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कई बार - डायरी दस दिनों की

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अचानक कोई स्थगित कर देता है जीना। तब सब कुछ यथावत होते हुए भी जीना नहीं होता। तब कहाँ जाता है जीवन। जैसे हम रुक जाएँ कोई बात कहते कहते। रुक जाने पर भी बात होती ही है कहीं न कहीं। ख़त्म थोड़े ही हो जाती है। ख़त्म हुई बात भी कहाँ ख़त्म होती है पूरी तरह। वह एक स्मृति की तरह बची ही रहती है। जीना स्थगित करना क्या प्रतीक्षा या स्मृति में चले जाना है? ये जून के आखिरी दिनों से जुलाई के पहले कुछ दिनों की डायरी है. अपनी इसी डायरी से कथाओं के लिए कुछ चुनता रहता हूँ. अपने जीए हुए लम्हों से, उनसे चुने दुखों और प्रतीक्षा से मैं किसी पात्र की अनुभूति को ज़रा सा इस तरह उकेर सकता हूँ कि पढते समय मुझे वे काल्पनिक पात्र नहीं लगते. कथाएं अपने सजीव होने का रंग देती है. 28 जून 2014 इस तरह कोई चीज़ बाकी नहीं रहती। रेलगाड़ी की सम्मोहक आवाज़। पसीना। तेज़ हवा। बारीक धूल की चादर। रेगिस्तान की सब चीज़ें मिलकर समेट लेती है मुसाफ़िर को अपने प्रिय रंग में। कई सप्ताह के बाद। आज सुबह रेल कोच को लहंगे ओढ़ने के लिबास से भरा पाया। मेरी आँखों में चमक लौटी कि मैं लौट रहा हूँ। जींस और कुर्ती बड़ा सुन्दर मेल है फिर भी एक