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Showing posts from August, 2013

खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

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सेना युद्ध के मैदान में लड़ रही हो और सेनापति अफीम के नशे में किसी का सहारा लिए आखिरी पंक्ति के पीछे कहीं पड़ा हो। घुड़सवारी सिखाने वाला प्रशिक्षक खुद घोड़े की पीठ में सुई चुभोता जाए। तैराकी सिखाने वाला गुरु खुद बीच भंवर में डूबता हुआ छटपटा रहा हो। ये कैसा होगा? मैं सप्ताह भर की प्रमुख खबरें सूँघता हूँ और मितली आने के डर से अखबार फेंक देना चाहता हूँ, टीवी को ऑफ कर देना चाहता हूँ। मेरी आत्मा पर बार बार चोट कर रही खबरों से घबराया हुआ, मैं सबसे मुंह फेर लेना चाहता हूँ। वैसे हम सबने मुंह फेर ही रखा है। हम सब सड़ी हुई आदर्श रहित जीवन शैली को अपनानाते जा रहे हैं। लालच और स्वार्थ ने हमारे मस्तिष्क का इस तरह अनुकूलन किया है कि हमने स्वीकार कर लिया है कि ऐसा होता रहता है। हम चुप भी हैं कि आगे भी ऐसा होता रहे। विडम्बना है कि नैतिकता और उच्च आदर्शों से भरे सुखी जीवन का पाठ पढ़ाने वाला खुद चरित्रहीनता के आरोप से घिर जाए। ये निंदनीय है। ये सोचनीय है। विवादास्पद प्रवचन करने वाले आसूमल सीरुमलानी उर्फ आसाराम पर एक नाबालिग लड़की के यौन उत्पीड़न का आरोप है। जोधपुर के आश्रम में यौन उत्पीड़न क

मैं टूटे हुये तीर-कमां देख रहा हूँ।

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ब्रूस स्प्रिंगटीन्स ने कहा कि अपने नेताओं या किसी भी चीज़ के प्रति अंध विश्वास आपको खत्म कर देगा। कुछ रोज़ पहले जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की पुणे में दो अज्ञात हमलावरों ने गोली मार कर हत्या कर दी।वे अंधविश्वास का विरोध करते हुये अपना जीवन समर्पित कर गए। हादसों की इस सदी में नित नूतन और हृदय को दुख से भर देने वाले समाचारों के बीच ये दुखद घटना भी संभव है कि काल की धूसर परछाई में भुला दी जाए। किन्तु ऐसा इसलिए न होगा कि उनका लक्ष्य बेहद ज़रूरी था और वह कोरा भाषण न होकर सक्रियता से किया जा रहा सामाजिक कार्य था। ये याद रखने की बात है कि अंध विश्वास के विरुद्ध लड़ना मनुष्यता की भलाई के लिए किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण काम है। श्री दाभोलकर उनहत्तर साल के थे। वे लंबे समय से अंधविश्वास विरोधी अभियान चला रहे थे। उनकी हत्या से अंधविश्वास विरोधी आंदोलन को तगड़ा झटका लगा है। उनके बेशकीमती जीवन का कोई मूल्य न चुकाया जा सकेगा। ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ के प्रमुख दाभोलकर सुबह टहलने निकले थे तभी ये घटना शहर के ओंकारेश्वर मंदिर के पास पुल पर हुई। घटनास्थल ‘साधना’ पत्रिका के क

होने को फसल ए गुल भी है, दावत ए ऐश भी है

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बारिशें नहीं होती इसलिए ये रेगिस्तान है। इसका दूसरा पहलू ये भी है कि ये रेगिस्तान है इसलिए बारिशें नहीं होती। एक ही बात को दो तरीके से कहा जा सके तो हमें ये समझ आता है कि हल कहीं इसी बात में ही छिपा हुआ है। अगर रेगिस्तान में कुछ पेड़ और पौधे बढ़ जाएँ तो यहाँ से गुज़रने वाले बादलों को रुकने के मौका मिल सकता है। वे बरस भी सकते हैं। उनके बरस जाने पर रेगिस्तान जैसी कोई चीज़ बाकी न रहेगी। मुझे ये खयाल इसलिए आया कि बुधवार को संसद में खाद्य सुरक्षा बिल प्रस्तुत कर दिया गया। यूपीए सरकार में इस बिल को लाने के प्रति बड़ी उत्सुकता थी। जिस तरह मनरेगा एक मील का पत्थर और जन कल्याणकारी योजना साबित हुई उसी तरह की आशा इस बिल के लागू होने से भी की जा रही है। इस पर काफी दिनों से चल रही खींचतान ने इसे भी कई लंबित योजनाओं में शामिल कर दिया था। ये आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि गरीब और आम अवाम के लिए लाई जानी वाली योजनाओं पर खूब समर्थन और विरोध की बातें होती हैं। हर कोई भला करने का अधिकार अपने पास रखना चाहता है और दूसरे ये काम करें इसे स्वीकार नहीं करता। मैंने बचपन में कई बार सुना कि फेमीन शुरू होने वा

रेगिस्तान के एक कोने के पुस्तकालय में प्रेमचंद

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हम जाने कैसे इतने उदासीन हो गए हैं कि महापुरुषों को याद करने के लिए आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में उपस्थित होना ही नहीं चाहते हैं। इसका एक फ़ौरी कारण ये हो सकता है कि हम उस वक़्त इससे ज्यादा ज़रूरी काम करने में लगे हों। काम की ज़रूरत और महत्व क्या है इसके बारे में शायद सोचते भी न हों। कभी ये हिसाब न लगाते हों कि आज के दिन के सिवा भी कोई दुनिया थी, कोई दुनिया है और आगे भी होगी। उस दुनिया पर किन लोगों के विचारों, लेखन और कार्यों का असर रहा है। जिस समाज में हम जी रहे हैं वह समाज किस रास्ते से यहाँ तक आया है। बुधवार को प्रेमचंद की जयंती थी। इस अवसर पर दुनिया भर के साहित्य प्रेमियों ने उनको धरती के हर कोने में याद किया। शायद सब जगह उनको उपन्यास सम्राट और सर्वहारा का लेखक और सामाजिक जटिल ताने बाने के कुशल शब्द चितेरा कहा गया होगा। उनके बारे में कहते हुये हर वक्ता ने अपनी बात को इस तरह समाप्त किया होगा कि प्रेमचंद के बारे में कहने के लिए उम्र कम है, इस सभा में आए सभी विद्वजन उनके लेखन पर प्रकाश डालते जाएँ तो भी ये एक पूरी उम्र गुज़र सकती है। रेगिस्तान के इस कस्बे में भी इसी अवसर पर जिला