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Showing posts from September, 2014

फेसबुक ; क्व गच्छति

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कल रात मैंने एक स्टेट्स लिखा था कि वे दिन कितने अच्छे थे जब हम फेसबुक पर दोस्ती के लिए अनगिनत फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा करते थे. अब हम ऐसा नहीं करते हैं. मैंने देखा है कि लोग जल्दी जल्दी अपने एकाउंट को डीएक्टिवेट करते हैं. जल्दी जल्दी लौट कर आते हैं. चैट में लोग्ड-इन नहीं रहते. अजनबी प्रोफाइल को इस तरह देखते हैं जैसे किसी लिफाफे में एंथ्रेक्स के जीवाणु न आये हों. वे लगभग हर बात का उद्धेश्य सोचने लगते हैं. मई दो हज़ार नौ में जब मैंने फेसबुक पर अपना एकाउंट बनाया था उन दिनों ये बड़ा खुला-खुला नया हरा मैदान था. जैसे दुनिया को नया अछूत चारागाह मिल गया हो. यहाँ लोग अटखेलियाँ करते हुए प्रसन्न रहते थे. यहाँ आकर बहुत सारे दोस्त जीवन की वास्तविक थकान को भूल कर ताज़ा हो जाते थे. अपनी पसंद के गीत, शेर-शायरी, विद्वानों की उक्तियाँ, फ़िल्मी गानों के लिंक और कविता-कहानियां की बातें अपने पूरे शबाब पर होती थीं. ऐसा लगता था मानो फेसबुक पर न आकर किसी भव्य रोमन थियेटर जैसी शानदार जगह पर आ गए हैं. उन शुरूआती सालों में अभियक्ति ही असल खुशी थी. बाद के इन सालों तक आते आते निजता बचे रहना असल खुशी हो गया है.

चुप्पी की एक गिरह

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जब मैंने अपनी नयी कहानी के पहले ड्राफ्ट को पूरा किया तो खूब अच्छा लगा. मैंने खिड़की के पास कबूतर की आवाज़ सुनी. मैं आँख बंद किये उसे फिर से सुनने की प्रतीक्षा करने लगा. कबूतर के दोबारा गुटर गूं करने से पहले मैंने एक चिड़िया की आवाज़ सुनी. उसके साथ कई चिडियों की आवाज़ सुनी. थोड़ी देर में मुझे गली में बोलते हुए बच्चे सुनाई दिए. फिर लोहे की छड़ों की आवाज़ सुनाई दी. इसे बाद लुहार की हथोड़ी सुनाई दी. फिर किसी बस ने होर्न दिया. और कोई स्कूटर गुज़रा. मैंने अपनी आँखें खोली और सोचा कि ये आवाजें अब तक कहाँ थी? पिछले कई महीनों से इनको किसने चुरा रखा था. मैं इनको क्यों नहीं सुन पाता था. ऐसा सोचते हुए मैंने अपनी आँखें फिर से बंद की और पाया कि चिड़ियों का स्वर सराउंड सिस्टम से भी बेहतर सुनाई दे रहा है. चारों तरफ हलकी चहचहाहट. अहा जीवन. क्या हम जीना भूल जाते हैं? इसी प्रश्न की अंगुली थाम कर मैं ज्यादा नहीं थोड़ा सा पीछे गया. कोई दस एक दिन पीछे. अपने लिखने में झांकने गया. खुद को लिखना सुखकारी होता है इसलिए मैं इस डायरी में अपने कच्चे पक्के अनुभव लिखता रहता हूँ. कई बार इस लिखने में विराम आता है तो जांचता

उनींदे रहस्य

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शहर के बीच वाले कस्टम के पुराने दफ़्तर के आगे सड़क पर ट्रेफिक की उलटी दिशा में चलते हुए मैंने और संजय ने अचानक हाथ छोड़ दिए. एक ट्रक ने सीधे चलते हुए नब्बे डिग्री पर मोड़ लिया. मैं बायीं तरफ रह गया और संजय दायीं तरफ. मुझे लगा कि संजय सुरक्षित उस तरफ हो गया होगा. ट्रक सीधा कस्टम ऑफिस की दीवार से टकराया और रुक गया. उसके ड्राइवर का कोई पता न था. एक तहमद बाँधा हुआ आदमी, ट्रक के केबिन के ऊपर से तिरपाल उतारने लगा. वह उदास कम और उदासीन ज्यादा लग रहा था. उसने किसी प्रकार का दुःख या क्षोभ धारण नहीं किया था. संजय बिलकुल ठीक मुझसे आ मिला और हमने बिना किसी संवाद के उस ट्रक की ओर देखा. दुर्घटना कुछ इस तरह घटित हुई जैसे ये होना पूर्व निर्धारित था. उसी सड़क पर चलते हुए मैं अपने साथ किसी बारदाने को सड़क पर खींचता रहा. उसमें क्या सामान था, जो मुझे खींचने के लिए प्रेरित कर रहा था, ये मुझे समझ नहीं आया. कमल रेडियो के आगे से उसे खींचना शुरू किया था. किसान बोर्डिंग की बिल्डिंग जहाँ से शुरू होती है, वहां सड़क के बीच एक प्याऊ थी. वहीँ तक उसे खींचा. वह प्याऊ अपने गौरवशाली अतीत के साथ पुण्य के घमंड में सीधे

मैं रुकती रही हर बार...

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रास्ते की धूल या धूल के रास्ते पर तुम्हारी अंगुलियों के बीच अटकी एक उम्मीद कितनी उम्र पाएगी ? तुम्हारी शर्ट के इक कोने मे दाग की उम्र ना हो उस लम्हे की...... ज़बान पर जीती रहे स्वाद उन होठों का धूल की बारिशों में समेट ली है कमीज की बाहें मैंने छत पर सूखे बाल खोले...... अभी अभी कोई होंठ भिगो गया उसने कहा कि रुको कहीं बैठ जाते हैं मैंने कहा ज़रा दूर और कि काश वो थक जाए और उसे उठा सकूँ अपनी बाहों में धूल से भरे रास्ते में ये सबसे अच्छा होता। मैं रुकती रही हर बार.... हर बार उसका हाथ छू गया ..... मैं दूर हट कर संभलती रही..... वो पास आता मचलता रहा. एक साया है ज़िंदगी. थामा नहीं जाता मगर साथ चले. संजोया न जा सके किन्तु खोए भी नहीं. जैसे दीवार से आती कोई खुशबू, सड़क के भीतर सुनाई पड़ती है कोई धड़क, आसमान में अचानक कोई मचल दिखाई देती हो. ऐसे ही सब कुछ सत्य से परे इसलिए है कि हमारा जाना हुआ सत्य बहुत अल्प है. ऐसे ही बचे हुए शब्द उतने ही हैं जितने हमें बरते थे.   [Painting Image Courtesy : Jim Oberst]

न मिला जाँ के सिवा यार ए वफ़ादार

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एक तीखे नाक और लम्बे चेहरे वाला हाथ में कलम लिए बैठा हुआ लंबी काठी का आदमी सोच में गुम है. उसके ख़यालों में जाने क्या बहता है, कौन जाने. मैं बस उसकी सूरत को देखता हूँ. इसी किताब को पिछले कई सालों से अपने आस पास पाया है. हम सोचते हैं और थके हुए से लेट जाते हैं. क्या करना है पढकर. क्या पढ़ा हुआ साथ चलेगा. ये उपन्यास है बाबर. बाबर जो एक शायर दिल इंसान था और उसने इल्म और अदब के लिए खूब काम किया था. लेकिन जो सिला मिलेगा उसके बारे में क्या वह खुद ये जानता रहा होगा कि यही होना है. मेहरबान तुझपे न अपना है न बेगाना खुश नहीं कोई भी वह गैर हो या जानाना नेकियाँ लाख की लोगों से कि कायल हो जाएँ फिर भी बदनाम हुआ बन गया मैं अफ़साना. अफ़साना होना बुरा है क्या? हकीक़त होना अच्छा है क्या? जो बचेगा उसे कौन देखेगा? नेकी या बदी की गूँज से कहाँ कि रोशनियाँ जल उठेंगी या बुझ जायेगी. इसी दुनिया की मिटटी में कहीं गुम हुआ आदमी किस तरह इस असर से दो चार होगा कि उसकी बदी सताने लगी हैं या उसकी नेकी के कारण आलीशान झंडे फहराते हुए उसे ठंडी दिलकश हवा दे रहे हैं? ख़यालों के सिलसिले से एक तवील सन्नाटा जाग

मानवता का इकलौता धागा

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हमारे भीतर दो अनिवार्य तत्व होते हैं. एक है हमें सौंपे गए सजीव शरीर को बचाए रखना और दूजा है निरंतर इसका उपयोग करते जाना. इसके उपयोग के लिए हमारे भीतर एक तलाश होती है. वह तलाश हमें नयी चीज़ों के प्रति जिज्ञासु, उत्सुक और लालची बनाती है. ये एक नैसर्गिक गुण है. इस तलाश की उपस्थिति मात्र से हम सबका अलग अलग होना भी नैसर्गिक है. कई बच्चे बड़े जिज्ञासु होते हैं, उनकी इस प्रवृति के कारण अक्सर वे हमें तोड़ फोड़ करने वाले, बिखेरा करने वाले और असभ्यता फ़ैलाने वाले लगने लगते हैं. लेकिन ये सहज है. जीव किसी कारखाने का उत्पाद नहीं है. वह अपनी विशिष्ट खूबियों और जीने के अलहदा अंदाज को साथ लेकर आया है. इसलिए वह लाख सांचों में ढाले जाने के बावजूद अपनी रंगत नहीं छोड़ता है. बच्चे सामने अगर चुप बैठे हैं तो ज़रा ध्यान हटते ही अपना प्रिय काम करेंगे. उनको उसी पल सुकून आएगा. उनकी पसंद का काम होने से वे राहत में होंगे. बस इसी तरह हम जीते रहते हैं. ऐसे ही किसी बच्चे की तरह किताबों से मेरा याराना नहीं है. वे मुझे खूब बोर करती हैं. मैं उनके आस पास होता हूँ जैसे आप किसी नाव में सवार हों मगर बेमन. जैसे हवा में उड़ रहे

लू-गंध

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स्कूल के पास बैठे हुए जुआरी जब ताश के पत्तों की शक्ल और रंगों से ऊब जाते हैं तब द्वारका राम को छेड़ते हैं. वह इसी लायक है. बनिए के घर पैदा हुआ मगर व्यापार छोड़कर किसानी करने लगा था. इस पर बहुत सारी गालियाँ भी हैं. ऐसी गालियाँ जिन्हें भद्र लोग देते हों. जैसे कि इसके बाप का पड़ोसी कौन था. खद-खद हंसी से भरी गालियाँ. सीरी ताश के पत्ते छोड़कर उठे तब तक द्वारका वहीँ जुआरियों के पास बैठा रहता है. क्या करेगा खेत में जाकर. वही गरम उमस भरी हवा और दूर तक बियाबान. काम सबके हिस्से एक ही काम साल के आठ महीने दिनों को काटो. कभी कभी जलसे होते हैं तब द्वारका को सुनकर हर कोई मंत्र मुग्ध रहता है. तालियाँ बजती हैं. बाकी गाँव की पंचायत या किसी बात पर उसके साथ कोई नहीं चलता. पिछली बार दयाराम पंडित जी ने फैसला सुनाया कि जो कोई धर्म को मानता है उसको द्वारका से बात नहीं करनी चाहिए. जो बनिया होकर बनिया नहीं हुआ वह किसान होकर किसान क्या होगा. द्वारका मगर जब भी खड़ा होता है लोग उसे कान लगाये सुनते रहते हैं. उसकी सब बातें लगभग यही होती हैं और यहीं से शुरू होती हैं. "उन्होने कहा कि देखो मर गया वह विचा

ठन्डे गलियारों में कमसिन लड़कियां

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बेशक हम बहुत सारे वे काम नहीं कर पाते हैं जो हमारी फेहरिस्त में साफ़ दिखाई देते रहते हैं. क्यों? मैं इसी बात को सोचता हूँ. क्या बात है जो रोकती है और क्या बात है जो इसे किये जाने को ज़रुरी समझती है. अगर हमने वे काम नहीं किये तो क्या उनको दीवारों की तरह मौसमों के सितम सहते हुए बदरंग होकर हमारी फेहरिस्त में धुंधला पड़ जाना चाहिए. या पत्तों की तरह पीले पड़कर हमारी फेहरिस्त से झड़ ही न जाना चाहिए. वे काम मगर बने रहते हैं. जैसे कार्बन अपनी उम्र के इतने साल जी चुका होता है कि स्याह होने के कुदरती गुण की जगह हीरा बन कर चमकने लगता है. हम किस निषेध और किस लालच अथवा लाभ अथवा सुख के बीच की रस्साकशी में उलझे रहते हैं. इसी उलझन में कल की शाम आहिस्ता उतर रही थी. कहानियां हमारे अंदर अपना भूगोल उतारती है. मैं जो कुछ लगातार पढ़ रहा हूँ वहीँ की सब प्रोपर्टी मेरे आस पास आभासी रूप में उपस्थित थी. यानी थार के इस असीम रेगिस्तान के एक कोने में बैठे हुए मुझे बसंत के बाद के ठन्डे देश याद आ रहे थे. लग रहा था कि अब कोट समेट कर हाथ में लेकर चलने की शामें जा चुकी हैं. दो दिन से रेगिस्तान के अलग अलग हिस्सो

अतीत की उबड़-खाबड़ सतह पर

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क भी हम एक खाली लम्हे के हाथ लग जाएँ तो गिर पड़ते हैं समय के भंवर में. उसी भंवर में भीगते डूबते चले जाते हैं. लेकिन जब कभी भर उठते हैं गहरी याद से तब हम असहाय, अतीत की उबड़-खाबड़ सतह पर अनवरत फिसलते हैं. मैं जब कभी खाली लम्हों के हाथ लगता हूँ तो दौड़ कर किताबों में छुप जाता हूँ. किताबों के आले में बहुत सारी किताबें जिनके आवरण सफ़ेद रंग के हैं, वे बड़ी सौम्य दिखती हैं. मैं उनको सिर्फ निगाहों से छूता हूँ. मुझे किताबों का गन्दा होना अप्रिय है. एक दोस्त अंजलि मित्रा ने किताब सुझाई थी “द पेलेस ऑफ इल्यूजन्स”. चित्रा बनर्जी का एक स्त्री की निगाह से लिखा हुआ महाभारत. ये किताब आई और आते ही बेटी के हाथ लग गयी. उसने अविराम पढते हुए पूरा किया. फिर ये किताब उसकी सखियों तक घूम कर कई महीनों बाद मेरे पास पहुंची. किताब का श्वेत-श्याम आवरण अपने साथ नन्ही बच्चियों की अँगुलियों की छाप लेकर आया और अधिक आत्मीय व प्रिय हो गया. प्रेम में अक्सर हम उदार हो जाते है और अपने प्रिय सफ़ेद रंग के धूसर हो जाने पर भी खुश रहते हैं. ये एक ज़रुरी किताब है. जिनको अमिष की किताबें प्रिय हैं उन्हें इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए ता

कितने शीरीं हैं तेरे लब कि...

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ज़िंदगी कितनी नफ़ीस और कितनी ऐबदार है. वह लड़की रो रही थी. मैंने उसे उसी समय क्यों देखा, जब उसकी आँख का आंसू उसकी तर्जनी के शिखिर को छू रहा था. अचानक याद आया कि किसी महबूब ने बददुआ दी थी कि तुम भी एक बेटी के बाप हो. इसलिए कि मैं देखूं ये षोडशी का आंसू तुम्हारी अपनी बेटी की आँख में भी हो सकता है. शायद उसका आशय कभी ऐसा न रहा हो कि उसकी आँख में हो. बस एक उलाहना भर हो. वह लड़की कनाट प्लेस के ए और बी ब्लाक के बीच पत्थरों से बनी हुई बैठकों पर बैठी हुई थी. उसके साथ जो लड़का था वह ज्यादा चिंतित न था. चिंतित होने से मेरा आशय है कि उसे लगता होगा कि लड़की के आंसू का कारण वह न था. मगर मैंने अचानक याद किया कि उसने पूछकर हाल, रुला दिया उसको. यानि हम कहीं भी हों, कई बार सामने वाले के दुःख पूछ कर उसे रुला देते हैं. इसी तरह क्या मेरे सब हिसाब मेरी बेटी से चुकता किये जायेंगे? अचानक मुंह कड़वा हो जाता है. कनाट प्लेस पर बादल कुछ देर पहले बरस कर गए थे. सब तरफ एक खुशी थी कि दिल्ली की उमस भरी गर्मी से पीछा छूटा, सब तरफ एक शिकायत थी कि यहाँ पानी क्यों फैला है? ये जो है वह क्यों है और जो नहीं है वह