किसी ओलिया की दुआ


भौतिक दुनिया की जगह हम ख़यालों में ही बना लेते हैं ,अपने महबूब के साथ एक घर। उस घर में टांग लेते हैं चुप्पी के पर्दे और एक समानान्तर लोक में जीते जाते हैं। मन के भीतर के दरवाज़े के उस तरफ खुलने वाले घर का इस दुनिया में कोई निशान नहीं मिलता... मगर होता है आलसी सा एक प्रेम का बिरवा, न खिलता है न मुरझाता... प्रेम एक सबसे बड़ी दुविधा है।

खत जो लिखो महबूब को तो क्या लिखो उसमें?

खुशी की कैंची से कर रहा हूँ
कतरने सुंदर सुबह की
तुम्हारे नाम के सब अक्षर रख रहा हूँ दिल की टोकरी में।
* * *

श्याम परिंदे का, पर टूट गिरे
उजली सी कोई बूंद छू जाए उसे

मुझे रंगों के कंट्रास से सम्मोहन है
और छूना है
तुम्हारे गालों को किसी नाजुकी से।

कुछ न हो तो मुस्कुरा ही दो, कि सुबह खिली है।
* * *

क्या तुमने इस सुबह का चेहरा देखा है
क्या तुम भी पड़ गए हो मेरी ही तरह इसके प्यार में।

कितने तो लोग प्यार से बुलाते हैं तुमको कितने ही नाम से
क्या मैं भी रख दूँ तुम्हारा नाम इस सुबह की शक्ल से मिलता जुलता।
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रात उसने सीने से लग जाने दिया होगा
किसी ओलिया की दी हुई दुआ को
सुबह जागती होगी उसकी वेद मंत्र से ।

इस सुबह में
कई दिलों की प्रार्थना को छूकर आई हवा बह रही है।
* * *

ज़िंदगी जाने किस फूल की है कली
किस रंग में खिला हुआ उसका रूप है

मैं आवाज़ दूंगा तो
उस तरफ जाने किस तरह चटकेगी ये सुबह
इस तरफ जाने कैसे खिलेगा ये दिन नया नया।
* * *

अलसाए पंखों से छिटक कर
गिर पड़ी स्याह उदासी रात की
उड़ गए पंछी, चुगने एक नए दिन को।

मैं अब भी नीम नींद में और
एक तुम्हारा ख्वाब है, आधा जगा हुआ।
* * *

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