धूप के बियाबाँ का दरवाज़ा


सुबह के पाँच बजे हैं। किसी करवट में टूट गयी नींद की कोमल पंखुड़ी। किसी झौंके ने छू लिया बदन। बंद घरों में रास्ते नहीं होते इसलिए कोई गुज़रा होगा, दिल या दिमाग के रास्ते। सहूलियत के प्लास्टर से नहीं चढ़ता प्रेम पर कोई कवच। वह सदा के लिए अनछुआ है, अचरज से भरा और व्याकुल...

जी चाहता है
आपको एक प्रेम कहानी सुनाऊँ .

मगर जाने देता हूँ
कि उसके बारे में फिर जाने क्या क्या कहना होगा।
* * *

मिलना इक बार
ज़रूरी है कि तन्हा हो सकूँ।

सोचूँ तेरे आने का क्या, जाने को तेरे क्या कहूँ।
* * *

वहाँ सब तरफ थीं दरारें
कुछ जाहिर, कुछ जाहिर होने से ज्यादा
गहरी पसरी हुई थी चुप्पी,
कोई इक खूबसूरती से जाने कैसे चटक रहा था।

इस ठहरे हुये से मौसम में
मैं खुद को देखता हूँ, मैं खुद को सोचता हूँ।
* * *

स्मृतियों का महीना
धूप के बियाबाँ का दरवाज़ा खुलने से
पहले के दिन।
* * *

कुहासे में स्वरों का वृंद
जीवन यात्रा का सम्मोहन।

रेगिस्तान की
शीत भरी सुबह में
एक परिंदा
चुप।

भोर, अलसाई हुई, वलय निद्रा का।

तुम कहीं नहीं, तुम ही हर कहीं।
* * *

मुझे नहीं मालूम,
उस बियाबाँ में
कैसा होता है, सफ़र ज़िंदगी का।

बुझ चुके हसरतों के तंदूर में बची हो कालिख
खो गए हों अरमानों की राख़ में वक़्त के टुकड़े
दूर तक न दिखाई दे शक्ल, आने वाले कल की
और जी न सके कोई किसी भी तरह।

मालूम है सिर्फ इतना कि
उस घड़ी चाहिए तुम्हारी आवाज़ कि मैं हूँ।
* * *

उसे नहीं मिलना था मुझसे,
मुलाक़ात के बारे में ऐसा पहली दफ़ा तय था।
* * *

जब आप गुज़रते हैं
पत्थर का सीना चीरती हुई सुरंग से
तब बना रहता है पहाड़ का बोझ आप पर।

कहो, मेरे दिल को चीर कर
उस पार जाने के बाद कैसा लग रहा है?
* * *

[तस्वीर : शहर, जिसे दिल्ली कहते हैं]