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Showing posts from April, 2013

दुछत्ती से उलटा लटका मकड़ा

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बेरी पर खिले हैं कच्चे हरे पत्ते और कोमल कांटे। तुम्हारे बदन के अनछुए कच्चे रंगों की नक़ल उतारी है कुदरत ने। वक़्त के सितम तक के लिए। इस सुबह की किनारी पर लिखे हुये हैं तुम्हारी आलस भरी अंगड़ाई से पहले के मेरे बोसे। बासी मुंह मगर दम-ताज़ा आत्मा की पक्की मुहर वाले। ऐसा क्यों है कि तुमने गिरा रखा है खिड़की पर पर्दा, मैं पलट रहा हूँ याद के एल्बम से कई तस्वीरें। सूने रास्ते, नए मकान, और शाम।  मैं तुम्हारे इंतज़ार के धागे से बंधा हुआ इस वक़्त दुछत्ती से उलटा लटका हुआ मकड़ा हूँ। तुम अदृश्य हवा की तरह दे रही हो मेरी ज़िंदगी को झूला। मैं तुम्हें न पाकर घबरा जाता हूँ। जबकि सुबह के इस वक़्त मेरी माँ पौंछ रही है उदासी, पिता की याद की। मैं सोचता हूँ कि पिता हमेशा के लिए जाने की जगह यहीं रह कर माँ को रुलाते तो भी अच्छा था। जैसे तुम नए बहाने से रुलाते जाते हो हर दिन मगर तुम होते हो इसी बात से खुशी आ जाती है।  मैं क्या करूँ कि गिर रहे हैं परिंदों के कोमल पंख हवा में तैरते हुये। दिन की तपन बढ़ती ही जा रही है। रेगिस्तान का मौसम जाने किस उदास आदमी ने लिखा था। यहाँ वक़्त की सबसे बड़ी मंडी में

शायर और अफ़साना निगारों के बारे में कुछ झूठी बातें।

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असल में शायर कुछ नहीं होता, वह आफत की दुलत्ती, हराम की आदत, ख़्वाहिशों, रास्तों, मुश्किलों और तकलीफ़ों से निजात के लिए अपने ख़यालों में तवील बोसे और आला दर्ज़े की शराब बुन रहा, एक मामूली आदमी होता है और हम उसे समझ बैठते हैं, शायर दिल। उसकी छोटी तकलीफ़ें बहुत सारी होती हैं जैसे सलाम न बजाने वाला जमादार, टेढ़ी निगाहों से देखने वाला सूदखोर या साथ सोने से इंकार कर देने वाली औरत जिसे वह कई वजहों से समझता रहा है, बेईमान। और बड़ी तकलीफ़ एक ही हुआ करती है उसके साथ सोने के बाद उसकी आँखों के प्याले में बेरुखी भर कर चली जाने वाली नक़ली महबूबा।  ठीक ऐसे ही अफ़साने कहने वाला आदमी वो जानवर होता है जो जीए हुये की जुगाली करने में, जीने से ज्यादा मजा पाता है। वह अपने आप के साथ सोया रहता है रात - दिन और जब इस हमज़ाद सेक्स से उकता जाता है तब बैठ जाता है पीने के लिए और सोचता है ज़िंदगी में आए उन किरदारों को, जिनके बारे में वह इसलिए नहीं लिख पाता कि अब भी जकड़ा होता है, मुहब्बत के बेड़ियों में। इस दौर में भी पुराने ज़माने की तरह शायर/शाईरा या अफ़साना निगार हो जाने को दो तीन बच्चों वाली माँ

सब चारागरों को चारागरी से गुरेज़ था

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मैं जयपुर से जोधपुर के लिए रोडवेज की बस में यात्रा कर रहा था। गरम दिनों की रुत ने अपनी आमद दर्ज़ करवा दी थी। ये काफी उमस से भरा हुआ दिन था। शाम के सवा छह बजे चली बस से बाहर के नज़ारे देखने के लिए अधिक समय नहीं मिला। कुछ ही देर बाद सड़क पर रोशनी की चौंध और आस पास से गुजरती हुई गाड़ियों के हॉर्न की आवाज़ों के सिवा सब कुछ कुदरत ने अपनी स्याही में छिपा लिया था। यात्री एक विध्यार्थी होता है। वह अनजाने ही अनगिनत चीज़ें सीखता रहता है। शायद इसीलिए पुरखों ने कहा होगा कि घर से बाहर निकल कर देखो कि दुनिया क्या है? लेकिन मैं पुरखों की सलाह के लिए नहीं बना हूँ। मुझे अकसर एक ही जगह पर बैठे रहना सुखकर लगता है। लेकिन ऐसा हमेशा संभव नहीं होता है। ज़िंदगी है तो गति भी है इसलिए मैं बस की पाँच नंबर सीट पर बैठा था। अचानक कुछ यात्री इस बहस में थे कि सात और आठ नंबर सीट किसके लिए है। जो यात्री बैठे थे उनका दावा था कि उन्हें टिकट खिड़की से कहा गया है कि इसी सीट पर बैठा जाए। एक सज्जन कह रहे थे कि ये सांसद कोटे की सीट है। कंडेक्टर ने बैठे हुये लोगों को उठाया और उनकी जगह एक वृद्ध दंपति ने ले ली। उन दोनों को देख

कुदरत ने बख़्शी है मुझे खुशियाँ

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मैंने घर बनाने के लिए चीन्ही हुई ज़मीन पर बची हुई पगडंडी से गुज़रने की गलती की थी। बालकनी में खड़े हुये देखा कि कोई उठा रहा था दीवार और दो टुकड़ों में बंट रही थी पगडंडी। जिस रास्ते से हम गुज़रे थे उसे मिटते हुये देख कर आई उदासी से बाहर आने के लिए उस कच्चे रास्ते को भूल कर पक्के डिवाइडर तक गया। जहां कभी हम दोनों बैठे थे। मैं लिखना चाहता था कि चाहे किसी भी धुंध से गुज़रना हो, मैं गुज़रूँगा तुम्हारे प्यार से भरा हुआ दिल लेकर। ज़िंदगी के निशान न दिखेंगे, वक़्त की आहट न सुनाई देगी, मौसम बेनूर हो जाएगा मगर मुझे कोई न कर सकेगा तन्हा कि साथ चलता रहेगा, तेरा नाम... खुशी अल्हड़ दिनों की याद का नाम है और उदासी ज़िंदगी की जेब से गिरा हुआ मुहब्बत भरा लम्हा। * * * हैरत के पिंजरे में खामोश एक चिड़िया, मौसम से बेखयाल हवा का चुप्पी का राग। ये दोनों बातें हैं हमारे ही बारे में। * * * मैं रात की नमी सा किसी पलक पर बसा हूँ, तुम हो मन में खिल रहे, उजाले की मानिंद। कुदरत ने हमारे बीच ये कैसा फासला रखा है। * * * किनारे से फटा हुआ ज़िंदगी का नोट लिए सीढ़ियों पर उदास बैठा रहता हूँ। कई बार

कई दफ़ा और रूआँसा लड़की

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मैं मीना कुमारी हो जाता हूँ। मेरे दोनों नाम नाकाम हो जाते हैं। मैं न महजबीन बानू होता हूँ और न मीना कुमारी। मैं अपने प्याले को भरते हुये एक ऐसे आदमी के बारे में सोचता हूँ जिसे किसी मौलाना ने कहा था कि चूम लेना, साथ सो जाना हराम नहीं है, मुहब्बत की क़द्र करना हराम है। मैं प्याले को भरते हुये कहता हूँ- जुगनू की उम्र उसके पीछे दौड़ रही रोशनी है। इसी रोशनी में अपनी दायीं टांग से जींस को ज़रा ऊपर कर लेता हूँ। मैं गिर पड़ता हूँ।  मुझे लगता है जैसे मीना गिर पड़ी हैं। या मैं ही मीना कुमारी हो गया हूँ। मेरी कार का ड्राईवर सीढ़ियाँ चढ़ कर आता है और कहता है बीबी आपको सहारा दूँ। मैं कहती हूँ- "नहीं, मुझे यूं ही आँगन पर गिरे पड़े रहने दो।तुम मेरी जगह खिड़की में खड़े हो जाओ और देखो धर्मेंद्र की गाड़ी आ रही है क्या?" वह नहीं आता। नए लौंडों को भी कितना गुमान होता है, अपने होने का। देखना मैं एक दिन ऐश की रोशनी और चाहतों के नूर से दमक रहे ज़िंदगी के इस बेनियाज़ प्याले को ठोकर मार दूँगी। बिखरी हुई शराब और गिरे पड़े प्यालों के बीच कुछ गहरी नज़्में मैं सौंप दूँ किसी ऐसे आदमी को जिसको दुनि

तुम्हारा इंतज़ार है...

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चिड़िया ने दो बार कमरे का फेरा लगाया और आखिर पर्दे पर लटक कर कमरे का मुआयना करने लगी। दूसरी चिड़िया ने दोपहर में पढ़ी जाने वाली कोई दुआ पढ़ी। मेरी बेटी ने कहा पापा देखो ये चिड़ियाएं। उसने हाथ से इशारा किया और उनको उड़ा दिया। वे रोज़ दरवाज़ा खुला देखते ही घर में आने लगी। कल सुबह मैंने चिड़िया से कहा कि ये घर न होता तो शायद यहाँ कोई पेड़ खड़ा होता और तुम उस पर अपना घर बना लेती। लेकिन ये संभव नहीं है क्योंकि सब प्राणियों को रहने के लिए किसी आसरे की ज़रूरत होती है। ये घर मेरा आसरा है। मैं तुम्हारे लिए एक घर बालकनी में बना दूंगा। चिड़िया अकेली थी। उसने कुछ कहा जो मैं समझ नहीं पाया।  घर के पीछे खाली ज़मीन पर पेड़ बनने की उम्मीद में खड़े हुये कुछ पौधे हैं। कुछ वाइट स्पाएडर लिली और कहीं कहीं आशाओं के टुकड़ों जैसी दूब बची हुई है। वहीं एक टीन की छत वाला कमरा है। इसमें पापा की मोटर सायकिल जैसे कई समान पड़े हुये हैं। इस सारे सामान में चीज़ें कुछ ऐसी है कि उनको ठुकरा दिया गया है मगर किसी रिश्ते की याद की तरह बची हुई हैं। वे चुप और मुखर होने के बीच के हाल में हैं। डायनिंग टेबल पर खाना परोसने क

हम जाने क्या क्या भूल गए

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आज सुबह से इतिहास की एक किताब खोज रहा था। किताब नहीं मिली। इस किताब में यात्री के द्वारा लिखे गए ब्योरों में उस काल का इतिहास दर्ज़ था। पिछले साल ही इस किताब को फिर से पढ़ा था। श्री लंका के सामाजिक जीवन में गाय के महत्व का विवरण लिखा था। गाय पूजनीय प्राणी था। इतना पूजनीय कि मनुष्य से उसका स्थान इस जगत में ऊंचा था। यात्री ने लिखा कि गोवध एक अक्षम्य अपराध था। मेरी स्मृति और ज्ञान के अनुसार रेगिस्तान के जिस हिस्से में मेरा जन्म हुआ वहाँ मनुष्य के हाथों या किसी अपरोक्ष कारण से मृत्यु हो जाना क्षमा न किए जाने लायक कृत्य था। मृत गाय की पूंछ को गले में डाल कर हरिद्वार जाने के किस्से आम थे। ये दंड का एक हिस्सा मात्र था। इसके सिवा जिसके हाथों गाय की मृत्यु हुई हो उसको अपना जीवन समाज सेवा और गायों की भलाई के लिए समर्पित करना होता था। किन्तु उस पुस्तक में उल्लेख था कि मनुष्य के हाथों गाय की मृत्यु होने पर उसी गाय की खाल में लपेट कर हत्यारे को ज़िंदा जला दिया जाता था। यह रोंगटे खड़े कर देने वाला विवरण या उल्लेख हमें कदाचित भयभीत कर सकता है अथवा हमें मनुष्य को दी जाने वाली इस सज़ा के विरुद्ध खड़ा