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Showing posts from December, 2013

तुम जो बिछड़े भी तो खुशी है

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इस लेख को कहीं भी  प्रकाशित किये जाने की  अनुमति नहीं है.  ये मेरे जीवन का निज हिस्सा  और अपनी सोच का अक्स है. हम अगर कर पाते संभावित दुखों की मामूली सी कल्पना तो जान जाते कि ज़िंदगी का शुक्रिया अदा करने की वजहें बहुत सारी हैं. इस साल के बीतने में एक दिन बाकी है. साइबेरिया से उड़े पंछी रेगिस्तान की ओर आने के रास्ते में हैं. इधर मगर ठण्ड बढती जा रही है. मैं और ज्यादा बर्फ हुआ जाता हूँ कि दिल्ली जो मेरे देश की राजधानी है, वह एक डरावनी बहस में घिरी है. दो प्रमुख दल एक बात बड़े विश्वास से कह रहे हैं कि सस्ती बिजली और ज़रूरत का पानी उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है. मैं घबराया हुआ हूँ कि ‘ख़म ठोक ठेलता है जब नर, पत्थर के जाते पाँव उखड़’ वाली जिजीविषा वाले मनुष्य ने अपने हौसले को खो दिया है. या फिर ये आदमी के खिलाफ आदमी की ही साजिश है. दोनों में से जो भी सत्य है वह नाउम्मीदी से भरा है. रामधारी सिंह दिनकर और रश्मिरथी, डूबते साल में हतप्रभ हों शायद. लेकिन ऐसा नहीं है. हम अक्सर अच्छी बातों को भूल जाते हैं और दुखों के सांप गले में लपेटे हुए, ज़हर पिए शिव बने रहने को याद रखते हैं. मैं रात

कोई चरवाहा भी न रखे

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लोग पड़े हैं जाने कहाँ और जाने कहा अपने दिलों को छोड़ आये हैं. समझते हैं खुद को दिल के बादशाह और सोचो तो ऐसे लोगों को कोई चरवाहा भी न रखे. * * * अनजाने अँधेरे की गिरहों से बेढब, बेहोशियारी की बातें करके रात कहीं चली गयी है. पुल नीचे, एक पिलर के पास उसका बोरिया समेट कर रखा हुआ है. पुरानी ज़िंदगी की कलाई में फिर एक नया दिन है, रात की तलाश में निकला हुआ. * * * जिनको जीवन ने अस्वीकार कर दिया था हमारे हाथ के उन चार दानों को मृत्यु कैसे स्वीकार कर सकती है. इसलिए तुम दुनिया में कहीं भी रहो, मैं तुम्हारे पीछे हूँ. * * * पहाड़ो में रहने वाले चूहों से अलग हैं रेतीले मैदानो के चूहे, बाज़ की चोंच मगर असफल है उनके स्वाद को अलग अलग परख पाने में. मैं कैसे भी भूगोल पर चला जाऊं एक याद बीनने लगती है, मेरा रेशा रेशा. * * * कुछ दिन पहले उन्होंने ईश्वर के बारे में कुछ पता करने को सदी का भयानकतम प्रयोग किया था. कुछ दिन बाद एक नन्हीं लड़की रेल में सफ़र कर रही थी. कुछ दिन बाद नहीं, ठीक उसी दिन कवि ने कविता लिखी. * * * धूप ने दीवारों को साये खिड़कियों को रौशनी के फाहे बख्शे हैं. हवा में बर्फ की खु

करमण री गत न्यारी

अ क्ल केह मैं सबसूं बड़ी, बीच कचेड़ी लड़ती दौलत केह मैं सबसूं बड़ी, मेरे हर कोई पाणी भरती सूरत केह मैं सबसूं बड़ी, मेरे हर कोई जारत करते तकदीर केह तुम तीनों झूठे, मैं चावूँ ज्यों करती. ऊदा भाई करमण री गत न्यारी टर सके नहीं टारी आछी पांख बुगले को दीनी, कोयल कर दीनी काली बुगलो जात बाभण को बेटो, कोयल जात सुनारी छोटा नैण हाथी ने दीना, भूप करे असवारी मोटा नैण मृग को दीना, भटकत फिरे भिखायारी नागर बेल निर्फल भयी, तुम्बा पसरिया भारी चुतर नार पुत्र को झुरके, फूहड़ जिण जिण हारी अबूझ राजा राज करे, रैय्यत फिरे दुखियारी कहे आशा भारती दो दरसण गिरधारी. मैं लंबे समय से इस प्रतीक्षा में था कि गफ़ूर खां मांगणियार और साथियों की आवाज़ों में इस रचना को रिकार्ड किया जा सके. अभी एक खुशखबरी मिली कि इन बेहतरीन गायकों को आकाशवाणी ने ए ग्रेड के कलाकारों में शामिल कर लिया है. इस ऑडिशन के लिए भेजी जाने वाली रिकार्डिंग करके भेजते समय मैंने चाहा कि बीस सालों की सबसे बेहतरीन रिकार्डिंग हो सके. उस रिकार्डिंग से कोई रचना कभी ज़रूर आपसे बांटना चाहूँगा मगर फ़िलहाल इसे सुनिए. अक्ल कहती है मैं कचहरी में खड़ी

मंडेला मंडेला

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नौजवान दिनों के दो ही क्रश यानि पहले सम्मोहन हुआ करते हैं, प्रेम और क्रांति. मैं जिस साल कॉलेज से पास आउट होने वाला था उसी साल यानि उन्नीस सौ नब्बे में अफ़्रीकी जन नेता नेल्सन मंडेला को सत्ताईस साल की लंबी क़ैद से मुक्त किया गया था. नए साल के फरवरी महीने की ग्यारह तारीख को दुनिया का ये दूसरा गाँधी विश्व को अपने नेतृत्व और अकूत धैर्य के जादू में बाँध चुका था. दुनिया भर में नेल्सन मंडेला की रिहाई के जश्न मनाये गए थे. बहत्तर साल की उम्र के इस जननायक को बाईस साल के नौजवानों ने अपने दिल में बसा रखा था. हर कहीं अखबारों, रेडियो और टीवी पर इसी महान शख्स के चर्चे होने लगे थे. मंडेला के साथ होना एक ऐसी क्रांति का प्रतीक था जो श्वेतों के विरुद्ध रक्तहीन क्रांति थी. हालाँकि इस क्रांति की नींव में रंगभेद का शिकार हुए अनगिनत काले लोगों की लहुलुहान आत्माएं थीं. हम उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ से सभी मंज़िलें फतह कर लिया जाना चुटकी भर का काम था. देश में राजनितिक बदलाव की सुगबुगाहट थी लेकिन असल में हर युवा एक ऐसी क्रांति की उम्मीद करता था जो देश की व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तनकारी सिद्ध हो सके. नौकरशाह

साजन गुडी उडावता

रात को आती है आवाज़ खाली कांच के प्यालों की मगर बिल्ली शराब नहीं पीती. गाय मुतमईन है शहर में प्लास्टिक में बचा कुछ भी खाते हुए उसे क्या गरज होगी ढोल बजाने की मगर आती है लोहे चद्दरों से किसी के टकराने की आवाज़. बूढ़े खुजियाये कुत्ते ने कर ली आत्माओं के रंग और लक्षणों से मित्रता, रोना बंद है उसका इन दिनों मगर मैं जाग उठता हूँ बार बार अचानक. कि आवाजें ज़बरन बुनती है भय के बारीक रेशे. नीम नींद में उठकर बीवी भी बदल लेती है कमरा किसी अच्छी गहरी नींद की तलाश में. सुबह के साढ़े तीन बजे दर्द के बेहिसाब बेशक्ल लिबास में सही जगह की तलाश भटक जाती है अपनी राह से और कोई कारण नहीं मिलता कि दर्द कहाँ और किस वजह से है. सुबह जो लड़का पतंग उड़ा रहा था उसके मांझे पर क्या बारीक कांच पिसा हुआ होगा? क्या अंगुलियां गरम दिनों के आते आते कट न जायेगी कई जगहों से. ऐसे ही खुद को बचाने के लिए हम छिलते जाते हैं. हम खुद खरोंच से कहते हैं आ लग जा मेरे सीने से कर्क रेखा की तरह. ज़िंदगी के मानचित्र पर कुछ जो रेखाओं सा दीखता है वह वास्तव में कट जाने के निशान हैं. हम काफी उम्रदराज़ हो चुके हैं. आ मेरी बाहों में मगर बता क

ज़िन्दगी रात थी, रात काली रही

लोकतन्त्र और चुनावों के बारे में एक प्रसिद्द उक्ति है कि चुनावों से अगर कुछ बदला जा सकता तो इनको कभी का अवैधानिक क़रार दे दिया जाता. इसे याद करते हुए हमें लगता है कि दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देश निश्चित अविधि के बाद नयी सरकारें चुनते हैं किन्तु वे जिस उद्धेश्य और सोच से प्रेरित होकर वोट करते हैं वह कभी पूरा नहीं हो पाता है. हम ख़ुशी से भरे होते हैं कि इस बार ज़रूर कुछ बदलने वाला है लेकिन सिर्फ चहरे और नाम बदल जाते हैं. व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आता. आम आदमी के जीवन को आसान करने वाले काम की जगह नया शासन उसी ढर्रे पर चलता रहता है. इस सदी का सबसे बड़ा रोग भ्रष्टाचार है. ये रोग हर बार नए या फिर से चुनकर आने वालों का प्रिय काम बन कर रह जाता है. वे ही लोग जो कल तक इस बीमारी के कारण हुए राष्ट्र के असीमित नुकसान का हल्ला मचाते हुए नए अच्छे शासन के लिए बदलाव की मांग करते हैं इसी में रम जाते हैं. आप अगर कुछ नेताओं के जवानी के दिनों की माली हालत को याद कर सकें तो एक बार ज़रूर करके देखिये. ऐसा करते हुए आप असीम आश्चर्य से भर जायेंगे. ये अचरज इसलिए होगा कि ऐसे अनेक नेता पक्ष और विपक्ष में बराबरी से