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Showing posts from July, 2013

एक चोर दांतों वाली लड़की की याद

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And if I could I'd throw away this world I'd dress you all in pearls I'd give you what you wanted You're all I notice In a crowded room Your vacant motives Unmoved, revealed Medellia of my eyes You're the emptiness of I You're the reason that I drive And if you say you will I would love you still And if I just could Be anything for you Just anyone at all Anything that mattered, washed out POSTED BY COREY AT 11:37 AM मैं कल रात से एक तन्हा आदमी की डायरी को पढ़ रहा था। मैंने कुछ कवितायें और कुछ अर्ज़ियाँ कई कई बार पढ़ी। इस आदमी के बारे में जुलाई 2001 से फरवरी 2003 के बीच का अक्स दिखाई देता है। हम कहाँ से आते हैं और कहाँ खो जाते हैं। हम किन शब्दों से बनते हैं और किन शब्दों के साथ खत्म हो जाते हैं। मुझे नहीं मालूम कि आप कभी दूसरों की खुली ज़िंदगी में झांकना पसंद करते हैं या नहीं। इसलिए भी कि तनहाई जितनी खौफ़नाक है उतनी ही हमदर्द भी हुआ करती है। इस ब्लॉग का लिंक मैंने रात को अपने फेसबुक पेज़ शेयर किया था। इसलिए कि शायद रात के वक़्त आप जाग

वो भी हम जैसे हो जाएंगे

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चेखव की एक कहानी पढ़ते हुये याद आया कि गरीबी से बाहर आने में शिक्षित होने की बड़ी भूमिका है। आज के दौर का नया नारा भी यही है कि शिक्षा आपके भविष्य का बीमा है। यह एक सत्य है। इतना कि आप इस पर आँख मूँद कर यकीन कर सकते हैं। मैं दोपहर बाद ऑफिस जाने से पहले ज़रा सी मीठी झपकी ले रहा था कि स्कूल से बच्चे लौट आए। उनके आते ही मालूम हुआ कि सोमवार को विध्यालय जाना होगा। मैं उसी विध्यालय की मेनेजमेंट कमिटी का सदस्य भी हूँ। इसलिए वहाँ आना जाना लगा रहता है। लेकिन इस बार जाने की वजह यह थी कि मुझे अपनी बेटी कि जमानत करवानी थी। विध्यालय द्वारा ली गई तलाशी में उसके बस्ते से अमिश का उपन्यास निकला था। ये हिन्दू मायथोलोजी का ऐडोप्शन है। बारहवीं के कला वर्ग की कक्षा पूरे विध्यालय में बदनाम। ये नाम किस तरह बद हुआ इसके बारे में मुझे कुछ खास मालूम नहीं है किन्तु कुछ महीने पहले विध्यालय के प्राचार्य महोदय बता रहे थे कि बच्चों से अधिक अनुशासनहीन वे हैं जिन पर इन बच्चों की परवरिश का जिम्मा है। मुझे उनकी लाचारी और दुख दोनों का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। वे छह फीट लंबे दो बच्चों को डांट रहे थे। बच्चे विध्यालय में किसी

रंग, राख़, पानी और धूप जैसी चीज़ें

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उस रंग को जाने क्या कहते हैं  लोहे की पटरियों पर जैसे किसी नादान रंगरेज़ के हाथों से निकल कर कोई रेलडिब्बा चला आया है। कुछ ज्यादा गहरे रंग से रंगा हुआ। स्कूल के सबसे ऊंचे हाल के कंगूरे के पास दिखती सीमेंट की चद्दरों पर बैठा हुआ कोई कबूतर। जो स्टेशन मास्टर के बागीचे में खुले पड़े पानी के पाइप से नहाकर आया हो। और पंखों के नीचे का अंधेरा उसके रंग को गहरा करता हो। या फिर किसी लड़के ने नीले पेन से लिखे को रबर से मिटाने की ज़ुर्रत में कॉपी के पन्ने का मुंह रंग दिया हो।  वो रेगिस्तान था। बरसता नहीं था। सूखा ही रहता था। वहीं एक सिगरेट थी। नेवी कट कहलाती थी। बरसों मुंह से लगी रही। अजीब गंध थी। धुआँ किसी सूरत में अच्छी गंध न था। बस एक बेशकल तस्वीर हवा में तामीर होती थी। यही हासिल था। उसका रंग बरसे हुये बादलों जैसा होता था। बस नाम ही नेवी कट था।  मैं क्या पी लेना चाहता हूँ। मैं किसी स्याहीसोखू के जैसा हूँ क्या? जिसकी प्यास में कुछ होठ ही लिखे हुये हैं? या किसी उदासी के प्याले की सूखी हुई किनारी। इस रंग से क्या वास्ता है? किसलिए वार्डरोब भरा रहता है एक ही परछाई से। मेरे अंदर एक कुन

कितना सूखा है, देखो ना

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एक फासला था। उसने कहा- देखो ये फासला है। शायद कहा नहीं था। ऐसा कहना चाहा था, ये मैंने सोचा।  अखबार में लिखा था- कश्मीर से कन्याकुमारी तक बारिशें। जितने बड़े फॉन्ट थे उसके दसवें हिस्से जितनी भी बूंद नहीं गिरी थी। शायद ऊपर से नीचे की इन दो जगहों से अलग रेगिस्तान का ये हिस्सा खाली छूट जाता है। इसलिए मैंने उसको भी कोई शिकायत न की जिसने कहा था- फासला है। या फासला बना रहे ऐसा कहा होगा।  बारिशें नहीं आई। आवाज़ की लकीर थी कुछ कदम चल कर रुक जाती। मैं फिर वहीं से शुरू करता। उसी जगह जाकर ठहर जाता। मैं चुप्पी में फिर से आवाज़ के सिरे को थामता हूँ। जैसे आप किसी बूढ़े रिश्तेदार के हाथों चढ़ गए हों और वह अपने इन तेज़ी से बुझते हुये दिनों में आपसे पहचान को हर जगह से छूकर बुनता है। वह अपनी सभी इंद्रियों को इस काम में लगा देता है कि इस प्रिय को अपने भीतर समेट सके।  रात बीत गयी। सुबह आसमान बादलों से भरा है। बरसेगा नहीं। जैसे किसी की तस्वीर को देख सकते हों मगर वह बोलता न हो। मैं अचानक याद करता हूँ कि रात सपने में आवाज़ की लकीर दूर तक जा रही थी। कोई मुझसे पूछ रहा था कि क्या कर रहे हो। मैं डरत

काल और क्षय से परे

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प्रेम, निर्वात में रखी हुई अक्षुण और अरूप अनुभूति है  काल और क्षय से परे। ______________________ ये तीन दिन पहले की बात है। दोपहर के वक़्र्त अपने ड्राइंग रूम के आँगन पर एक शॉर्ट पहने लेटा हुआ था। बरसात आने की उम्मीद का दिन था। कुछ लाल चींटियाँ किसी की तलाश में थी। एक चींटी ने मेरी पीठ के नीचे बायीं तरफ कुछ जाँचना चाहा। उसे शायद मेरी पीठ से कुछ काम था। वह पर्वतारोही की तरफ मेरे सीने का फेरा लगा कर नीचे उतर गयी। मेरे पास कोई काम नहीं था। मुझे किसी के पास जाना नहीं था। मेरे पास किसी का कोई संदेश नहीं आना था। खिड़की से कोई हवा का झौंका आता तो मैं उसके सम्मान में एक बेहद हल्की मुस्कान से उसका स्वागत करता।  अचानक मुझे उछल जाना चाहिए था लेकिन उतनी ही तेज़ी से ये खयाल आया कि ये लाल चींटी ही है। उसने अपने दांत मेरी पीठ में उसी जगह गड़ा दिये थे। जहां से उसने मेरी तलाशी लेनी शुरू की थी। मैं इस बार भी मुस्कुरा दिया। मैंने उस एक लाल चींटी को भूल कर आँगन को देखा। वहाँ अनेक चींटियाँ थी। सोचा कि अनेक दुखों में से सिर्फ एक दुख ने मेरे गले में बाहें डाली हैं। ये सभी चींटियाँ अगर मुझे काट ले

ये सिस्टम किसका सिस्टम है?

जिस काम को एक साल पहले पूरा हो जाना चाहिए था। वह काम अभी तक प्रगति पर है। इस तेल नगरी में विकास की असीमित संभावनाएं हैं। इसलिए जिस तरह नए खिल रहे फूलों के आस पास अनेक कीट पतंगे, उन कीटों के लिए अनेक चिड़ियाएं और उन चिड़ियाओं के लिए अनेक मँझले शिकारी पक्षी जमा हो जाते हैं। वैसे ही यहाँ लाभ के चाहने वालों का बड़ा जमावड़ा है। जो निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। शहर एक ऐसी दुकान हो गया है। जिसमें सामान ज्यादा और जगह कम है। धन दौलत के मुरीद इस शहर में आए तो अपने साथ एक कारवां लेकर आए। अब ये गाड़ी घोड़े इस ढब और आकार के निकले कि शहर की गलियाँ तंग हो गयी। शहर को दो भागों में बांटने वाली रेल पटरी के दोनों तरफ जाम लगने लगा। इस पटरी को पार करना थके हुये चेतक के नाले के पार जाने से पहले का हाल बन जाता रहा। लोगों ने आंदोलन किए। ज्ञापन दिये। मांगों के समर्थन में चिट्ठियाँ लिखी। तब जाकर सरकार को मालूम हुआ कि इस कस्बे में गुज़रने वाली रेल को दोनों तरफ ट्रेफिक जाम हो जाता है।  जहां कहीं कोई जन समस्या है उसकी सूचना देना और उसके निस्तारण के लिए लड़ना जनता का काम हो गया है। गलियों में सफाई नहीं होने से ल

मैं उस रोशनी में जाकर क्या करूंगा

सबसे ऊंचे टीले पर मैंने रेत के बीच बनाया है एक गोल छोटा प्यारा सा ट्रेप। और मैं चुप होकर कर बैठ गया हूँ इसके नीचे रेत में छुप कर। इसके पास से गुज़रते ही मेरे दिल की बारीक मिट्टी तुमको खीच लेगी गहरी गोल खाई में। मैंने अपने दांत तोड़ दिये हैं, मैंने सिर्फ कोमल रोएँ वाली भुजाएँ बचा कर रखी है। कि जब तुम फंस जाओगे मेरे इस जाल में तब रेत के नीचे ठंडे अंधरे में तुमको बाहों में भरे आहिस्ता आहिस्ता छूकर प्रेम कर सकूँ। मैं दुआ करता हूँ कि एक दिन बेखयाली में जो तुमने सोचा था, वह सच हो जाए। [1] मैं उस रोशनी में जाकर क्या करूंगा जहां रंग बिरंगे कागज़ों के टुकड़े और आवाज़ों के शोर की मजलिस। कि ऐसा वो मंज़र जहां हर कोई भूला हो खुद की ही दुनिया देख न सके कोई दिल की हालत है कैसी और न सोचे कोई कि मन में ये कैसी खामोशी गूँजती है वहाँ मैं क्या करूंगा और तुम क्या करोगे। आओ कि इस अंधेरे में भी तुम्हारे होने को सोच कर मेरे दिल को भी सुकून रहेगा तुम भी खुश ही रहोगे मेरी बेकसी देख कर। आओ ! मेरी इस छत पर बैठो कि तनहाई फिर भी यहाँ कायम रहेगी एक मुद्दत से तुम तो यूं भी मुझसे बोलते नहीं हो। [जब रगों में दौड़ते खू

और कुछ याद, दाल और तुरई की

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इस वक़्त हल्की फुहारें गिर रही हैं। छत पर एक दीवार के सहारे टेबल रखी है। इस पर एक हरे रंग की पर्ल पेट की पानी बोतल, एक बोरोसिल का काँच का ग्लास, एक ब्लेकबेरी का फोन, एक लेनोवो का टूटा फूटा लेपटोप, दो रीबॉक के घिसे हुये काले सेंडल जो मेरे पाँवों में हैं, रखे हुये हैं। ये सब इस दुनिया की चीज़ें हैं। मैं कहाँ हूँ, मालूम नहीं। * * * ऐसा नहीं है कि सब आसान है इस चुप्पी में। इसमें खिली हुई है बिना अदरक वाली कुछ चाय की प्यालियाँ और कुछ याद, दाल और तुरई की। बाकी जो है उसका हिसाब मिल नहीं रहा वरन मैं आवाज़ देता तुमको फिर से। कहो ये भी क्या ज़िंदगी है दो दिन की ? * * * सिर्फ तुमको ही कहानी सुनना चाहता हूँ। कुछ गए गुज़रे आवारा लड़कों से गलियों में रौनक थी और कुछ दरीचों से झाँकती हुई बेशर्म लड़कियों से ज़ीनत। इन दो चीज़ों के होने से ही बूढ़ी औरत रास्ते में पड़े पत्थर के टुकड़ों को ठोकर से उड़ा देती। फिर ज़रा झुक कर अपनी पगरखी की नोक को देखती। कहती- काना मोची आज तूँ फिर बच गया। अगर जूती का चमड़ा गया तो तेरी जान भी चली जाएगी। तुम नहीं हो इसलिए सांस लेते ही टूट गयी कहानी

रेगिस्तान के किसान, रिफायनरी और शुभचिंतक नेता

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मेरे सामने से एक सफ़ेद रंग की बाईस पच्चीस लाख रुपये कीमत वाली एसयूवी गाड़ी गुज़री। उसके बोनट पर एक पर्दा लगा हुआ था। उस पर लिखा था रिफायनरी बचाओ संघर्ष समिति। पर्दे पर इस लिखावट की पृष्ठभूमि में किसी पेट्रोलियम रिफायनरी की तस्वीर बनी हुई थी। अभी महीना भर पहले जो गाडियाँ दिखती थीं, वे गाड़ियाँ किसानों को उनकी कृषि भूमि से बेदखल होने से बचाने के लिए दौड़ती हुई दिखती थी। अचानक से पासा पलट गया है। चित्त की जगह पट ने ले ली है। जो भूमि बचाने पर आमादा थे वे अब भूमि देने पर आमादा हो गए हैं। मैं सोचता हूँ कि ये कौन लोग हैं जिनके पास पच्चीस पच्चीस लाख रुपये के मशीनी घोड़े हैं। जिनके पास इतनी दौलत है कि ये घोड़े हिनहिनाते हुये कुलाचें भरते ही जाते हैं। इनकी अश्वशक्ति का स्रोत क्या है? हालांकि मैंने गरीब और मजदूरों के आंदोलनों में भाग लिया है, मैंने उनके साथ चौराहों पर रातें बिताई है मगर इतना बड़ा आर्थिक राजनैतिक चिंतन करने में असमर्थ हूँ कि किसानों के पक्षधर इन दौलतमंद लोगों की असली मंशा क्या है। ये किसानों का हित क्यों चाहते हैं। ऐसे घोर कलियुग में भी ये सुखी सम्पन्न लोग ऐश भरा जीवन त्याग कर क

एक मरा हुआ आदमी कई बार सचमुच मरा हुआ नहीं होता है।

एक आदमी एक कहानी लिखता है। खिड़की से हवा का झौंका आता है और रुक कर सोचता है अगर मेरे हाथ में कुदरत एक हुनर रख दे कि मैं अतीत के रास्तों को अपनी इच्छा से मोड़ दे सकूँ। तो क्या उन रास्तों को अपने दिल के हिसाब से तरतीब में लाऊँ या फिर कुछ चीज़ें नज़रों से दूर कर दूँ और उनको कभी अपने करीब से न गुज़रने दूँ।  उसने कुछ रात पहले तय किया कि ऐसी नंगी कहानी, जिसे पढ़ कर पत्नी और बच्चे नए सिरे से रिश्तों को समझने देखने लगें। जिसे पढ़ कर वे कुछ ऐसा पाएँ कि एक पीतल का बरतन था दूर से सोने सा चमकता था। इसके बाद उससे कोई सवाल करें कि तुम ऐसे क्यों थे? जब तक होश है इस कहानी को कहना मुमकिन नहीं है इसलिए वह इस कहानी को लिख कर इन्टरनेट पर प्रकाशित होने के लिए शेड्यूल कर देता है। यानि ये अगले साल छपेगी। वक़्त बीतता जाएगा और वह इसे रिशेड्यूल करता जाएगा। जिस दिन मर गया उसके कुछ महीने बाद कहानी होगी मगर किसी की बात सुनने के लिए वह आदमी न होगा।  जो आप जी रहे हैं वही सत्य है, जो नहीं जीया वह असत्य।  मरा हुआ आदमी किसी के सवालों के जवाब नहीं दे सकता है। इसलिए इस कहानी में वास्तविक नाम, जगह, दिन, घटना