्रिय है. *** आँख भर नीला रंग।  तुम्हारे कन्धों पर ठहरा हुआ। *** वो जो हम समझे थे  असल में बात उतनी ही नहीं थी। *** छत, खिड़कियां, दीवार,  अलगनी और नीम अँधेरा  जैसे सब आ बैठें हों किसी ख़ामोशी की क्लास में। *** अल्पविरामों से भरी एक ठहरी हुई ज़िन्दगी।  मगर गुज़रती हुई। *** याद भीगी छत से टपकता है एक ख़याल।  ज़िन्दगी एक करवट चुप देखती है। शायद देखती है। *** जितने रंग थे, उन रंगों से अनेक रंग खिलते गए. जितनी आवाजें थी, उन आवाज़ों में अनेक आवाजें झरती रहीं. जितने मौसम थे, उन मौसमों में अनेक मौसम साथ चलते रहे. हमने ज्याद

सुपना ऐ सुन

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मिथ्या स्वप्न से वास्तविक जाग। कल रात की नींद में मैं एक स्वप्न जी रहा था। दफ़्तर की एक महफ़िल में लतीफ़ा सुनाते हुए मुझे किसी आड़ से एक कुलीग दिखाई दी। उन्हें देखते ही बोध हुआ कि लतीफ़े की प्रकृति इस अवसर के अनुकूल नहीं है। उनको अपनी तरफ देखते हुए देखकर कंपकपी हुई। ये झुरझुरी हवा की ठण्ड के कारण थी। मैं छत पर चारपाई पर बिना कुछ ओढ़े सो गया था। हवा की ठंडक ने मेरा स्वप्न तोड़ दिया। मैं कमरे में गया। तकिया और चादर लेकर फिर से लेट गया। स्वप्न में अनुचित होने का बोध ये संकेत करता है कि वह एक मिथ्या स्थिति नहीं है। स्वप्न हमारी जागृत अवस्था की तरह सीखे गए अनुचित को अपने साथ लिए हुए था। अवचेतन या अर्धचेतन स्थिति में वह कौन है जो सावचेत करता है। डराता है। रोकता है। अगर वह स्वप्न भर है। मन का उलझ हुआ विकार या प्रकृति भर है तो वहां इन सब की उपस्थिति क्यों है? यही सोचते हुए मुझे नींद आ गयी कि सम्भव है स्वप्न एक वास्तविक जीवन है। उसका टूटना ही असल स्वप्न में लौट आना है। जो मिथ्या है वह सत्य है। जो कल्पना है वह सोच के भीतर और दृश्य से दूर एक और सत्य है। संभव है स्वप्न सत्य और जीवन मृत्यु

जून के सात दिन-रात

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कई बार हमें लगता है कि किसी एक चीज़ के कारण हमारे सब काम रुके पड़े हैं. कई बार उस चीज़ के न होने से मालूम होता है कि ऐसा नहीं था. क्या इसी तरह हमें ये समझना सोचना नहीं चाहिए कि जो कारण हमें सामने दिख रहे हैं वे इकलौते कारण नहीं है.  इसलिए सोचिये, योजना बनाइये और धैर्य पूर्वक काम करते जाइए.  ये कुछ रोज़ की डायरी है. तारीख़ें मुझे याद दिलाएगी कि ये दिन कैसे बीते थे.  June 8 at 11:41pm · आवाज़ का दरिया सूख जाता है उड़ जाती है छुअन की ज़मीन। मगर शैतान नहीं मरता, और न बुझती है शैतान की प्रेमिका की शक्ल। June 9 at 12:09am · शैतान के घर में होता है  शैतान की प्रेमिका का कमरा।  जहाँ कहीं ऐसा नहीं होता वहां असल में प्रेम ही नहीं होता। * * *  सुबह से आसमान में बादल हैं।  बिना बरसे ही बादलों की छाँव भर से लगता है कि ज़मीं भीगी-भीगी है। किसी का होना भर कितना अच्छा होता है। * * * June 10 at 1:03pm · अतीत एक साया  इसलिए भी नहीं होना चाहिए  कि जितना आपने खुद को खर्च किया है,  वह कभी साये की तरह अचानक गुम हो जाये। * * * ओ प्रिये एक दिन सब ठिकाने लग जाते हैं,  हमारे दिन भी लगेंग

कॉलर पर टँगा सफ़ेद ईयरफोन

फोन में लगे होने की जगह ईयरफोन का 3.5एमएम का जैक उसके मुंह में था। और नज़रें कहीं दूर क्षितिज में अटकी हुई थी। हालाँकि उसे मालूम था कि जीवन का अप्रत्याशित होना अच्छा है। *** उसे उन दोनों के सस्ते और अमौलिक ड्रामों के बारे में कुछ मालूम न था। उसे ये जानना न था कि वे दो और उनकी मण्डली मिलकर कैसा रूठने-मनाने, जीने और मर जाने का सजीव प्रसंग खेलते हैं। उन दो के बीच निष्पादित रसों का स्थायी भाव प्रेम, मित्रता या मसखरी या कुछ और था ये जानना भी उसकी रूचि न था। मगर अचानक कभी-कभी उसका जी चाहता कि अपने फोन की प्ले लिस्ट को सर्फ करे। अपने गले के पास कॉलर से लटके ईयरफोन को छुए। *** हाँ ठीक है। अच्छा। ओके। कब। ओह। ऐसा क्यों। हूँ। हाँ-हाँ। इसी तरह की बातें करते हुए उसकी अंगुलियां ईयरफोन के सफ़ेद लंबे तार से खेल रही थी। आखिर में उसने कहा- हाँ लव यू टू। फोन कटने के ज़रा देर बाद उसने देखा कि ईयरफोन के तार में अनगिनत गांठे पड़ चुकी थी। मौसम में गरमी बहुत ज्यादा थी और तन्हाई पहले जितनी लौट आई। *** एक रोज़ बच्चे ने पूछा- क्या थोड़ी देर के लिए आपका ईयरफोन मिल सकता है। उसने थोड़ी देर

ओ मुसाफिर ! ये बस पीले और टूटे पत्ते भर हैं

हसरतों के पत्ते पीले होकर गिरते रहते हैं। मुसाफ़िर रफ़ू की हुई झोली में सकेरता जाता है। सफ़ेद फूलों वाला कम उम्र दरख़्त कहता है- मेरे कोरे पीले और टूटे पत्ते ही तुम्हारे हिस्से में आते हैं। तुम ऊब नहीं जाते। क्या तुमको थकान नहीं होती। मुसाफ़िर मुस्कुराता है। जाना तुम्हारी छाँव के साथ प्रेम बरसता है। ज़िन्दगी की तल्खी में नरमाई उतरती है। इसमें डूबे हुए कभी लगता नहीं कि पीले पत्ते सकेर रहा हूँ। लगता है, तुम थोड़ा-थोड़ा मेरे हिस्से में आ रहे हो। शाम गुज़र गयी। कोई तन्हाई आई। कोई खालीपन उतरा। कोई आवाज़ दूर हुई। इसे भरने के लिए यादों का कारवां चला आया। उड़ता-गरजता और सब तरफ से घेरता हुआ। कोई याद का चश्मा नुमाया हुआ। हल्के छींटे बरस-बरस कर बिखरते गए। भीगा लिबास ज़िन्दगी का। याद होने की, जीने की, रूमान की। जाना, कहो तो। हम जैसे हैं क्या हम पहले से बने हुए थे या हम ख़ुद बने। बोलो, कुछ उसी तरह जैसे भरी-भरी आँखें जवां दोपहर को कह रही थी- ये सुख है। आत्मा खुश है। दुनिया से कह दो- आगे जाता हुआ पहिया ज़रा देर रोक लो। दूसरी ओर आमीन, आमीन। 

न ऊब न प्रतीक्षा

शब्द अपने अर्थ के साथ सम्मुख रखे हुए किस काम के, जब तक वे स्वयं उद् घाटित होकर भीतर प्रवेश करने को आमंत्रित न करते हों। April 29 जाना, आग के फूल न बरसते, बारिशों के फाहे गिरते तो रेगिस्तान क्या रेगिस्तान होता। उदास ही सही, ज़िन्दगी सुन्दर चीज़ है। क्या तुम्हारे पास कोई ऐसी कहानी है। ज़िंदा शहतूत के तने में नुकीले दांतों वाले मकोड़ों ने घर बना लिया हो। लाल चींटियों ने चाक कर दिए हों पत्ते। बकरियां दो पंजों पर खड़ी होकर जितना चर सकती थीं चर गयी हों। बच्चों ने टहनियों की लचक की सीमा से आगे जाकर तोड़ दिया हो। पेड़ के मालिक ने काले-लाल और कच्चे हरे शहतूत, कुछ तोड़ लिए कुछ मसल दिए। और वो जो शहतूत का कीड़ा होता है उसकी भी कोई बात शामिल हो। April 28 तुम एक पिरोये हुए फूल हो। दिल बेवकूफ़, अपने ठिकाने पड़े रहो। अतीत की जाली छनकर गिरने नहीं देती, फटकती रहती है भविष्य की ओर उछाल-उछाल कर। अचानक किसी दोपहर हम खुद को पाएं खाली पड़े हुए पुराने प्याले की तरह। नमी, नाज़ुकी, ज़िन्दगी जैसा कुछ न बचा हो। बस हम पड़े हों बिना हरकत, बिना जान के। तो.... अभी-अभी एक सूखा पत्ता गली से दौड़ता हुआ गुज़रा

तुम मेरी फेवरेट ड्रग हो।

गर्मियां अचानक आई। एक पल में बदल गया सब कुछ। रूह पर जैसे कोई आंच का लिबास उतरा। रात-दिन छोटे बड़े हिस्से चुराते हुए कभी कोई लम्बा अंतराल कुंडली मारने लगता। मन उदासी की गति में, तन शिथिलता की ओर। फिर अल्पविरामों के प्रेम में पूर्ण विराम के भय से सिहरे हुए भारी-उखड़ी सांसों के मध्य लव स्माइली और छोटी-छोटी पुकारें बिखर जाती हैं। दुनिया की गिरहों से परे, दुनिया से किसी चाहना के बिना, बस एक बार रेत की पीठ के तीखे कटाव के पास प्रेम लिख देने और फिर मिटाकर चले जाने की सोच में खोयी हुई नाकारा, बेढब, बेसलीका ज़िन्दगी। सिर्फ बेदिली और इंतज़ार जिसका हासिल है। ये कुछ एक बातें कभी किसी दोपहर या रात को छत पर लेटे तारों को देखते हुए कह दी। उस तक पहुंचे भी तो क्या वह समझ सके? कमसिन अल्हड़पन कई बार उम्र का मोहताज़ कहाँ होता है। कब सादगी समझती है पेचीदगी को। कल दिन को लू चूमती रही। आओ मेरे केसी तुम्हारी बाँहों और गरदन पर लिख दूं ताम्बई रंग। लिख दो जाना जो लिखना चाहो। एक ज़िन्दगी है जो थोड़ी सी बाकी है... जैसे शाम ठिठकी हो बुझने से पहले रात आग़ाज़ को झुकी जाती हो। तुम उधर इंतज़ार में, मैं इधर बेक़रारी मे