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Showing posts from October, 2013

दिल के कबाड़खाने में

जोधपुर रेलवे स्टेशन से सोजती गेट और वहां कुंज बिहारी मंदिर की ओर के संकरे रास्ते पर नगर निगम के ट्रेक्टर अपनी हैसियत से ज्यादा की सड़क को घेर कर खड़े होंगे. नालियों से बाहर सड़क पर बह रहे पानी से बचते हुए दोनों तरफ की दुकानों पर हलकी निगाह डालते हुए चलिए. एक किलोमीटर चलते हुए जब भी थोड़ी चौड़ी सड़क आये तो उसे तम्बाकू बाज़ार की गली समझ कर दायीं तरफ मुड़ जाइए. ऐसा लगेगा कि अब तक ऊपर चढ़ रहे थे और अचानक नीचे उतरने लगे हैं. कुछ ऐसी ही ढलवां पहाड़ी ज़मीन पर पुराना जोधपुर बसा हुआ है. तम्बाकू बाज़ार एक भद्र नाम है. घास मंडी से अच्छा. गिरदीकोट के आगे बायीं तरफ खड़े हुए तांगे वाले घोड़ो की घास से इस नाम का कोई वास्ता नहीं है. ये उस बदनाम गली या मोहल्ले का नाम है जहाँ नगर की गणिकाएँ झरोखों से झांकती हुई बड़ी हसरत से इंतज़ार किया करती थीं. त्रिपोलिया चौराहे को घंटाघर या सरदार मार्केट को जोड़ने वाली सड़क तम्बाकू बाज़ार है. नयी सड़क और त्रिपोलिया बाज़ार के बीच की कुछ गलियां घासमंडी कहलाती रही है. घासमंडी और तम्बाकू बाज़ार के बीच एक सड़क का फासला है जिसको 'सिरे बाज़ार' कहा जाता है. ऐसी ही ढलवां, संकड़ी और टेढ़ी म

वो दुनिया मोरे बाबुल का घर

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ज़माना बदल गया है. जिंदा होने का यही सबसे बड़ा सबूत है. किताबें भी बदल गयी हैं. आजकल बहुत कम लोग अपने थैले में किताबें लेकर चले हुए मिलते हैं. कई बार मुझे ये लगता है कि किताबों से हट कर कुछ लोग अपने मोबाईल में खो गए हैं. जैसे मोहल्ले भर की हथाई को सास-बहू के सीरियल चट कर गए हैं. अब हथाई पर आने वाली गृहणी सिर्फ सास बहू सीरियल का संवाद लेकर ही हाजिर हो सकती है. जैसे पहले के ज़माने में किसी का अनपढ़ रह जाना कमतरी या बड़ा दोष गिना जाता था. उसी तरह आजकल हर जगह की हथाई में हाजिर गृहणी के लिए सास बहू सीरियल का ज्ञान और ताज़ा अपडेट न होना कमतरी है. उसकी जाहिली है. इसी तरह का कानून सोशल साइट्स पर भी लागू होता है. अगर किसी के पास फेसबुक, ब्लॉग या ट्विटर जैसा औजार नहीं है तो वे कमतर हैं. लेकिन कुछ चीज़ें कभी भी अपना रस और आनंद नहीं छोड़ती. वे सुस्त या खोयी हुई सी जान पड़ती है मगर उनका रस कायम रहता है. चौबीस अक्टूबर का दिन और दिनों के जैसा ही होता होगा मगर कुछ तारीखें कुछ लोगों की याद ज़रूर दिलाती है. जैसे उर्दू की फेमस अफसानानिगार इस्मत चुग़ताई का इसी दिन गुज़र जाना. ये पिछली सदी के साल इकानवे की बात है जब

ये धुंआ सा कहाँ से उठता है.

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जीवन सरल होता है. वास्तव में जीवन परिभाषाओं से परे अर्थों से आगे सर्वकालिक रहस्य है. युगों युगों से इसे समझने की प्रक्रिया जारी है. हम ये ज़रूर जानते हैं कि हर प्राणी सरलता से जीवन यापन करना चाहता है. मैं एक किताब पढते हुए देखता हूँ कि कमरे की दीवार पर छिपकली और एक कीड़े के बीच की दूरी में भूख और जीवन रक्षा के अनेक प्रयास समाये हुए हैं. जिसे हम खाद्य चक्र कहते हैं वह वास्तव में जीवन के बचने की जुगत भर है. एक बच जाना चाहता है ताकि जी सके दूसरा उसे मारकर अपनी भूख मिटा लेना चाहता है ताकि वह भी जी सके. जीवन और मृत्य की वास्तविक परिभाषा क्या हुई? कैसे एक जीवन के मृत्यु के प्राप्त होने से दूसरे को जीवन मिला. इस जगत के प्राणियों का ये जीवन क्रम इसी तरह चलता हुआ विकासवाद के सिद्धांत का पोषण करता रहा है. विज्ञानं कहता है कि हर एक जींस अपने आपको बचाए रखने के लिए समय के साथ कुछ परिवर्तन करता जाता है. कुछ पौधों के ज़हरीले डंक विकसित हो जाने को भी इसी दृष्टि से देखा जा रहा है. ऐसे ही अनेक परिवर्तन जीवों में चिन्हित किये गए हैं और उन पर वैज्ञानिक सहमती बनी हुई है. क्या एक दिन कीड़ा अपने शरीर पर ज़

साये, उसके बदन की ओट किये हुए

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लड़की एक अरसे से जो जी रही है, उसे नहीं लिखती वजह कुछ भी नहीं है. लड़का एक अरसे से जो नहीं जी रहा है, उसे लिखता है वजह कुछ भी नहीं है. हो सकता है ये दोनों बातें उलट ही हों. मगर ये सच है कि हर एक कंधा गुज़रता है धूप की चादर से साये उसके बदन की ओट किये चलते हैं. * * * कोई फिक्रमंद होगा सुबह के वक्त की पहली करवट पर की होगी उसने कोई याद. बुदबुदाया होगा आधी नींद में कि जिसको धूप की तलब है उसी बिछौने उतरे आंच ज़िंदगी की अहिस्ता. जो पड़े हुए हैं रेत की दुनिया में उन पर बादलों की मेहर करना. हिचकियाँ बेवक़्त आती हैं अक्सर, उलझी उलझी. * * * जिस जगह अचानक छा जाता है खालीपन हरी भरी बेलों के झुरमुट तले चमकती हो उदासी. जहाँ अचानक लगे कि बढ़ गयी है तन्हाई बाद इसके कि बरसों से जी रहे थे तनहा तुम समझना कि कुछ था हमारे प्रेम में और टूट गया. मैंने सलाहों और वजीफों से इतर एक दुनिया सोची है जहाँ जी लेने के लिए एक अदद जिंदगी भर की ज़रूरत होती है वहाँ प्रेम हो सके तो समझना कि जो टूटा वह एक धोखा था. उसका नाम कुछ भी लो तुम मगर असल सवाल होता है कि क्या तुमको सचमुच इल्म है मैंने किस तरह चाहा है तुम्हें.

फ्रोजन मोमेंट

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फो टो के निगेटिव जैसे फिल्म के सबसे छोटे फ्रेम में जादू के संसार की एक स्थिर छवि कायम रहती थी। गली में अंधेरा उतरता तो उसे लेंपपोस्ट की रोशनी में देखा जा सकता था और दिन की रोशनी में किसी भी तरफ से कि नायक नायिका हर वक़्त खड़े रहते थे उसी मुद्रा में। ये फ्रोजन मोमेंट बेशकीमती ख़जाना था। बस्ते में रखी हुई न जाँचे जाने वाली कॉपी में से सिर्फ खास वक़्त पर बाहर आता था। जब न माड़साब हो न कोई मेडम, न स्कूल लगी हो न हो छुट्टी और न जिंदगी हो न मृत्यु। सब कुछ होगया हो इस लोक से परे। रास्ते की धूल से दो इंच ऊपर चलते हुये। पेड़ों की शाखाओं में फंसे बीते गरम दिनों के पतंगों के बचे हुये रंगों के बीच एक आसमान का नीला टुकड़ा साथ चलता था। इसलिए कि ज़िंदगी हसरतों और उम्मीदों का फोटो कॉपीयर है। बंद पल्ले के नीचे से एक रोशनी गुज़रती और फिर से नयी प्रतिलिपि तैयार हो जाती। रात के अंधेरे में भी नायक और नायिका उसी हाल में खड़े रहते। ओढ़ी हुई चद्दर के अंदर आती हल्की रोशनी में वह फ्रेम दिखता नहीं मगर दिल में उसकी एक प्रतिलिपि रहती। वह अपने आप चमकने लगती थी। बड़े होने पर लोग ऐसे ही किसी फ्रेम में खुद कूद पड़ते हैं।

ज़ाहिदों को किसी का खौफ़ नहीं

पिछले कुछ दिनों से बादलों की शक्ल में फरिश्ते रेगिस्तान पर मेहरबान हो गए थे। उन्होने आसमान में अपना कारोबार जमाया और सूखी प्यासी रेत के दामन को भिगोने लगे। हम सदियों से प्यासे हैं। हमारी रगों में प्यास दौड़ती है। हमने पानी की एक एक बूंद को बचाने के लिए अनेक जतन किए है। हमारे पुरखे छप्पन तौला स्नान करते आए हैं। छप्पन तौला सोना होना अब बड़ी बात नहीं रही। लेकिन छप्पन तौला पानी से  रेगिस्तान के एक लंबे चौड़े आदमी का नहा लेना, कला का श्रेष्ठ रूप ही है। वे लोग इतने से पानी को कटोरी में रखते और बेहद मुलायम सूती कपड़े को उसमें भिगोते। उस भीगे हुये कपड़े से बदन को पौंछ कर नहाना पानी के प्रति बेहिसाब सम्मान और पानी की बेहिसाब कमी का रूपक है।    बादल लगातार बरसते जाते हैं और मैं सोचता हूँ कि काश कोई धूप का टुकड़ा दिखाई दे। मेरी ये ख़्वाहिश चार दिन बाद जाकर पूरी होती है। चार दिन बरसते हुये पानी की रिमझिम का तराना चलता रहा। इससे पानी के प्यासे लोग डर गए। उनका जीना मुहाल हो गया। गांवों में मिट्टी के बने कच्चे घर हैं। उनमें सीलन बैठती जा रही थी। कुछ क़स्बों में हवेलियाँ हैं। पुराने वक़्त की निशानियाँ। स