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Showing posts from February, 2014

मोहे चपरासी कर दे

रबी की फसल की कुछ सतरें दिखाई पड़ती है. बाकी सब सिमट आया है. कहीं कहीं कुछ बेवक्त की फसलें और हरियाली के टुकड़े हैं. शेष रेगिस्तान में अब कुछ आराम के दिन आयेंगे और आखातीज के बाद फिर से नयी फसल के लिए तैयारियां शुरू होंगी. लेकिन मन मेरा कुछ जगहों पर दुखी हो जाता है कि रेत के आँचल में कुछ बरस पहले पड़त की ज़मीन के सिवा कोई हिस्सा खाली न छूटता था. जहाँ कहीं इंसान बसा हुआ था वहाँ पूरी ज़मीन फसल के लिए जोती जाती थी. मैं पिछली बरसात में गाँव गया. मैंने देखा कि सबके खेत लगभग सूने पड़े हैं. किसी किसी ने ही कहीं फसल बो रखी है. ये बदलाव क्यों आया? ऐसा क्यों होने लगा कि पूर्णतया कृषि आधारित और पशुपालन के सहयोग से जीवन जीने वाले लोग कहाँ चले गए. उनके मन में खेती से दूरी क्यों आई? जीविकोपार्जन के लिए हम कृषि करते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है. इसलिए संभव है कि हमें जीवन जीने के लिए कमाई के और साधन मिल गए हैं. मेरे गाँव के आस पास पिछले सात आठ सालों में तेल उत्खनन, लिग्नाईट के खनन और बिजली बनाने के कारखाने लगते जा रहे हैं. ये सब शहर के तीस एक किलोमीटर के दायरे में हैं. तेल की खोज वाले आए उन सालों में लोगों

तूँ ही तूँ

मैं जब भी कहीं जाने का सोचता हूँ तो रेगिस्तान की रेत में गोल बिल बनाकर ज़मीन के नीचे छुपे बैठे किसी हुकिये की तरह कोई मुझे अपने पास तन्हाई में खींच लेने को तड़प उठता है. मैं एक खराब मुसाफिर हूँ. मेरी आत्मा रेत में बिंधी हुई है. सफ़र से पहले मैं हर रोज़ प्लान करता हूँ और हर रोज़ उसे बिखेर देता हूँ. मुझे विश्व पुस्तक मेला दिल्ली में जाना है और शायद नहीं जाना. मेरा ठिकाना गेंदे फूल की खुशबू से भरी इन नाज़ुक अँगुलियों के पास है, रेगिस्तान की लोक गायिकी में है. कुछ तय हो तब तक गफ़ूर खां माँगणियार और साथियों के जिप्सी सुरों में आज का दिन भिगो लेते हैं. एक सूफी रचना है. क्या चंद्र बन रैन है क्या सूर बन पगड़ो क्या बाप से बैर क्या बँधवाँ संग झगड़ो क्या नीच को संग क्या ऊंच कर हासो क्या दासी की प्रीत क्या बैरी घर वासो चलता नाग न छेड़िए पटक पूछ फिरे पाछो बैताल कहे सुन बिक्रम नर इतराव तो मूरख करे हाथ में हाथी बन बैठो कीड़ी में तूं नैनो क्यूँ होके महात्मा ऊपर बैठो हाकण वालो तूं ही तूं चोरों के संग चोर बन जावे कपटी के संग कपटी तूं करके चोरी भागो जावे पकड़ण वालो तूं ही तूं जीयाजूण जलथल में

विदुषी गार्गी और नव पल्लव

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अगर कोई मुझसे पूछे कि गार्गी कौन थी? तो यह प्रश्न मेरे मुंह पर लटक जायेगा. मेरी भाव भंगिमाओं से अल्प ज्ञान के तत्वों को विदा होते देखा जा सकेगा. कुछ साल पहले जब रेडियो के पास इतने कार्यक्रम निर्माता थे कि कुछ निर्माता स्टूडियो से बाहर जाकर भी कार्यक्रम रिकार्ड किया करते थे. उन वर्षों में एक बार मुझे गार्गी पुरस्कार वितरण समारोह को कवर करने और उस पर रेडियो रिपोर्ट बनाने का अवसर मिला था. उस पुरस्कार वितरण समारोह को अगर गार्गी देख सकती तो उन्हें समझ आ जाता कि न तो इस दुनिया में याज्ञवल्क्य की क़द्र है न कोई विदुषी का सम्मान करना चाहता है. मुझे विदुषी गार्गी के नाम पर आयोजित उस समारोह को रेडियो पर पेश करना था और मेरी कठिनाइयों का भी कोई हिसाब न था कि मुझे गार्गी का पूरा नाम भी मालूम न था. इसलिए कि मैं एक साधारण छात्र था जो अक्सर कक्षा के बाहर के दृश्यों में खोया रहता था. मैं सिर्फ इतना भर जानता था कि गार्गी पुराणों या मिथिकीय इतिहास में उल्लेखित हैं. वे विदुषी थीं और उन्होंने कोई ऐसा प्रश्न पूछा कि सुनने वालों ने उनको उत्तरदाता के समकक्ष विद्वान मान लिया था. हमें दुनिया के ज

थके हारे बेमजा सिपाही की तरह

किसी ने आवाज़ दी- जाखड़ साहब. मैंने बालकनी से सर नीचे किया. उदघाटन समारोह का कार्ड. इतनी सुबह. मैं आँखें मीचे हुए कहता हूँ आओ चाय पीकर जाना. कहते हैं नहीं नहीं फिर कभी. रसोई में खड़े हुए मुझे देखकर वो कहती है मालूम ही नहीं चलता कि आदमी है कहाँ? इस इंटरनेट ने सत्यानाश कर दिया सुकून का. मैं ऐसे देखता हूँ जैसे तुमको मुझ पर विश्वास नहीं. वह ऐसे देखती है कि पक्का अविश्वास ही है. विस्की की बू से भरे हुए चहरे को उठाये हुए सोचता हूँ कहाँ गए रात को, किस घोड़े पर चढ़े, किस सांप को बाँहों में भरा. परसों रात किसी ने ज़रा कांपते हाथों से ग्लास आगे बढ़ाया- 'सर लीजिए एक बचा रह गया.' जैसे किसी दुश्मन का सर था और बेखयाली में कलम करने से रह गया. सहरा-सहरा, बस्ती-बस्ती अपनी तेग के किनारे खून से भरे हुए थके हारे बेमजा सिपाही की तरह मैंने उसे हलक के नीचे कर दिया. कुदरत ने बदन बनाया. लोच और गर्मी से भरा हुआ. यही खूब था. इसके आगे रूह जैसी आफत बनायीं. जैसे असल नशे का खयाल आते ही शराब पानी हो जाती है. उसी तरह बदन से उकता गया हूँ. साहेब. इधर देखो तो. दीदे हैं तो फाड़ने को थोड़े ही हैं. या तो मु

तब तक एक बुदबुदाहट है

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रात हर किसी को छूकर तुम्हारा पता पूछते हुए खुद को पाया. पांवों में भारी थकन थी, जींस के बदरंग घुटनों पर समंदर के खारे पानी सी सूखी लहरें थीं. गहरे सलेटी रंग के कमीज की फोल्ड की हुई बाँहों में बीते वक्त की गंध रखी थी. कोई सीला मौसम था आंधी की तरह आता हुआ. बुझती हुई रोशनियों के बीच जाती हुई सर्दी की छुअन, याद की रेत में गुम कुछ एक चेहरे, प्याले में भरे हुए पानी में कोई सोने सा रंग और अचानक कोई आहट , कोई साया, कोई शक्ल, कोई कुछ नहीं. पुल से गुज़री एक कार की हेडलाईट की रौशनी कमरे की दीवार पर उजाला बुनती हुई गुज़री. उस चौंध में कई साल बने और पल भर में मिट गए. यकीनन तुम फिर से पागल हो जाओगे. इसी ख़याल में छत उतर कर से नीचे की ओर चला आया. कड़ाही पर रखे जाने वाले पारदर्शी ढक्कन की तरह बीवी बच्चों की शक्लों को ओढा और बेमजा आलू की तरह सो गया. सुबह के चार बजकर बावन मिनट हुए हैं. कोई रोता नहीं, कोई हँसता नहीं. काले लिबास को उतार कर शोक के आखिरी पहर में कोई चला गया. वही जो खोज रहा था हर किसी को छूकर. खोयी हुई चीज़ों के बरबाद ढेर में कुछ भी न था तीखा जो चुभ जाता अंगूठे के ठीक बीच.