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Showing posts from June, 2013

तो उसकी दुनिया कहाँ गई?

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चाय का प्याला लेकर घर के सबसे ऊपरी कमरे में चला आया हूँ। आसमान पर कुछ एक बादलों के फाहे हैं। मौसम कुछ ऐसा कि जैसे कुछ बरस ही जाए तो बेहतर। मैं इन दिनों खोये हुये होने के दुख से बाहर से खोये हुये होने के सुख की ओर निष्क्रमण चाहता हूँ। जगह वही रहे मगर हाल बदल जाने की उम्मीद हो। जैसे तुम्हारा हाथ दुख में भी नहीं छूटा और सुख के पलों में ऐसी कामना कौन कर सकता है कि तुम्हारा हाथ छूट जाए।  मेरे दफ्तर जाने का समय सुबह नौ बजकर पचास मिनट का था। उस वक़्त मैं बालकनी में लेटा हुआ चिड़िया की चोंच वाले तिनके को और कभी बिजली के तार पर सुस्ताती हुई गिलहरी को देख रहा था। उस वक़्त के बाद मुझे बारह बजे दफ्तर जाना चाहिए था। लेकिन मैंने पाया कि उमस ज्यादा है और पत्ता गोभी को बच्चे पसंद नहीं करते इसलिए आभा के साथ खड़ा होकर बेसन के गट्टे छौंक लेने के लिए प्याज और मिर्च काटता रहा।  फिर मैं अगर दो बजे भी पहुँच सकता तो भी दफ्तर मुझे बख़ुशी स्वीकार लेता। लेकिन मैं तब भी वाशरूम में लगी खिड़की से बाहर दिखती हुई जाल पर बैठी एक चिड़िया को देख कर सोचता रहा कि काश कोई मुझे सज़ा देकर इस तरह सलाखों के पीछे रख

तस्वीर अधूरी है मगर मिटी तो नहीं है

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मेरे पास तुम्हें देने के लिए बहुत सारे प्रेम के सिवा ये कुछ ऊटपटाँग शब्दों के बेसलीका सिलसिले भर हैं। तूने रुख फेर कर रख ली है कूची जेब में तस्वीर अधूरी है मगर मिटी तो नहीं है। * * * कुछ नहीं बस चार बूंदें गिर रही हैं आसमान से। मैं तोड़ रहा हूँ इनको अनेक बूंदों में, अपनी बुरी नज़र लगा कर। तुम्हारे लिए हज़ार बार बुरा बन जाऊँ तो भी क्या बुरा है? * * * एक दरीचा है एक दीवार का साया है जैसे कोई पहरा हो, जैसे कोई बंदिश है। कोई झाँक नहीं है, कोई आवाज़ नहीं है। बस एक नाम है और सुना है कि ज़िंदगी है बरसों लंबी। अगर सचमुच बरसों चल सके ये ज़िंदगी तो तुम ज़रूर आना कि इंतज़ार बना रहेगा। * * * मैं एक कागज से काटता हूँ बोतल का गला और उसे बना लेता हूँ काँच का प्याला। एक दीवार को करता हूँ बाहों में क़ैद उसकी पीठ पर लिखता हूँ बेवफाई और कहता हूँ उसे कि लिखा है, प्रेम। परछाई के आंसुओं को मिलाता हूँ गाढ़े होते खून में जो रिस रहा है मेरे होने की खुशी में और भर लेता हूँ प्याला गहरे लाल रंग से। अपनी जेब से निकालता हूँ सिक्का और उसे बारूद बना कर उड़ा देता हूँ ग्

बीते गुरुवार की शाम

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दोपहर कायदे से हुई नहीं थी। मुझे भी जब तक धूप पूरी खिली हुई नहीं दिखती तब तक मेरी कार्बन क्लॉक दोपहर होना मानने से इंकार कर देती है। बारिश की हल्की बूंदे गिर रही थी। वह भी बालकनी में आ गई। मैंने कहा ज़रा मेरे पास दीवार का इधर से सहारा ले लो। वह कहती है देखो तेज़ रफ्तार कारें भागी जा रही है। मैं कहता हूँ- और क्या दिख रहा है। कहती है कुछ पौधे कुछ फूल और कुछ बच्चे। हँसती है क्या कहानी लिखोगे? मैं कहता हूँ- सुनोगी? बेटी भी आ जाती है। उसको कहानी की बेवफाई पर शायद कोई एतराज है। मैं कहता हूँ कि ये गए दिनों की बात है जब एक आदमी में छिपे होते थे दस बीस आदमी। आज कल एक आदमी में छिपी होती हैं हज़ार दुनियाएं।  बेटी की आँखों में कहानी के कथ्य से नाउम्मीदी है। वह लड़की अगर बेखौफ इतना प्यार करती थी तो बिना कोई मुलाक़ात का वादा लिए चली क्यों गयी? और वह सात साल का फासला उसने क्यों आने दिया? मैं कहता हूँ- देखो तुम्हें क्या दिख रहा है? मुझे मौल्स, बादल और बेहिसाब भीड़। मैंने कहा चलो वहीं चलते हैं। सारे दिन खयाली पुलाव पकाना और झूठी कहानियाँ कहना कोई अच्छा काम नहीं है।  जवाहर सर्कल, डब्लूटीपी, जी

क्या याद दिलाएँगे मुझे मेरे सितमगर

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मॉनसून के आने से पहले के बादलों ने ज़मीन पर कुछ फुहारें लिखी थी। गाँव और शहर के बीच का चौराहा भीगा हुआ था। सड़कों के किनारे पानी के आईने उतरे हुये थे। वे बेतरतीब ढंग से जमा पानी से बने थे। हवा बंद थी फिर भी मौसम में बरसे हुये पानी की नमी का ठंडा का अहसास, लोगों के चेहरे पर लिखा हुआ था। मैंने एक छोटी वैन में बैठे हुये तेज़ी से आबाद होते जा रहे शहर के नए मकानों पर कई बार सरसरी नज़र डाली। किन्तु हर तरफ भीग जाने के निशान ही देख सका। शायद मेरे सूखे मन को इन्हीं निशानों के आमद का इंतज़ार था। रेगिस्तान है तो यहाँ गरमी बेहिसाब आती है। वैन में बैठे हुये लोगों से ज्यादा लोग उसके पीछे या दरवाजों पर लटके हुये हैं। उनमें से कुछ विध्यार्थी थे, कुछ दिहाड़ी के मजदूर। शाम होने से पहले का वक़्त था। सूरज नहीं था मगर उसके होने के कई सारे अहसास थे। बादलों की ओट से रोशनी का झरना बह रहा था। इसे सबसे सुंदर मौसम कहा जा सकता था। सड़क के किनारे जमा पानी से गुज़रते हुये वाहन और खुद के कपड़ों को बचाकर चलते हुये राहगीर बरसात के दिनों की तस्वीर को मुकम्मल कर रहे थे। महल गाँव और जयपुर शहर के बीच का ये चौराहा सा

तुमने देखा ही क्या है?

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कीमियागरों से कुछ रसायन उधार लेकर, कुदरत का शुक्रिया कहते हुये एक बूढ़ा आदमी बना लेता है ज़िंदगी का आसव, बेहद कड़वा मगर मद से भरा। एक नौजवान लड़का उदास रहता है। सिर्फ इसलिए कि वह मुहब्बत को किसी दरवाज़े की चौखट की तरह खड़ा करना चाहता है। फिर उस तोरण से बार बार अकेला गुज़रना चाहता है। लड़की कहती है तुम खुश रहा करो और फिर सुनती है, लोकगीत से चुराई हुई उदासी से बना सस्ता लोकप्रिय गीत। मैं न वो लड़का हूँ न उदासी सुनती हुई लड़की। मुझे उस रसायन के बारे में कुछ नहीं मालूम जिसे बूढ़ा आदमी बनाता है। मैंने अपने हिस्से में जो चुना है वह आला दर्ज़े का इंतज़ार है। कि इंतज़ार में समा सकते हैं अनगिनत लड़के, लड़कियां, बूढ़े और हज़ार रकम की चीज़ें। इसमें समा सकती है इस दुनिया जैसी अनेक जगहें जिनके बारे में अभी तुमने सोचा नहीं है।  इस वक़्त आसमान में बादल हैं। हवा तेज़ है। पर्दे उड़ उड़ कर बालकनी में लगी लोहे की जाली को चूम रहे हैं। ये एक क्षणभंगुर दृश्य है। मैं इसे देखता हूँ और ये मिट जाता है। मुझे अचानक से एक याद आती है। जैसे हवा में कलाबाज़ियाँ खाता हुआ सिक्का होता है। उसका सच और झूठ एक

हवा की नमी चुराना, शराब के लिए

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एक दोस्त ने कहा- अच्छा आप मैजिक में घूम रहे हैं। मैं मुसकुराता हुआ हामी भरता हूँ। टाटा कंपनी के बनाए इस पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्हिकल का शुक्रिया अदा करते हुये कहता हूँ। देखो न शाम कितनी अच्छी है। हमारे वार्तालाप के बीच एक निर्वात आ जाता है। मैं दोस्त की आवाज़ को सुनने की कोशिश करते हुये इस खालीपन से गुज़रता हुआ सोचता हूँ कि अक्सर अच्छी चीज़ें किसी की याद क्यों दिलाती है। कहो क्यों? मैं ये उससे पूछ लेना चाहता हूँ मगर नहीं पूछता हूँ। इसलिए कि मेरे और उसके निर्वात अलग आकार के हैं। हम दोनों इस ट्रान्स से गुज़रते हुये कभी कभी ही एक दूजे को आवाज़ दिया करते हैं। जब तक आवाज़ का कोई जवाब आता है हम निर्वात के दूसरे छोर तक आ चुके होते हैं।  मैंने परसों सिटी बस में बैठे हुये कुछ सोचा। वह कुछ भी था। जैसे कि सबसे पहले खयाल आया कि शाम को अगर कुछ बादल आ जाएँ और हवा ठंडी हो जाए। ये सोचते ही मैं मुस्कुराने लगा। ऐसा सोचते ही मौसम में ऐसा मामूली बदलाव आया जिसे सिटी बस के यात्रियों में सिर्फ मैं ही महसूस कर सकता था। यानि कि सोचने भर से मौसम में बदलाव आया। फिर मैंने सोचा कि मैं अच्छी विस्की पीऊँगा। एक बे

लाइट सी ग्रीन रंग पहचानते हो

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हम चल सकते थे रेगिस्तान की बालू पर और फिर थक जाने पर लेट सकते थे ऐसे कि कोई रूई का धुनका ले रहा हो झपकी। रेत के बिस्तर पर रेत से ही सना हुआ। मगर हासिल सिर्फ आवाज़ के टूटे रेशे, तनहाई के भारी पर्दे। एक उम्मीद से जगना और एक उदासी से सो जाना। इस अप्रिय चुप्पी में एक डेज़र्ट मॉनिटर ने कच्ची दीवार से सर उठा कर रेगिस्तान की छत पर छाए हुये बादलों को सलामी दी है। एक टिटहरी अपने नन्हे बच्चे के पीछे चलती हुई, कबीर की वाणी गा रही है- 'हिरना समझ बूझ वन चरना।'  मैं बालकनी से देखता हूँ कि मानसून के आने से पहले की इस सुबह में डेज़र्ट मॉनिटर उसी रास्ते पर बढ़ गयी है। जिस पर उस एक शाम के बाद मैंने घबरा कर चलना छोड़ दिया था। रात एक सपना कनेर की लचीली टहनी सा मेरी पीठ पर दस्तक देता रहा। जाने क्या था, किसे क्या चाहिए था मालूम नहीं। याद का माँजा इतना कच्चा है कि कोई प्रॉपर्टी, कोई सिचुएशन, कोई डायलॉग या कोई फील पक्का पक्का लिखा ही नहीं जा रहा। अच्छा कि मैं भूल गया, कि याद नहीं, कि कुछ था इतना काफी है। कि रात गुज़र गयी है। कई दिनों से आंधियों का शोर था, आज की सुबह खामोशी है, उमस है और ए

इस तरह भी क्या जाना

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मैं एक चौबीस पन्नों का अख़बार लिए हुये छोटे टेम्पो के इंतज़ार में था। ये मिनी ट्रक जैसे नए जमाने के पोर्टबल वाहन खूब उपयोगी है। खासकर छोटी जगहों को बड़ी जगहों से जोडने के लिए। पहले डीजल इंजन सेट से तैयार किए गए जुगाड़ जिन रास्तों पर दौड़ा करते थे, आज वहाँ इस तरह के मिनी से छोटे ये ट्रक जुगाड़ को विस्थापित करने में लगे हैं। ऐसे ही एक टाइनी साइज़ के चार पहियों वाले टेम्पो के पीछे लिखा था-“मैं बड़ा होकर ट्रक बनूँगा” मेरे हाथ में जो अख़बार था उसके पहले पन्ने पर जो खबर थी, वह भी बड़े होते जाने और कुछ न बन पाने के डर की दुखद दास्तां से भरी थी। एक दिन पहले सुबह व्हाट्स ऐप पर एक दोस्त का संदेशा आया था। ज़िया खान नहीं रही। उसने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। मेरे मन में आया कि ये ज़रूर कोई बड़ी हस्ती की बात होगी जिसने समाज पर गहरा प्रभाव डाला होगा। वरना आजकल मौत इतनी मामूली चीज़ है कि लोगों इस पर ध्यान देना बंद कर दिया है। कोई दुनिया से गुज़र जाता है और हमारी आँखों में नमी नहीं आती। हम पल भर के लिए भी इस बात पर विचार नहीं करते कि एक सुंदर और कीमती जान ने इस दुनिया को छोड़ दिया है।  मैं अ

तुमने इस तरह चूमना कहाँ सीखा है

कोई ठौर न थी न कोई ठिकाना था इसलिए पंछी ने अपने पंखों को किसी वलय की तरह बनाया और एक ही गुलाची में समा गया खुद के भीतर। वहाँ असीम जगह थी। वहाँ कुछ भी मुमकिन था। वहाँ इस छोटी पड़ती हुई दुनिया से घबराये हुये लोगों के लिए अनगिनत दुनिया बसाये जा सकने जितनी जगह थी। दूर दूर तक देखो तो असमाप्य, दीर्घ और जटिल संसार। सोचो तो, सब कुछ किसी नाशवान प्रेत की तरह राख़ होकर कदमों में गिर पड़े। यही वह जगह है जहां पहुँचने का रास्ता किसी बौद्ध को पहली बार बताया गया होगा।  मैंने अपने दुखों को उलट पुलट कर सुखा दिया, उसी महबूब की धूप में, जिसके कारण दुख होने का भ्रम मुझे घेरे हुये था। मैंने अथाह शांति के समंदर में डूब जाना चाहा मगर डूब न सका कि मैं खुद उसी पर बहने लगा। मैंने सोचा कि चुप्पी के सघन जंगल में झौंक दूँ खुद को और पाया कि मैं सुन रहा हूँ पंछियों के गीत। जो मैं सुन न सका था। कुदरत के बेजोड़ गान के वृंद में सभी चीज़ें शामिल थी। हर वह चीज़ जिसे आप देख या महसूस कर पाये हो कभी भी...  अचानक एक साफ आवाज़ फिर से सुनी मैंने- तुमने इस तरह चूमना कहाँ सीखा है।  रेल के पहियों के शोर में, मैं सोचत