कमर पर बंधी है कारतूसपेटी

दो कवितायें -
तुम्हारी याद की
जबकि तुम इतनी ही दूर हो कि हाथ बढ़ा कर छू लूँ तुम्हें।
















तुम्हारे जाने का वक़्त था
या फसाने की उम्र इतनी ही थी
कि बाद तब से अंधेरा है।

वक़्त की
जिस दीवार के साये में
सर झुकाये चल रहा हूँ,
वो दीवार दूर तक फैली है।

धूप नहीं, याद नहीं,
और ज़िंदगी कुछ नहीं
कि आवाज़
जो लांघ सकती है दीवारें
वह भी गायब है।

कमर पर बंधी है कारतूसपेटी
हर खाने में एक तेरा नाम रखा है।

इस तंग हाल में
बढ्ने देता हूँ
उदासी के भेड़ियों को करीब
जाने कौनसा कारतूस आखिरी निकले।

काश एक तेरा नाम हुआ होता बेहिसाब
और एक मौत का कोई तय वक़्त होता। 
* * *


अश्वमेध यज्ञ के 
घोड़े की तरह मन
निषिद्ध फ़ासलों पर लिखता है, जीत।

आखिर कोई अपना ही
उसे टांग देता हैं हवा के बीच कहीं
जैसे कोई जादूगर
हवा में लटका देता है
एक सम्मोहित लड़की को।

हमें यकीन नहीं होता
कि हवा में तैर रही है एक लड़की
मगर हम मान लेते हैं।

इसी तरह
ये सोचना मुमकिन नहीं
कि तुम इस तरह ठुकरा दोगे,
फिर भी है तो...

शाम उतर रही है
रात की सीढ़ियों से उदास
और मेरी याद में समाये हो तुम।

[Painting Courtesy : Pawel Kuczynski]