तूँ ही तूँ

मैं जब भी कहीं जाने का सोचता हूँ तो रेगिस्तान की रेत में गोल बिल बनाकर ज़मीन के नीचे छुपे बैठे किसी हुकिये की तरह कोई मुझे अपने पास तन्हाई में खींच लेने को तड़प उठता है. मैं एक खराब मुसाफिर हूँ. मेरी आत्मा रेत में बिंधी हुई है. सफ़र से पहले मैं हर रोज़ प्लान करता हूँ और हर रोज़ उसे बिखेर देता हूँ. मुझे विश्व पुस्तक मेला दिल्ली में जाना है और शायद नहीं जाना. मेरा ठिकाना गेंदे फूल की खुशबू से भरी इन नाज़ुक अँगुलियों के पास है, रेगिस्तान की लोक गायिकी में है.

कुछ तय हो तब तक गफ़ूर खां माँगणियार और साथियों के जिप्सी सुरों में आज का दिन भिगो लेते हैं. एक सूफी रचना है.

क्या चंद्र बन रैन है क्या सूर बन पगड़ो
क्या बाप से बैर क्या बँधवाँ संग झगड़ो

क्या नीच को संग क्या ऊंच कर हासो
क्या दासी की प्रीत क्या बैरी घर वासो

चलता नाग न छेड़िए पटक पूछ फिरे पाछो
बैताल कहे सुन बिक्रम नर इतराव तो मूरख करे

हाथ में हाथी बन बैठो कीड़ी में तूं नैनो क्यूँ
होके महात्मा ऊपर बैठो हाकण वालो तूं ही तूं

चोरों के संग चोर बन जावे कपटी के संग कपटी तूं
करके चोरी भागो जावे पकड़ण वालो तूं ही तूं
जीयाजूण जलथल में दाता ज्यां देखाँ ज्यां तूं ही तूं

दाता के संग दाता बन जावे भिख्यारी रे भेलो तूं
होके मंगतो मांगण जावे देवण वालो तूं ही तूं

नर नारी में एक इज रंग दो दुनिया में दीसे तूं
होके बालक रोवण लागो राखण वालो तूं ही तूं

इतरो भेद बता बता मेरे अवधू साबत करणी कर रे तूं
के गोरख के कृष्णा के मछंदर गरु मिल्या वा तूं ही तूं.

क्या चंद्रमा बिना रात, क्या भरे उजास बिना दिन. क्या पिता से दुश्मनी और क्या भाइयों से झगड़ा. क्या नीच का साथ और क्या ऊँची हंसी. क्या दासी से प्रीत, क्या दुशमन के घर वास. टली हुई विपदा को कभी न छेड़िए जैसे जाते हुए विषधर को छेड़ने पर वह पूँछ पटकता हुआ वापस भी मुड सकता है. ओ मनुष्य विक्रम इस वैताल की बात को सुनो कि घमंड करने का काम सिर्फ मूर्ख लोगों का है.

ओ दाता ! तूं हाथी बन कर भी हाथ में आ बैठा है और चींटी की तरह छोटे से जीव में किस तरह समाया है. ऊपर से तूं महात्मा बन कर बैठा है और सबको हांकने वाला भी सिर्फ तूं ही तूं. चोरों के साथ चोर बन जाता है और कपटी लोगों के साथ कपटी. चोरी करके भागने वाला तूं है और भागते को पकड़ने वाला भी तूं ही. इस तमाम जीवन में जल और थल में दाता मैं जहाँ भी देखूं सिर्फ तूं ही तूं है. दानवीरों के संग दानवीर बन जाता है, भिखारी के भी साथ है तूं और मंगता होकर माँगने जाने वाला और देने वाला भी तूं ही है. एक तूं स्त्री में एक तूं पुरुष में, एक ही दुनिया में दो तरह का दीखता है तूं. बच्चा बन कर रोने वाला भी तूं और उसे संभाले वाला भी तूं. ओ मेरे अवधूत मुझे इतना भेद बता, अपने कर्मों को साबित कर, गुरु के रूप में तूं ही गोरखनाथ, तूं ही कृष्ण और तूं ही मछंदरनाथ, जो भी मिले वे सब तूं ही तूं है.

कभी तो तेरी आवाज़ भी आए मगर फिलहाल इसे सुनो...