Posts

Showing posts from March, 2013

मैं तुम्हारी ही हूँ

मौसम की तपिश बनी है इसलिए कि फिर से याद किया जा सके उन गहरे पेड़ों को जिनकी छांव में बीती थी बचपन की अनेक दोपहरें और याद कर सकें इमली के कच्चे पत्ते खाने के दिनों को। आज किसी ने अपनी आवाज़ को बना कर नाज़ुक पंख कान में गुदगुदी की है। धूप फिर सख्त है दिन फिर लंबा है। मैं सब चीजों को अपने दिल में उनके वुजूद के साथ रखता हूँ। एक दिशासूचक यंत्र बता रहा है कि तुम कहाँ हो इस वक़्त... मैं सोच कर घिर जाता हूँ हैरत से कि कैसे कोई हो सकता है, दो जगहों पर एक साथ। कि इस वक़्त उस अजनबी शहर के अलावा तुम मेरे दिल में भी हो...  ख़ुदा ने एक पर्ची में लिखा उल्लास की स्याही से कि इस सप्ताहांत की सबसे बड़ी खुशी मैं रखता हूँ, अपने प्यारे बच्चे की जेब में कुदरत के सारे डिस्काउंट्स के साथ। और एक आवाज़ आई, मैं तुम्हारी ही हूँ। * * * आंख में उतरता है शाम का आखिरी लम्हा तुम्हारे कुर्ते की किनारी पर रखे हाथ। अगले ही पल सड़क के बीच डिवाइडर पर तेरे कंधों के पीछे खो जाता है, खुशी का आखिरी दिन क्षितिज के उस पार। गुलाबी हथेलियों पर रखते हुये एक वादा हम उठ जाते हैं ज़िंदगी भर के लिए। मेरी रू

वक़्त के होठों पर एक प्रेमगीत

Image
ये बात कितनी ठीक है, कहना मुश्किल है मगर मेरा दिल कहता है कि अतुकांत, असम्बद्ध, गूढ़ छद्म प्रयोजन, अस्पष्ट, अतार्किक, अनियोजित और ऐसे अनेक विशेषणों वाली आधुनिक कविता को पढ़ना हिम्मत का काम है। मैंने नौवें दशक से नई कविता की किताबें पढ़ना छोड़ दिया था। इसलिए कि मुझ अल्पबुद्धि को ये कभी समझ न आ सका कि इस कविता का प्रयोजन क्या है? अगर कोई प्रयोजन बूझ भी लिया जाए तो ये नहीं समझ पाता था कि इसमें रस किधर है। कुछ लोग इसे अनर्गल प्रलाप कहने लगे किन्तु मैंने कहा कि कवि की अनुभूतियों को अगर आप नहीं पकड़ पा रहे हैं तो आप एक अच्छे दयालु हृदय के पाठक नहीं हैं। दो दशक बीत गए। कविता नारे लगाती हुई बढ़ती ही गयी। बेशुमार कवि और बेशुमार नारे। इतने नारे अगर सड़क पर उतर कर लगाए होते तो शायद पुनर्जागरण हो जाता।  मैं सड़कों पर नारे लगाता फिरता रहा हूँ। मेरे नौजवान दिनों की यही एक याद बाकी है। इसी एक याद में कई उम्मीदें भी बची हुई हैं। कविता इन्हीं नारों की शक्ल में मेरा पीछा करती रही और मैं इससे डर कर कहीं एकांत में बैठा सिगरेट फूंकता रहा। मेरा एक दोस्त मुझे कविता सुनाता था। उसे सुनते हुये फिर से कवित

फिलहाल गायब हैं मेरे पंख।

जहां खत्म होती है सीढ़ियाँ वहीं एक दरवाज़ा बना हुआ था। उसके पीछे छिप कर हमने लिए तवील बोसे। पंजों पर खड़े हुए, कमर को थामे। हमने पी ली बेहिसाब नमी। मगर अब मैं सख्त चट्टान पर बैठा हुआ डरता रहता हूँ जबकि परिंदों ने बना रखे हैं घर झूलती हुई शाख पर।  इस बार की बरसात में धुल जाएंगे पहाड़, छत होगी बहते हुए दरिया जैसी साफ और बादलों की छतरी तनी होगी आसमान में। तब हम दीवार का सहारा लेकर चूमते जाने की जगह चुरा लेंगे परिंदों के पंख और उड़ जाएंगे। डाल पर झूलती चिड़िया भर जाएगी अचरज से।  फिलहाल गायब हैं मेरे पंख। * * * हर चीज़  जो हमारे दिल पर रखी होती है  उसका भार इस बात पर निर्भर करता है  कि इसे किसने रखा है। * * * रूठ जाओ ओ मेहरबान मगर देखो देखने दुनिया को लाये थे जो ज़िंदगी हम गुज़र रही है, उनींदी बिस्तरों पर। आँखें खोलूँ तो लगता है रात किसी ने रख दिया है चेहरा पत्थर का सर उठाऊँ तो कोई कहता है, सो जाओ। तुमसे उधार ली थी खुशी वे दिन बीत गए ग़म के इस मौसम कब तक फिरूँ तनहा खिड़की पर बैठा पंछी गाता है, सो जाओ। प्याले उदास रखे हैं, कासे खाली खाली न छलकने की आवाज़

कि मोहब्बत भी एक कफ़स है

लिख रहा हूँ मगर उस बीते हुये मौसम से बेखबर एक रूह सीने पर आ बैठी है। कहती है पीठ के तकिये को नीचे करो। इस पर सर रखो और सो जाओ. दुनिया खाली है। इसमें तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। मैं दो पंक्तियाँ और लिख कर हार जाता हूँ। लेपटोप टेबल को एक तरफ रख देता हूँ। खिड़की से दिखते पहाड़ पर सूनापन है। जिंदगी में भी। अभी इसी वक़्त किसी की अंगुलियों का स्पर्श चाहिए। इस भारी रूह को विदा करना चाहता हूँ कि सांस आराम से आए। मुझे चाहिए कि कोई भी आए, कोई भी पर इसी वक़्त आए। ज़िंदगी तुम्हें मैंने खुद ने बरबाद किया है। इसलिए अपने हिस्से की इस सज़ा को कम भी किस तरह करूँ। तीन बार अलमारी तक गया और लौट आया... आह ! गुलाबी रंग की दवा नहीं भर सकती कोई रंग। वह मुझे शिथिल कर देगी। मैं बिस्तर पर आधा लेटा हुआ, ये सब लिखता सोचता हूँ। रहम एक बड़ा शब्द है... रहम करो। * * * ग्रेवीटि के खिलाफ़ काम करती है मुहब्बत। दुनिया नहीं पसंद करती हवा में उड़ते आदमी को इसलिए वह खड़ी रहती है स्थापित मूल्यों के साथ और ग्रेविटी के फ़ेवर में एक दिन मार गिराती है इस शे को। * * * आत्मकथाओं में लिखा जाने वाला कॉमन झूठ है, बरबादी क

कैसे लिखूँ कि याद क्यों आती है?

Image
जयपुर के पास एक गाँव में छठे माले पर मेरा घर है। कुदरत ने क्लोन नहीं बनाए इसलिए मैं उस घर में रहता हूँ, मेरे से ज़ुदा एक लड़की के साथ। उस घर में एक लड़की रहती है, अपने ज़ुदा एक लड़के के साथ। दो बच्चे हैं, एक दूजे से मिलते जुलते। कभी एक मेरी शक्ल का लड़का भी आता है। कभी कभी आती है एक मेरी दोस्त। उसके बाल बेढब कटे हुये हैं। थोड़े सुनहरे थोड़े सलेटी रंग के। कभी कभी मुझे आती है याद अपने काले घने लंबे बालों की। इसलिए इन दिनों मैं कर रहा हूँ अपने बालों से प्रेम। उस घर में खूब रोशनी है। उस घर में अब भी रखी है अच्छी विस्की और अच्छी वोदका। उस गाँव के रास्ते में आता है बिड़ला मंदिर। सफ़ेद संगमरमर के आँगन वाला, पहाड़ी की गोद में बैठा हुआ। चौड़े रास्ते पर गुज़रते हुये मुसाफ़िरों के सलाम का जवाब दिये बिना चुप खड़ा हुआ, मंदिर। मैं वक़्त के अंधे कुएं में गोता लगा कर ढूंढ लाना चाहता हूँ कुछ चीज़ें। कुछ ऐसी चीज़ें जिनका इन सब से कोई वास्ता नहीं है।  उसके बालों में हाथ फेरते हुए लड़की ने कहा आओ, यहाँ धड़कनों के पास तुम यहीं रहते हो, सदियों से। बरसों पुरानी एक गठरी की गिरहों की सलवट से उठती खुशब

सब कुछ उसी के लिए

धरती और स्वर्ग के बीच की जगह में उड़ते हुये गोता लगा कर चिड़िया, बादल से बरसी बूंद को चोंच में भर लेती है। उसी तरह प्रेम, महबूब को बसा लेता है अपने दिल में, और बचा लेता है नष्ट होने से। आह ! कितनी उम्मीदें हैं, एक तुम्हारे नाम से। * * * उसकी डायरी में थी एक मुंह छिपाये हुये निर्वस्त्र नवयौवना चिड़ियाएं नीले सलेटी रंग की और कुछ शब्द। मेरी डायरी में भरी थी, कच्ची शराब। * * * मेरा दिल बना है किसी के लिए मेरे होने के मक़सद है कुछ और शुक्रिया ओ मुहब्बत तुम्हारे दिये इस हाल का। कुछ सज़ाएँ होती है उम्र क़ैद से भी लंबी। * * * उसके होठों पर बचे थे थोड़े से सितारे, थोड़ा रंग गुलाबी। मेरे पास बची है उसकी यही छवि। * * * ज़मीन, पानी, हवा और रोशनी है उनके लिए जो जन्मते और मर जाते हैं। प्रेम के बीज को इनमें से कुछ नहीं चाहिए। * * * लज्जा भरे गुदगुदे गालों पर ज़रा सी हंसी और होठों ने दबा रखी है, बातें सब रात की। सुबह आई है, हैरत के आईने से उतर कर। * * * कोयल भूल गई है लंबा गाना कूकती है जैसे पुकार रही हो तुम्हारा नाम हर सुबह, जो सुबह है तुम्हारे बगैर। * * * झाड़ियों के झुरमुट में सोये परिंदो को जग

मुझे सब मालूम है

Image
मुझे सब मालूम है। इतना कह कर चुप हो जाती है।  मैं कुछ लिखने, कुछ सुनने या ऐसे ही किसी किताब को पढ़ते हुये पूरा दिन घर के ऊपरी माले में बिता देता हूँ। ये महेन का कमरा है। वह आजकल यहाँ नहीं रहता। उसकी पोस्टिंग जयपुर में है। उसकी अनुपस्थिति से घर का हूलिया बिगड़ जाता है। वह जब भी इस घर में होता है, घर भरा पूरा लगता था। मनोज की पुलिस की नौकरी ऐसी है कि हम सब मान चुके हैं कि उसे छुट्टी नहीं मिलेगी। हम कभी सोच नहीं पाते हैं कि बहुत सारे दिन उसके साथ बिता पाएंगे। लेकिन महेन के जाने के बाद से अब केक, कॉफी, चाय, पार्टी, खाना यानि सब कुछ ऐसे होता है जैसे हम अकेले हों। एक माँ, दो हम और दो हमारे बच्चे। चाय का वक़्त हुआ सेल फोन की रिंग बजी, खाने का वक़्त हुआ सेल फोन फिर से बजा। रात के वक़्त देर से छत पर टहल रहा हूँ कि फिर टिंग की आवाज़। सेल फोन की रिंग वही है। मगर एक सेंस है जो पहले से ही बता देता है कि ये उसने आवाज़ दी है। फोन को बाद में देखता हूँ, दिमाग में आभा का नाम पहले चमकने लगता है। वैसे ही जैसे पुराने नोकिया वाले फोन में एक नाचती हुई रोशनी हुआ करती थी। किसी शादी ब्याह में लगे हुये लट्

उधड़ी सिलाई से दिखती ज़िंदगी

Image
कमरे की दीवारों का रंग उड़ गया है। उस कारीगर ने जाने कैसा रंग किया था। उसे खुद इसका कोई नाम मालूम न होगा। ऐसे नामालूम नाम वाले रंग के जैसी एक नामालूम चीज़ है। भारी पत्थर की बनी हुई घोड़े की नाल है। चुपके से सर के ऊपरी हिस्से में सलीके से फिट हो गयी है। जिस तरफ सर को घुमाओं साथ साथ उधर ही घूम जाती है। सिंक्रोंनाईज्ड है। बोझ नहीं है। दिमाग के भीतर के तरल द्रव्य के ऊपर तैर रही है। लगता है कुछ अनचाहा रखा हुआ है। ऐसा पहले नहीं था।  सीना जैसे दुबले जानवर की पीठ है। भूल से इसके भीतर की ओर कोई जीन उल्टी कस दी गयी है। घुड़सवार लौटने का रास्ता भूल गया है। सांस लेना भी एक काम बन कर रह गया है। एक जगह बैठो सांस लो। न बैठ सको तो उठ कर चलो और चलते हुये सांस लो। सांस न लो। ये मुमकिन नहीं है। याद रख कर सांस लेना भूलते ही कोई छटपटाता है। जैसे किसी बासी पानी से भरे हुये अक्वेरियम में कोई मछली ताज़ा सांस की उम्मीद में पानी की सतह को चूमती है और डर कर वापस लौट आती है। वही अपारदर्शी, धुंधला और गंदला पानी जीवन बन जाता है।  मट्ठा में समझते हो। हाँ छाछ। पतला किया हुआ फेट-फ्री दही।  मैं फ्री

रेगिस्तान में आधी रात के बाद

Image
आज की सुबह सोचा है अच्छी विस्की होनी चाहिए। क्योंकि मेरे लिए अच्छे जीवन का मतलब अच्छी विस्की ही होता है। मैं करता हूँ न सब-कुछ। मानी जो इस दुनिया में एक अच्छा पति करता है, पत्नी के लिए। पिता, बच्चों के लिए। बेटा, माँ के लिए। भाई, भाई के लिए। महबूब, महबूब के लिए। ये सब करते जाने में ही सुख है। ज़िंदगी और कुछ करने के लिए नाकाफी है। इसलिए कि मैंने ये चुना है, इसके मानी न जानते हुये चुना है। मगर अब तो फर्ज़ है कि किया जाए। नींद नहीं आ रही इसलिए सोचा कि स्कूल में जो अक्षर लिखने सीखे थे, जिन अक्षरों के लिखने से पिता खुश हुये थे। जिनको देख कर मास्टर साहब के चहरे पर मुस्कान आई थी। जिनको पढ़ कर तुमने महबूब होने में खुशी पायी। उन्हीं अक्षरों से आज खुद के लिए सुकून का लम्हा बुन लूँ, इसलिए लिख रहा हूँ।  रेगिस्तान में आधी रात के बाद जाने क्या क्या आता है याद और फिर इस तरह शुरू करता हूँ समझाना खुद को। कि किसी के हिस्से में नहीं बचती ज़िंदगी इसलिए इस रात का भी ऐसे ही कुंडली मारे हुये, ज़िंदा रह पाना मुमकिन नहीं है और तुम गुज़रते हुये उसके ख़यालों से भले ही सो न सको सुकून की नींद, मगर

शौक़ जीने का है मुझको, मगर...

Image
सुबह ज़रा सी ठंडी थी। रंगों वाला त्योहार निकट आ रहा था। सबसे पहली हलचल रेगिस्तानों इलाकों में ही हुआ करती है। मौसम बदला और दिन में आँधी चलने लगी। रेगिस्तान और धूल भरी आँधी का साथ अटूट है। मैंने पहले माले के कमरे की एक खिड़की बंद करते देखा कि बाहर का दृश्य भी परिवर्तित हो रहा है। सर्द दिनों में ये गलियाँ उन किनारों पर लोगों से भरी रहती हैं, जहां धूप का कोई टुकड़ा आ गिरता हो या कहीं अलाव जल रहा हो। लोग सारे दिन अपने काम करते हुये ऐसी जगहों पर आते जाते रहते हैं। रेगिस्तान का जीवन सुकून का जीवन है। यहाँ आदमी एक संतोष के साथ पैदा होता है। कुदरत ने यहाँ के लिए जो ज़रूरी काम तय किया है वह है पानी का प्रबंध करना। आज़ाद भारत ने इस मामले में आशातीत सफलता अर्जित की है। ये सफलता पीने के पानी की है। खेती के लिए इस तरह की सफलता अभी बहुत दूर है कि हर आदमी को अपनी मांग के अनुरूप खेत जोतने को पानी मिलता रहे। मैं उम्मीद करता हूँ कि अगर आबादी पर कुछ अंकुश लग सका और लोग पढ़ लिख कर ये समझने लगे कि विकास और आबादी का रिश्ता क्या है तो ज़रूर इस देश का भविष्य चमकते हुये सूरज की तरह होगा। गली में लोगों की

प्रेम, हथेली के बीच का फफोला

Image
नरम गुदगुदे बिस्तरों में किसी गरमाहट को बुनते जाने का मौसम रेगिस्तान से विदा हो चुका था। आधी रात को नींद ने सुख के बिस्तर पर आने से मना कर दिया। कभी मैंने रेलगाड़ी के निम्नतम दर्ज़े के डिब्बे में दरवाज़े पर नींद को पाया। रेल के सफ़र में नींद के झौंके आते रहे और मैं अखबार बिछाए हुये न बैठ सकने जितनी जगह पर सो गया था। ज़िंदगी ऐसी ही है। ऐसा ही बर्ताव करती है। मैं उठ कर बैठ गया। आभा ने पूछा क्या हुआ? मैंने कहा कोई बात नहीं है। मैं घर के नीचे वाले तल पर जाकर दवा खाकर आता हूँ। मैं ज़रा सी देर लगा कर आया। रात के इस गरम मौसम में उसे भी नींद कहाँ आनी थी। पहले माले तक आने में शायद वक़्त ज्यादा लगाया इसलिए उसने पूछा बड़ी देर लगाई। मैंने कहा कि अलमारी के सामने खड़ा हुआ, सोचने लगा था। कि मैं खुद को धोखे क्यों देता हूँ। जो मुझे साफ दिखता है, उसके अपनी मर्ज़ी के माने क्यों निकालता हूँ। मैं खुद के लिए बड़ा लापरवाह आदमी हूँ इसलिए परेशान हूँ। उसने कहा- न सोचिए। सो जाईए।  मेरी नींद के बीच एक लहर थी। वह बार बार मुझे रोक रही थी। मैं इस जगत में कुछ ऐसा था जैसे समंदर में उछलती हुई छोटी खाली प्लास

कि जी सकूँ एक मुकम्मल उम्र

Image
रात होते ही हर कहीं अंधेरा उतरता है। मुझे सबसे ज्यादा पहाड़ों पर दिखाई देता है। सहसा खयाल आता है कि सबसे घना अंधेरा वहाँ पर है जहां कुछ दिख नहीं रहा है। पहाड़ तो कितने सुंदर नज़र आ रहे हैं इस रात के आँचल में चुप खड़े हुये। मैंने पालथी लगा कर छत पर बैठे हुये, पहाड़ से पूछा- तुम किस तरह अपने महबूब से प्यार करते हो। तुम अपने प्रेम में अटल खड़े हो या इंतज़ार में। पहाड़ मुझे जवाब नहीं देता है। संभव है कि पहाड़ को इतना स्थिर होने का अभिमान है। मैं उससे मुंह फेर कर टहलने लगता हूँ। अचानक याद आता है कि पहाड़ पर देवताओं के भी घर हैं। उन तक जाने के लिए बने रास्ते पर रोशनी का प्रबंध है। मैं उस रास्ते को देखने के लिए मुड़ता हूँ। ईश्वर, उदास है। चुप बैठा हुआ है पहाड़ की ही तरह एक मूरत बन कर। ऐसे हाल में क्या तो उसको कोई अर्ज़ी दी जाए, क्या उसको बतलाया जाये। मैं उसे उसी के हाल पर छोड़ कर वापस मुड़ जाता हूँ।  ठंडी हवा का एक मासूम झौंका आया और आँखों को कुछ इस तरह छेड़ गया कि वे नम हो गयी। इस नमी में दिखता है कि धरती है, घर है, दीवारें हैं, मुंडेर है, हवा है, आसमान है, और कोई है जो मुझे रुला र

तनहा खड़े पेड़ पर खिली हुई कोंपल.

Image
व्यापार सबसे बड़ी विधा है। इसलिए कि ये हर विधा को अपना हिस्सा बना कर उसका उपयोग कर सकती है। इस तरह की खूबी के कारण इसका आचरण भी स्वछंद हो जाता है। मैंने सुना है कि प्रेम, दया, करुणा और रिश्ते जैसी अनुभूतियों तक में व्यापार का आचरण आ जाता है। मैं एक ऐसी किताब के बारे में बात करना चाहता हूँ। जिस विधा को व्यापार ने निगल लिया है। इस किताब को हाथ में लेने पर मुझे बेहद खुशी हुई और आपका भी हक़ है कि आप इसी खुशी के साझीदार हो सकें और इसे अपना बना सकें। यह किताब इसलिए महत्वपूर्ण और संग्रहणीय है कि इस किताब ने फीचर विधा के खत्म न हो जाने की उद्घोषणा की है।  फीचर उस समाचार को कहते हैं जो तथ्यों के साथ मानवीय अनुभूतियों और संवेदनाओं को प्रभावी ढंग से रेखांकित करे। समाचार की नीरसता में जीवन का रस घोल सके। मैंने सबसे पहले रांगेय राघव के लिखे हुये फीचर पढे थे। उनमें मानव जीवन के दुखों की गहनतम परछाई थी और ये भी था कि जीवन फिर भी वह नदी है जो सूख कर भी नहीं सूखती। इसके बाद मुझे नारायण बारेठ के लिखे हुये फीचर पढ़ने को मिले। वे सब पत्रिका के कोटा संस्करण और कुछ मासिक साप्ताहिक पत्रिकाओं में छपे