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Showing posts from September, 2013

कमर पर बंधी है कारतूसपेटी

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दो कवितायें - तुम्हारी याद की जबकि तुम इतनी ही दूर हो कि हाथ बढ़ा कर छू लूँ तुम्हें। तुम्हारे जाने का वक़्त था या फसाने की उम्र इतनी ही थी कि बाद तब से अंधेरा है। वक़्त की जिस दीवार के साये में सर झुकाये चल रहा हूँ, वो दीवार दूर तक फैली है। धूप नहीं, याद नहीं, और ज़िंदगी कुछ नहीं कि आवाज़ जो लांघ सकती है दीवारें वह भी गायब है। कमर पर बंधी है कारतूसपेटी हर खाने में एक तेरा नाम रखा है। इस तंग हाल में बढ्ने देता हूँ उदासी के भेड़ियों को करीब जाने कौनसा कारतूस आखिरी निकले। काश एक तेरा नाम हुआ होता बेहिसाब और एक मौत का कोई तय वक़्त होता।  * * * अश्वमेध यज्ञ के  घोड़े की तरह मन निषिद्ध फ़ासलों पर लिखता है, जीत। आखिर कोई अपना ही उसे टांग देता हैं हवा के बीच कहीं जैसे कोई जादूगर हवा में लटका देता है एक सम्मोहित लड़की को। हमें यकीन नहीं होता कि हवा में तैर रही है एक लड़की मगर हम मान लेते हैं। इसी तरह ये सोचना मुमकिन नहीं कि तुम इस तरह ठुकरा दोगे, फिर भी है तो... शाम उतर रही है रात की सीढ़ियों से उदास और मेरी याद में समाये हो तुम। [Pai

रेगिस्तान में रिफायनरी की आधारशिला

सुबह अच्छी हवा थी लेकिन बारह बजते ही उमस ने घेर लिया। पचपदरा के नमक के मैदानों पर तने हुये आसमान में हल्के बादल आने लगे। मैं सवेरे छह बजे घर से निकला था। रेत के मैदान से नमक भरी जगह पर आ गया था। विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए तैनात जांच दल और प्रवेश पास बनाने वाली एजेंसी के पास जाते ही मालूम हुआ कि हमारे पास जिला मुख्यालय पर पीआरओ के पास हैं। ये बेहद उदास करने वाली बात थी। तीन दिन पूर्व पास बनाने के लिए किए गए निवेदन के बावजूद वे समय पर मिल नहीं पाये। मैं कार में अनमना बैठा था कि इंतज़ार करने के सिवा दूजा कोई रास्ता न था। इस तरह के वीआईपी दौरों के समय कई तरह की असुविधाएं होती हैं इससे मैं वाकिफ हूँ। लेकिन लापरवाही भरे तरीके से प्रवेश पास का गैरजिम्मेदार लोगों के पास होना और समय पर पहुँचकर भी सभा स्थल पर रिकार्डिंग के लिए अपने उपस्करणों को स्थापित न कर पाना अफसोस की बात थी। सुबह जब हमारी टीम वहाँ पहुंची तब तक सब खाली था। कुछ देर पहले लगाए गए होर्डिंग्स और बैनर रस्तों को नया लुक दे रहे थे। ज़्यादातर होर्डिंग अपने नेता के प्रति वफादारी या अपनी सक्रिय उपस्थिती दिखाये जाने के लिए

जो अपना नहीं है उसे भूल जाएँ।

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ये परसों रात की बात है। शाम ठीक से बीती थी और दफ़अतन ऐसा लगा कि कोई ठहरा हुआ स्याह साया था और गुज़र गया। मेरे आस पास कोई खालीपन खुला जिसमें से ताज़ा सांस आई। काम वे ही अधूरे, बेढब और बेसलीका मगर दोपहर बाद का वक़्त पुरसुकून।  कहीं कोई उदास था शायद, वहीं कोई शाद बात बिखरी हो शायद। * * * ऊंट की पीठ पर रखी उम्र की पखाल से, गिरता रहा पानी  और रेगिस्तान के रास्तों चलता रहा मुसाफ़िर ज़िंदगी का।  बस इसी तरह बसर हुई।  कम फूलों और ज्यादा काँटों वाले दरख्तों, धूप से तपते रेत के धोरों और अकूत प्यास से भरी धरती वाले ओ प्यारे रेगिस्तान, तैयालीस साल असीम प्रेम देने का बहुत शुक्रिया।  तुम्हारे प्रेम में आज फिर एक नए बरस की शुरुआत होती है। जन्मदिन शुभ हो, प्यारे केसी। * * * शाम ढले घर में पाव के सिकने की खुशबू थी।  पेशावर से मैं कभी जुड़ नहीं पाता। मुझे मीरपुर खास ही हमेशा करीब लगता है। देश जब बंटा तो सिंध से आए रिफ़्यूजियों के हर झोले में गोल ब्रेड थी। जिसे वे पाव कहते थे। कोई तीस हज़ार साल पहले किसी कवक के गेंहू के आटे में पड़ जाने के बाद जो फूली हुई रोटी बनी, ये उ

रेगिस्तान का आसमान अक्सर

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रेगिस्तान के बीच एक पथरीले बंजर टुकड़े पर कई लोगों को कल देखा था, मैंने। कोलाहल के अप्रिय रेशे छू न सके मेरे कानों को कि कुछ इस तरह भरी भीड़ में तेरी याद को ओढ़ रखा था, मैंने। कितने ही रंग की झंडियाँ लहराती थी हवा में मगर मैंने देखा कि तुम बैठे हो वही कुर्ता पहने कल जो तुमने खरीदा था याद आया कि कपड़ों की उस दुकान में जाने कितने ही रंगों को चखा था हमने। सुगन चिड़ी बैठी थी जिस तार पर वहीं मैं टाँगता रहा कुछ बीती हुई बातें कोई भटकी हुई बदली उन बातों को भिगोती रही लोगों ने ये सब देखा या नहीं, मगर देखा मैंने। बाजरा के पीले हरे सिट्टों पर घास के हरे भूरे चेहरे पर शाम होने से पहले गिरती रही बूंदें जैसे तुम गुलाब के फूल सिरहाने रखे झांक रहे हो मेरी आँखों में याद के माइल स्टोन बिछड़ते रहे कार के शीशे के पार खींची बादलों की रेखा मैंने। मैं कहीं भी जाऊँ और छोड़ दूँ कुछ भी तो भी तुम मेरे साथ चलते हो। बीत गया वो जो कल का दिन था और उसके ऊपर से गुज़र गयी है एक रात पूरी। मगर अब भी तुम टपकने को हो भीगी आँख से मेरे। [बस इसी तरह बरसता है रेगिस्तान

सबकी पेशानी पर है प्रेम की थोड़ी सी राख़

दो दिन की डायरी के तीन टुकड़े।  रेत के बीहड़ में लोहे के फंदे में फंसी एक टूटी हुई टांग के साथ असहनीय दर्द की मूर्छा लिए हुये तीन सामर्थ्यहीन टांगों से छटपटाता है हिरण। हिरण, जो कि एक प्रेम है। अर्धचेतना में डूबा अपने महबूब शिकारी की प्रतीक्षा में रत। मृत्यु और भोर के बीच एक निश्चेष्ट होड़।  उसके होठों जितनी दूर और उतनी ही प्यासी, बुझती हुई हिरण के आँखों की रोशनी। इस तड़प के वक़्त बेखबर शिकारी सो रहा है जाने किस अंधेरे की छांव। हिरण के डूबते दिल की आवाज़ समा रही है धरती की पीठ में। वह तड़पता है फंदे में बेबस और लाचार।  सबकी पेशानी पर है प्रेम के अतीत की थोड़ी सी राख़।  मैं एक अघोरी हूँ। जो बैठा हुआ हुआ है छत पर और रेत उड़ उड़ कर गिर रही है सूखे प्याले में। 15 Sept 2013 8 PM वक़्त में नमी रही होगी। दीवार के बीच कहीं एक पत्थर के आस पास से झड़ गया था सारा सौदा जिसके साथ रहा होगा वादा थाम कर रखने का। ऊपर खुला आसमान था लेकिन बाकी तीन तरफ खाली छूटी हुई लकीरों को किसी तत्व का नाम नहीं दिया जा सकता था। उस जगह को दरारें ही कहना एक मजबूरी थी।  पत्थर मगर अटल था किसी

हसरतों का बाग़

कभी कहा न किसी से तेरे फसाने को न जाने कैसे खबर हो गयी ज़माने को। सिटी बस में यही ग़ज़ल बज रही थी। सवारियाँ इस सोच में डूबी थी कि डायवर्टेड रूट में किस जगह उतरा जाए तो अपने ठिकाने लग सकते हैं। हर कोई इसी कोशिश में है कि वह ठिकाने लग जाए। मेरे पास कोई काम न था। मैं छुट्टी लेकर राजधानी में घूम था और दिन की गर्मी सख्त थी। सिटी बस में कभी कभी हवा का झौंका आता लेकिन उसे अधिक ट्रेफ़िक कंट्रोल कर रही विशल की आवाज़ आती। शहर में बड़ा सियासी जलसा था। जलसे वाली जगह के बारे में मैंने पूछा कि यहाँ कितने लोग आ सकते हैं। मेरे पूछने का आशय था कि इस सभा स्थल की केपेसिटी कितनी है। जवाब मिला कि कोई तीन लाख के आस पास। विधानसभा का भवन जिस ओर मुंह किए खड़ा है उसी के आगे ये जगह है। अमरूदों का बाग़। खुला मैदान है। पहले यहाँ पुलिस का मुख्यालय बनना था लेकिन किन्हीं कारणों से इस जगह को खाली ही रहने दिया गया। मैं इस खाली जगह को देखकर खुश होता हूँ। खाली जगहें हमारी मत भिन्नता और असहमतियों के प्रदर्शन के लिए काम आ सकती है। अंबेडकर सर्कल से देखो तो विधान सभा के आगे कोने में दायें हाथ की तरफ एक छुपी हुए जगह है। य

शाम के झुटपुटे में

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वीकेंड के खत्म होने से कोई छः घंटे पहले उसका मेसेज़ आता। मैं अभी लौट कर आई हूँ। इस मेसेज़ में एक थकान प्रस्फुटित होती रहती थी। संभव है कि इस थकान को मैं अपने आप सोच लेता था। इसके बाद वह बताती कि कुछ नहीं बस हम दोनों सोये रहे। हाँ वह होता है बिलकुल पास। मगर मुझे नहीं पसंद वह सब। वीकेंड हर महीने चार पाँच बार आता था। समय बदलता रहता किन्तु उसके आने और बात करने का सलीका नहीं बदलता था। वह उसी की बाहों में होती थी और होता कुछ न था। कई बार मुझे ऐसा आभास होने लगता कि वह शायद इस तरह हर बार जाने से उकताने लगी है। उसने कहा भी था। मैं फिर से हमारी बातों से गुज़रते हुये पाता हूँ कि हाँ ऐसा ही कहती थी। एक रात उसने कहा। कम ऑन, होल्ड मी। रात उदास थी। हॉस्टल के कमरे में जो तनहाई थी उसने पूरे दिल्ली शहर को ढक लिया था। कहीं कोई सहारा न था। हॉस्टल के पास के हाईवे पर गुज़रते हुये ट्रक इस बेहिसाब तनहाई को तोड़ नहीं पाते थे। उन ट्रकों के पहियों की आवाज़ किसी भिनभिनाहट की तरह बुझ जाती। इधर रेगिस्तान में एक बड़ी लंबी दीवार के पास लगे लेंप पोस्ट के नीचे मच्छर थे। वैसे ही जैसे उसको हॉस्टल की सी