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Showing posts from May, 2013

एक कमीज, मेड इन बांग्लादेश

इस कमीज की कोहनियों पर लगा हुआ है, काले रंग का एक क्रॉल पैबंद। इस उम्मीद में कि शायद आने वाले दुख के दिनों में ये पैबंद कुछ ज़ख़्मों से बचा ले। ज़िंदगी अपने प्यारे बच्चों के लिए बेहिसाब चिंता करती है। जब ये पहले से ही तय होता है कि गले लगना है और बिछड़ जाना है। एक कंटीली बाड़ के नीचे से बनाना सुराख और किसी नौसिखिये रंगरूट की तरह कोहनियों के बल चलते हुये नापना है मुहब्बत का रास्ता।  उन दिनों के लिए इसकी कोहनियों पर लगा हुआ है, काले रंग का कपड़ा।  मैं कभी कभी शाम होते ही अपने वार्डरोब के पास खड़ा होकर कहता हूँ। मेरे प्यारे दोस्त कोई क्या देना चाहता है इससे इतर ज़रूरी ये है कि तुम अपने लिए क्या चुनोगे? मैं तिरस्कार और ज़लालत से हट कर चुन लेता हूँ उस कमीज की खुशबू हालांकि उसमें किसी बांग्लादेश के गरीब कारीगर के हाथों और अगर किसी औरत ने टांके हों बटन तो दो लोगों की मिली जुली खुशबू होगी। कारीगरों को कहाँ मालूम होगा कि इस कमीज की आस्तीनों के फ़ोल्ड में किस जगह की फाइन डस्ट भरी होगी। उनको ये भी नहीं मालूम होगा कि कोई इसे पहनेगा या ये यूं ही टंगा रहेगा, अजीर्ण स्मृति की तरह। एक कमी

सन्यास की चाशनी में वियोग की धुन

ज़िंदगी हमसे चाहती क्या है, बताती क्या  ये बात उस आदमी के बारे में है जिसकी महबूबा उसकी पीठ के पीछे हैं मगर वह मुड़ कर उसे आइस पाइस नहीं कह सकता। उसे छिपे रहने में क्या मजा है, इस सवाल की मनाही है। मेरे खयाल से ये बात उस औरत के बारे में भी हो सकती है जो अपने महबूब को आवाज़ देती है और वह जनाना कपड़ों के ढेर से उठता हुआ कहता है मैं इधर ही हूँ। वह अक्सर उधर से ही क्यों नुमाया होता है, ऐसा पूछते ही ताअल्लुक बोझ बन जाता है। वास्तव में साबुत करेक्टर होने की जो बुनियादी बातें हमें सिखायी जाने की कोशिशें की गई थी उनका असल चेहरा किसी कुंठित कारीगर का बनाया हुआ लगता है। मैं छठे माले के घर से देख रहा हूँ कि हद दर्ज़े की पहरेदारी में बड़े हुये एक सफ़ेद फूलों वाले पेड़ के तने में लोहे के ट्री गार्ड ने अपने दाँत गड़ा रखे हैं पहले ये दाँत मवेशियों के लिए बनाए गए थे। लोग पेड़ के फूलों पर एक नज़र डालते हैं और आगे बढ़ जाते हैं, बिना सुख दुख पूछे। जिस तरह पीठ पीछे से महबूबा आवाज़ नहीं देती जिस तरह जनाना कपड़ों से महबूब बाज़ नहीं आता जिस तरह बुनियादी बातों के पीछे का म

कि मैंने क्या नहीं किया

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वह सब कुछ जो आपने कमाया या भुगता है। वह जो सुकून था या हताशा थी। वह जो था या वह जो नहीं था। इस हिसाब बेहिसाब में आप बीती हुई उम्र के कटे फटे, रंग-बदरंग खोल को उतार कर एक तरफ रख देते हैं। जो सीखा उसे भूल जाने की दुआ करते हैं। सब कुछ छोड़ कर चुन लेते हैं किसी एक को। अपने आपको कर देते हैं उसके हवाले।  अचानक से नील गाय से टकरा कर दो मोटरसायकिल सवार सड़क पर गिर पड़ते हैं। मैं सफ़ेद तलवों वाले काले जूतों को मिट्टी से बचाना भूल कर उन्हें सहारा देकर उठाना चाहता हूँ। लेकिन नील गाय के अचंभित होकर भाग जाने साथ ही वे दोनों सवार भी उठ जाते हैं। उनके कंधे, कोहनियाँ और घुटने छिले हुये। एक का होठ कट गया था। वह अपनी हथेली से बहते खून को रोकने की कोशिश कर रहा था। मोटरसायकिल की हेडलाइट टूट कर बिखर चुकी थी। एक सेलफोन सड़क के किनारे कई हिस्सों में बंटकर गिरा पड़ा था। मैं उन्हें कहता हूँ- भाई देखो, तुम दोनों ज़िंदा हो। इतनी ज़ोर की टक्कर को बरदाश्त करने की ताकत तुम्हारी इस नाज़ुक खोपड़ी में नहीं है। वे दोनों अपने दर्द को भूल कर एक दूजे की चोटों का मुआयना करते हैं। मैं महल गाँव से निकला था और मुझे गौरव

जिजीविषा के आखिरी छोर पर

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काँच के प्याले में आइस क्यूब्स के गिरने की आवाज़ आती है जैसे तुम्हारा हेयर क्लिप अंगुलियों से छिटक कर गिर पड़ता है आँगन पर। और खुल जाता है, जूड़ा याद का। मैं इस तीज के चाँद को देखते हुये सोचता हूँ कि एक टूटा हुआ दिल भी थोड़ा सा चमक सकता है रात में अगर तुम मुड़ कर देख सको उस अंधेरे की तरफ, मैं जहां हूँ। * * * उस तरफ नज़र गई जिधर अरसे से एक उदासी थी। खालीपन की उदासी। समय जैसे घूल के रंग में ठहर गया था। अचानक से चटक गए ख्वाब से जागते ही जैसे हम देखने लगते हैं आस पास की चीजों को वैसे मैंने देखा कि रेगिस्तान के पौधों जाल और आक पर नई कलियाँ मुस्कुरा रही थी। गरमी में लोग ठंडी जगहों पर दुबके हुये दिन के बीत जाने की आशा में वक़्त को गुज़र रहे थे। मगर रेगिस्तान के पौधे, नए पत्ते लिए झूमने की तैयारी में थे। ये गर्मी तकलीफ है, ये ही गर्मी नए खिलने का सुख भी है। प्रेम के बारे में सुना है कभी? प्रेम जो सुख और दुख जैसे मामूली अहसासों से परे, जिजीविषा के आखिरी छोर पर पर साबुत चमकता रहता है। वह जो अजीर्ण है। मैंने कहा- तुम रहना। तुमने मुझे इसके बदले वह दिया जो तुम्हारे पास था। किसी के

परछाई की गंध

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आँधी का झौंका उड़ा देता है, रेत की कच्ची परत आधी रात को चिंगारी जागती है लंबे अवकाश से। दो बूंदें भिगो देती है  स्याही पर चमकती आग की रूह को रेगिस्तान फिर सो जाता है पिछली रात के ख्वाब में। मद्धम हवा पुकारती है एक विस्मृत नाम और फिर रात के लंबे घने बालों में ओढ़ लेती है चुप्पी। अलसाई गठरी से चुन कर याद का रेशमी धागा चिड़िया अपने घोंसले में लिखती है बीते दिनों की परछाई की गंध। वक़्त की राख़ को पौंछ कर आसमान में चाँद सजा लेता है एक सितारा अपनी दायीं तरफ। तुम भी देखो, मैं ज़िंदा हूँ इन सबमें थोड़ा थोड़ा। * * * [Painting Image Courtesy - Joan Miro]

असमाप्य बिछोह के रुदन का आलाप

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हवा के जादुई स्पर्श के बीच असमाप्य बिछोह के रुदन का पहला लंबा आलाप कानों में पड़ता है। मैं डर कर चौकता हुआ जाग जाता हूँ। मैं अपने घर की सीढ़ियाँ उतर कर ग्राउंड फ्लोर तक जाने के दौरान आवाज़ का ये पहला टुकड़ा सुनता हूँ। मेरे मन पर असंख्य आशंकाओं के साँप लोट जाते हैं। मेरी माँ का ये रुदन किसलिए होगा? मेरे मन में पहला खयाल आता है, मेरे बच्चे। एक सिहरन सर से पाँव तक पसर जाती है। मैं खुद से कहता हूँ उनको कुछ नहीं हो सकता। सीढ़ियाँ उतर कर माँ तक जाने से पहले ही देखता हूँ कि मैं उठ कर चारपाई पर बैठा हुआ हूँ। एक बुरा स्वप्न था। सुबह की ठंडी हवा में छत की मुंडेर के पार हल्का उजास घरों की दीवारों को शक्ल दे रहा था। मैंने अपनी आँखें फिर से बंद कर ली ताकि अगर ज़रा और सो सकूँ तो इस दुस्वप्न को भूल जाऊँ। मैं सो जाता हूँ और एक नया सपना शुरू होता है।  मेरे घर में एक लड़की आई है। उसने तंग और छोटे कपड़े पहने हैं। वह लोहे के सन्दूक में अपना वो सामान खोज रही है जो पिछली बार यहीं छूट गया था। मैं उसे ऐसा करते हुये देख कर महसूस करता हूँ कि वह अजनबी है। एक उदासी घिरने लगती है। नीम अंधेरे में उसे ग

मार गिराता हूँ दिन और रात

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बम वर्षक विमान गुज़रता है  रेगिस्तान के ऊपर से और ढह जाता है रेत का किला लकड़ी के उम्रदराज़ पुराने लट्ठों के बीच मकड़ा झूलने लगता है टूटे जाल पर। मैं घिसटता हुआ आता हूँ बाहर और सूरज को टटोल कर देखता हूँ कि समय के घड़ियाल में चल रहा है कौनसा साल। * * * एक मरा हुआ आदमी चहलकदमी करता है अतीत में। डॉक्टर पौंछता है पसीना मैं हँसता हुआ कहता हूँ अपने हाथों को सूँघिए ज़रा इनमें एक लड़की की खुशबू है। डरा हुआ आदमी नहीं सूंघ सकता अपने हाथ मगर सच है कि एक मरा हुआ आदमी चहलकदमी करता है अतीत में। वही अतीत जिसमें से तुम, सब चीज़ें ले गए बुहार कर।  * * * मैं खाने की मेज पर बैठा हुआ मुस्कुराने लगता हूँ कि इस कांटे को काली मिर्च वाली फूल गोभी की जगह चुभोया जा सकता है आँख में। मेरी डरी हुई बीवी को डॉक्टर देता है सांत्वना मैं डॉक्टर की शक्ल देख कर फिर मुसकुराता हूँ कि इसको कौन करता होगा प्यार। डॉक्टर की मेज पर रखा है पेपरवेट मैं फिर दोबारा मुसकुराता हूँ कि काश इसे खाया जा सकता पकी हुई फूल गोभी की तरह।  * * * मैं एक आभासी दीवार पर बनाता हूँ सहवास की कामन