बेआवाज़ बातों की दुनिया की ओर

दरवाज़े बायीं तरफ खुलेंगे या फिर दायीं तरफ खुलेंगे. इस तरह की उद्घोषणा के बीच परसों मैंने तीसरी उद्घोषणा सुनी कि दरवाज़े नहीं खुलेंगे. मेट्रो ने जाने किसके सम्मान में अपनी गति को थोड़ा कम किया और सूने स्टेशन से आगे निकल गयी. मैं दिल्ली कम ही जाता हूँ. रेगिस्तान में सुख से जीते जाने का दिल्ली की चमचम और बाकी सारी मुश्किलों से क्या जोड़? लेकिन अपने दूसरे कथा संग्रह के प्री बुकिंग वाले आर्डर पर हस्ताक्षर करने के बाद मैं मेट्रो में हौज खास से चांदनी चौक तक का सफ़र कर रहा होता हूँ. मेरे पास एक छोटा सा थैला था. कंधे पर एक काले रंग की शाल थी. इसके सिवा दो किताबें थीं. इतनी सी चीज़ों को संभाले हुए मैं देख रहा था कि मेरे आस पास खड़े हुए लोग मेट्रो के न रुकने सम्बन्धी विषय पर निर्विकार थे. ऐसा लगता था कि या तो उनको पहले से ही मालूम है या वे भी हिंदुस्तान की सुख से बसर करने की चाह में चुपचाप कष्ट सहती जाती अवाम का हिस्सा हैं. हम ऐसे ही हैं कि हमें सब कुछ पका पकाया चाहिए. कोई सड़क साफ़ कर रहा हो तो हम उसकी मदद नहीं करते. उसके दूर होते ही सड़क को गंदा करने में लग जाते हैं. लोकतंत्र के लिए इतना भर करते हैं कि वोट आने पर वोट दे आते हैं. पांच साल की संसद या विधायिका तब तक ही होती है जब तक जनता चाहे. लेकिन हमने अपनी चुप्पी से इसे एक स्थायी चीज़ बना दिया है. इसलिए चुनकर आये हुए प्रतिनिधि आश्वस्त रहते हैं कि अब जो भी देखना होगा अगले साल देखेंगे. मेट्रो इसलिए बंद कि राज्य के मुख्यमंत्री सड़क पर हैं. भारत सरकार के किसी विशेष भवन में एक मुख्यमंत्री को प्रवेश नहीं करने दिया जाता ऐसा मैं कहीं सुनता हूँ. अचानक याद आता है कि मंदिरों में भी कुछ ऐसा ही होता था. लोगों को दरवाज़े से बहुत दूर रोक दिया जाता रहा था. कहते हैं ऐसी घटनाओं की अति होने पर कोई नव जागरण हुआ करता है. मैं कामना करता हूँ कि ऐसा जल्द हो.

दिल्ली के एक पत्रकार मित्र जो शायद टीवी और प्रिंट में फीचर का सेक्शन देखते होंगे मुझे अपनी किताब के लिए बधाई देते हुए पूछते है कि कैसा लगता है इस दौर में किताबें लिखते हुए. साहित्य और आज के दौर के पाठकों का रिश्ता कैसा है. मैं उनसे कहता हूँ कि सम्पूर्ण समूह का किसी एक विषय की ओर रुझान नहीं होता है. हमारा समाज अलग अलग ज़रूरतों के अनुसार भिन्न विधाओं का समुच्चय है. साहित्य उसका एक हिस्सा है. हम कई बार इस भूल में पड़ जाते हैं कि समूचा समाज अगर साहित्य नहीं पढता है तो ठीक नहीं है. साहित्य की अनेक विधाओं ने एक साथ जन्म लिया है. उनका आना भाषा के आने के समकक्ष न होकर वरन उससे भी पहले का है. यानी संकेतों की भाषा के समय भी भिन्न प्रकार से मनोरंजन और हल्के हास्य की क्रियाएँ उपस्थित रही होंगी.  आज  उससे इतर ये नया ज़माना जिन संसाधनों से लैस है उनकी गति बहुत तीव्र है. वे कम्युनिकेशन को नयी शक्ल दे रहे हैं. नेट्वर्किंग और उसके औजारों से आई क्रांति ने हम सबको एक खास किस्म की गति से भर दिया है. इसमें चीज़ें बहुत जल्द हम तक पहुँचती हैं और वे उसी गति से अपना असर खो देती हैं. साहित्य इस सब में कहाँ है ये सोचते ही पहला जवाब मिलता है कहीं नहीं. लेकिन सचमुच ऐसा नहीं है. जो धारदार और संक्षेप में लिखा गया वह इन माध्यमों में अब ज्यादा तेज़ी से संचरित है. मिर्ज़ा ग़ालिब और मीर तकी मीर, रूमी से बुल्लेशाह, बच्चन से दुष्यंत तक की कवितायेँ और ऐसी ही अनेक रचनाएँ व्हाट्स एप, ट्विटर, फेसबुक और ऐसे अनेक सोशल माध्यमों में खूब उपस्थित हैं. मेरे कहने का आशय है कि नये ज़माने में बदले सिर्फ औजार ही हैं. जैसे पुराने संपादकों की जगह आजकल नये और तेज़ी से काम करने वाले संपादक आये हैं. उसी तरह लेखन में खूब बदलाव आया है. जैसे कभी कागज की डायरियों में बंद रहने वाली अनुभूतियाँ आज पब्लिक डोमेन में खुलने वाली डायरी की शकल ले चुकीं हैं. मेरी अपनी डायरी को हर रोज़ दुनिया के अलग अलग देशों से औसतन सौ लोग पढते हैं. डायरी विधा की तरह अन्य विधाओं की इंटरनेटी सामग्री को खूब पढ़ा जा रहा है. पंकज जी का एक सवाल ये भी है कि क्या आज अच्छे पाठक हैं? अच्छे पाठक. ये सोचते ही मैं गदगद हो जाता हूँ. इसलिए कि मेरी कहानियों की अब तक आई दो किताबें हज़ार से अधिक पाठकों के घर तक पहुंची हैं. इन संग्रहों में सम्मिलित सभी कहानियों को उन्हीं गंभीर पाठकों ने अपनी टिप्पणियों से सम्पादित किया है.ब्लॉग पर लिखी गयी कहानी को गंभीर पाठक मिलते हैं और वे किसी गहरे संपादक की तरह अपना काम करते हैं. असल बात है कि रुचियों के संक्रमण काल में आज की पीढ़ी पल पल नष्ट होती चीज़ों के दौर से खूब उबने लगी हैं. उनको सुकून सिर्फ वहीँ मिलेगा जहाँ साहित्य की श्रेष्ठ रचनाएँ जो आज के समय को चिन्हित करती हों. ज़रूरत इस बात की है कि विश्व साहित्य को पढ़ने के इस स्वर्णिम अवसर का उपयोग किया जाये और अपने लिट्रेचेर को और अधिक सुन्दर रचा जाये. मैं मुड कर देखता हूँ, अपने पीछे कई सौ साल पुराने भारत को. मेट्रो की हत्थी थामे हुए. गांव में बैलगाड़ी पर चलने वाले अपने पुरखों को याद करता हूँ. अट्ठारह रुपये में बीस किलीमीटर की साफ़ सुथरी यात्रा करते हुए सोचता हूँ रेगिस्तान से दिल्ली जैसे शहरों की दूरी को. सोचता हूँ भाप के इंजन को और फिर तमाम मुश्किलों और भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच आगे बढ़ रहे भारत के उज्ज्वल भविष्य की कामना करने लगता हूँ. क्या हम अपने ईमान को फिर से ज़िंदा नहीं कर सकते. क्या हम नहीं लौट सकते सत्य और अहिंसा के चरणों में. क्या सचमुच राजनीति सामंती संस्कारों से मुक्त होकर लोकगामी नहीं हो सकती. अचानक उद्घोषणा होती है चांदनी चौक यहाँ भारतीय रेल के पुरानी दिल्ली स्टेशन के लिए उतरें.