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Showing posts from February, 2013

गिर पड़ना किसी पुराने प्यार में

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जब आप वक़्त का टूटा हुआ आईना देखते हैं तब पाते हैं कि आपके माथे की सलवटों में तकलीफ़ों के निशान कम और उन नेक इन्सानों के नाम की लकीरें ज्यादा है। वे इंसान जो आपको बचा कर ज़िंदगी के इस मुकाम तक लाये हैं। मगर मुहब्बत और ऐसी ही दूसरी बरबादियों की लकीरों के पार जाकर वे नाम पढ़ने के लिए चाहिए एक उम्मीद की रोशनी। वे मजे मजे के सात आठ दिन गुच्छे में बंधे हुये फूल गुलाब के किसी फोन के बहाने बार बार, सूरत चुपके से देख लेना चाँद की। सुबह नंगे पाँव फर्श पर चलते हुये सुनना रात की चादर में गुम, सब लड़ाइयाँ कि फिर से गिर पड़ना किसी पुराने प्यार में। * * * ये दुनिया इसीलिए इतनी सुंदर है कि इसके भीतर छिपे रहस्यों को आप कभी जान नहीं पाते हैं। मनुष्य का मन राख़ के नीचे छिपा हुआ अघोरी का बदन है जादू और भय से भरा हुआ। * * * प्रेम डरता रहता है, एक रात की सुकून भरी नींद से और सुबह आती है किसी खोये हुये ज़माने की चादर के नीचे से निकल कर अजनबी की तरह। मगर हम करते जाते हैं, प्रेम। * * * वह इतना स्ट्रेट फारवर्ड था कि उसके तरीकों से क्रूरता की बू आती हालांकि उसने सिर्फ ये तय कर

मेरे पतन के कारण

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ऐसा भी कहीं होता है कि जो खिलता हो उसका बीज न हो। इसलिए प्रेम और दुख के भी बीज होते हैं। उनको भी चाहिए होता होगा कोई मौसम अपने रूपायन के लिए। मैंने एक ग्रीन हाउस बना रखा है। इसमें फूल रही पौध को लेकर संशय है कि बोता तो मैं प्रेम हूँ मगर उगता सिर्फ दुख ही है। इस पैदावार के सिलसिले को, इस काम को कुछ मुल्तवी किया जाने का सोचा है। इस फसल के ये कुछ ताज़ा फूल हैं। मैंने कहा कि हम दो अलग अलग ही दिखते हैं सुंदर कि दो सुंदर रंग मिल कर बन जाते हैं एक काला रंग। मैंने सोचा कि उसने जवाब में कहा है मैं बसा लूँगी इस रंग को अपनी आँखों में मगर तब तक बावर्ची समेट लेता खाना दोपहर का इसलिए वह चली गयी बिना कुछ कहे। * * * फासला था बहुत और लोग भी कहते जाने क्या क्या इसलिए उसने कहा कि आदमी का सबसे अच्छा आविष्कार है, डिवाइडर तुम उस तरफ चलो, मैं इस तरफ चलूँगी। * * * उसने कहा कि प्रेम रूह से होता है इसी बात के जवाब में मैंने नहीं दिया सिर्फ एक मेसेज का जवाब वो शायद रो पड़ी, न जाओ छोड़ कर। मैंने सोचा कि कहाँ गए कृष्ण, राधा क्या हुई मगर उसे न होगी कभी खबर मेरी तड़प की। * * * उसके प

बरबादी का भागीदार

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मेरी पास पुख्ता वजह है सिर्फ अपने आप से नाराज हो जाने की मगर मुझे अब तक सिखाया यही गया है कि मिल जुल कर करने से काम आसान और बोझ हल्का हो जाता है। इसलिए कुछ नाराजगी थोप देता हूँ तुम्हारे ऊपर, कुछ तुमको भी बना लेता हूँ मेरी इस बरबादी का भागीदार।  मैं एक गुपचुप डायरी लिखता हूँ ईश्वर का नाम लेकर ताकि लिख सकूँ, सही सही ब्योरे। उस डायरी में लिखता हूँ कि आंसुओं की भी बन सके बेड़ी तुम भी गिर पड़ो मुंह के बल कभी, मेरी ही तरह। कहो, आमीन। * * * एक दिन आप रो रहे हों महबूब के घर की खिड़की के सहारे बैठे हुये और अंडे को फ्राई करते हुये आपका महबूब सोचे कि ये किसी मुर्गे के रोने की आवाज़ है। कि अक्सर इसी तरह की बेखयाली के साथ मेरे महबूब, तुमने भी किया है प्यार मुझसे। * * * मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया जीवन में जिसे मैं बता सकूँ अपने बच्चों को। तुम्हारे बारे में बताना नहीं चाहता हूँ कुछ भी। * * * न्याय के लिए कटघरे में खड़े हुये कितना असहाय हूँ मैं कि जो भी बातें मालूम हैं मुझे, सिर्फ तुम्हारा बचाव करती हैं। * * * ये सिर्फ उसी आदमी का काम न था मेरी भी कुछ रज़ा थी शामिल, अपनी इस बरबादी में। * * * कई

किसी ओलिया की दुआ

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भौतिक दुनिया की जगह हम ख़यालों में ही बना लेते हैं ,अपने महबूब के साथ एक घर। उस घर में टांग लेते हैं चुप्पी के पर्दे और एक समानान्तर लोक में जीते जाते हैं। मन के भीतर के दरवाज़े के उस तरफ खुलने वाले घर का इस दुनिया में कोई निशान नहीं मिलता... मगर होता है आलसी सा एक प्रेम का बिरवा, न खिलता है न मुरझाता... प्रेम एक सबसे बड़ी दुविधा है। खत जो लिखो महबूब को तो क्या लिखो उसमें? खुशी की कैंची से कर रहा हूँ कतरने सुंदर सुबह की तुम्हारे नाम के सब अक्षर रख रहा हूँ दिल की टोकरी में। * * * श्याम परिंदे का, पर टूट गिरे उजली सी कोई बूंद छू जाए उसे मुझे रंगों के कंट्रास से सम्मोहन है और छूना है तुम्हारे गालों को किसी नाजुकी से। कुछ न हो तो मुस्कुरा ही दो, कि सुबह खिली है। * * * क्या तुमने इस सुबह का चेहरा देखा है क्या तुम भी पड़ गए हो मेरी ही तरह इसके प्यार में। कितने तो लोग प्यार से बुलाते हैं तुमको कितने ही नाम से क्या मैं भी रख दूँ तुम्हारा नाम इस सुबह की शक्ल से मिलता जुलता। * * * रात उसने सीने से लग जाने दिया होगा किसी ओलिया की दी हुई दुआ को सुबह जागती होगी उसकी

तुमको ही बना लेता हूँ शराब

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कल की रात से पहले की रात मुझे ये बताने आई थी कि तनहाई के उतरने से पहले मन के आँगन में उतरती है स्मृतियों की अनगिनत पंखुड़ियाँ... [1] वो जो ज़रा मुड़ा हुआ सा डंठल है हिस्सा है, मेरे ताज का। हाँ मैं बेंगन हूँ उसके प्यार में डोलता, हर दिशा में। * * * [2] नायक को सुनाई दिये कई सारे शब्द समूह उसने क्रिया, प्रतिक्रिया और परिणाम तक बनाए रखी अपनी मुख मुद्राएं यथोचित। मैं पड़ गया तुम्हारे प्यार में और भूल गया सब कुछ। * * * [3] हमने खुद को तैयार किया सबसे बुरे हालत के लिए और प्यार को रख लिया किसी ढाल की तरह। जब तक गिरती रही बारिश की बूंदें ढाल पर मुसलसल आती रही प्रेम गीत की आवाज़। * * * [4] अगर सिर्फ अच्छे ही होते लोग दुआओं के सहारे ही चल रहा होता निज़ाम तो हमको तनहाई के सलीब पर कोई लटकाता किसलिए। * * * [5] क्या फर्क पड़ता है इस बात से कि उस देश का नाम क्या है? हम जहां कहीं होते, कर ही रहे होते प्रेम। * * * [6] खूब सारे प्रेम के लिए चाहिए एक अदृश्य तार जिस पर लटका रहे यकीन। नफरत का बुत तो ज्यादा देर खड़ा नहीं रह सकता, सच की ज़मीन पर भी। * * *

किताबें कुछ कहना चाहती हैं।

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सुबह के ग्यारह बज चुके थे। प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन के गेट नंबर तीन से बाहर निकलते ही पाया कि एक लंबी कतार पुस्तक मेले में प्रवेश के लिए प्रतीक्षारत है। मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियाँ उतरने से पहले दिखने वाला ये बेजोड़ नज़ारा पुस्तकों से प्रेम की खुशनुमा तस्वीर था। मैंने ग्रीन पार्क से मेट्रो पकड़ी थी। कनाट प्लेस, जिसे राजीव चौक कहा जाता पर बदल कर प्रगति मैदान आया था। नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया द्वारा हर दो साल में आयोजित होने वला विश्व पुस्तक मेला इस साल से हर साल आयोजित हुआ करेगा। इस छोटी होती जा रही ज़िंदगी में दो साल इंतज़ार करना किसी भी पुस्तक प्रेमी के लिए एक बहुत बड़ी परीक्षा जैसा होता होगा। कई सारी कतारों में खड़े हुये अंदर जाने के लिए टिकट पा लेने का इंतज़ार करते हुये लोग, पढे लिखे संसार का रूपक थे। वे अपने परिवार के सदस्यों और मित्रों के साथ आए थे। मौसम ज़रा सा ठंडा था लेकिन घर पहुँचने में दे हो जाने की आशंका के खयाल से सबने स्वेटर और जेकेट पहने हुये थे। वह रंग बिरंगा संसार हर उम्र के लोगों से बना हुआ था। मैंने चाहा कि मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियाँ उतरने से पहले इस दृश्य को खूब

धूप के बियाबाँ का दरवाज़ा

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सुबह के पाँच बजे हैं। किसी करवट में टूट गयी नींद की कोमल पंखुड़ी। किसी झौंके ने छू लिया बदन। बंद घरों में रास्ते नहीं होते इसलिए कोई गुज़रा होगा, दिल या दिमाग के रास्ते। सहूलियत के प्लास्टर से नहीं चढ़ता प्रेम पर कोई कवच। वह सदा के लिए अनछुआ है, अचरज से भरा और व्याकुल... जी चाहता है आपको एक प्रेम कहानी सुनाऊँ . मगर जाने देता हूँ कि उसके बारे में फिर जाने क्या क्या कहना होगा। * * * मिलना इक बार ज़रूरी है कि तन्हा हो सकूँ। सोचूँ तेरे आने का क्या, जाने को तेरे क्या कहूँ। * * * वहाँ सब तरफ थीं दरारें कुछ जाहिर, कुछ जाहिर होने से ज्यादा गहरी पसरी हुई थी चुप्पी, कोई इक खूबसूरती से जाने कैसे चटक रहा था। इस ठहरे हुये से मौसम में मैं खुद को देखता हूँ, मैं खुद को सोचता हूँ। * * * स्मृतियों का महीना धूप के बियाबाँ का दरवाज़ा खुलने से पहले के दिन। * * * कुहासे में स्वरों का वृंद जीवन यात्रा का सम्मोहन। रेगिस्तान की शीत भरी सुबह में एक परिंदा चुप। भोर, अलसाई हुई, वलय निद्रा का। तुम कहीं नहीं, तुम ही हर कहीं। * * * मुझे नहीं मालूम, उस बियाबाँ में कैसा

और दर्द है जैसे...

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मौसम की नई कोंपलें फूटती रहती हैं और मैं नए दिनों को उदासी की तह देता जाता हूँ। खुशी की वजहों के दिन दोहराए नहीं जा सकते हैं। वे दिन अपने अनूठेपन के साथ कुछ इस तरह आते हैं कि उनकी नकल कहीं नहीं मिलती। वे जाते भी इस तरह हैं जैसे बहुत देर से अटका हुआ कोई सिंदूरी रंग अचानक से टूट कर गिर गया हो पहाड़ के पीछे। किसी ने कहा कि तुम ज़िंदगी लेकर आए हो। मुझे लगा कि यही सबसे झूठी बात है कि मैं अपनी समझ से कुछ लेकर आता तो क्या एसी चीज़ लाता? मुझे इतना मालूम होता कि ज़िंदगी में इस तरह का कारोबार है तो कौन आता इस दरवाज़े? मैं फिर अपनी छत पर उतर रहे अंधेरे और उजाले के खेल को देखता हुआ सोचता हूँ कि चल फिर मुकम्मल हुआ एक दिवस। एक और दिन न जीने की तोहमत से बचे।  एक दिन अचानक से मैंने अपनी हथेली को देखा। उसमें कुछ नहीं था। एक दिन स्टुडियो में किसी आरजे ने एक मेहमान विदुषी से कहा- "मेम मेरा हाथ भी देखिये" उन्होने उस नवयुवती का हाथ अपने हाथ में लेते हुये कहा- "इन हाथों से जैसा काम करोगे, भाग्य वैसा ही हो जाएगा" मैंने इस याद की रोशनी में पाया कि मैं उसी से घिरा हुआ हूँ जिसे जीन

उस आखिरी घड़ी में

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उस पार घना अंधेरा, उजाला इधर भी नहीं कि कहीं जाना भी नहीं है और मुझे यहाँ रहना भी नहीं है। रोना नहीं है और रोये बिना जीने की सूरत भी नहीं। बोल पड़ूँ तो सुकून आए शायद मगर बात जो कहनी होगी उसे कहना भी नहीं है। यूं तो ज़ब्त करके मैं हंस भी लूँ मगर यूं सोच-सोच कर कुछ करना भी नहीं है।  उस खाली खाली से मंज़र में कुछ घड़ी बाद बिछड़ ही जाना था और जीना था कई साल तक मरने की उम्मीद के बिना। सड़क चलती ही नहीं थी, लोग रुकते ही न थे। सांझ मुरझाई जाती थी, कदम टूटे जाते थे। एक मैं था, बिखरी बिखरी सी आती आखिरी सांस की तरह चलता हुआ। क्या सबब कि इस तरह मिला करे कोई, छोड़ जाए तन्हा, धूल भरे रस्तों में।  खिड़की से बाहर देखूँ तो डर लगता है, कमरे के भीतर एक दोशीजा उदासी है। पगलाया हुआ दरवाज़े से बाहर आता हूँ, फरवरी का महीना है और आसमान पर फिर बादलों का फेरा है। दीवार का सहारा लिए खड़े जाल के पेड़ पर बैठी चिड़िया किसी जल्दी में है शायद और मेरे पास कोई काम ही नहीं है।  सीने के तलघर में उतर आई है एक भारी सी चीज़। रह रह कर मुझे उकसाती है कि दौड़ने लगूँ। रेगिस्तान में प्यासे हिरण की तरह टूट जाए