रेगिस्तान का आसमान अक्सर



रेगिस्तान के बीच
एक पथरीले बंजर टुकड़े पर
कई लोगों को कल देखा था, मैंने।

कोलाहल के अप्रिय रेशे
छू न सके मेरे कानों को
कि कुछ इस तरह भरी भीड़ में
तेरी याद को ओढ़ रखा था, मैंने।

कितने ही रंग की झंडियाँ
लहराती थी हवा में मगर
मैंने देखा कि तुम बैठे हो
वही कुर्ता पहने
कल जो तुमने खरीदा था
याद आया कि कपड़ों की उस दुकान में
जाने कितने ही रंगों को चखा था हमने।

सुगन चिड़ी बैठी थी
जिस तार पर
वहीं मैं टाँगता रहा
कुछ बीती हुई बातें
कोई भटकी हुई बदली
उन बातों को भिगोती रही
लोगों ने ये सब देखा या नहीं, मगर देखा मैंने।

बाजरा के पीले हरे सिट्टों पर
घास के हरे भूरे चेहरे पर
शाम होने से पहले गिरती रही बूंदें
जैसे तुम गुलाब के फूल सिरहाने रखे
झांक रहे हो मेरी आँखों में
याद के माइल स्टोन बिछड़ते रहे
कार के शीशे के पार खींची बादलों की रेखा मैंने।

मैं कहीं भी जाऊँ
और छोड़ दूँ कुछ भी
तो भी तुम मेरे साथ चलते हो।

बीत गया
वो जो कल का दिन था
और उसके ऊपर से
गुज़र गयी है एक रात पूरी।

मगर अब भी
तुम टपकने को हो भीगी आँख से मेरे।

[बस इसी तरह बरसता है रेगिस्तान का आसमान अक्सर।]
















तस्वीर साभार : अली अब्बास सैयद

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