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Showing posts from December, 2012

जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहां से दूर

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मैंने फेसबुक पर अपनी प्रोफ़ाइल पिक्चर बदल ली है मगर ये शोक और विरोध का प्रतीक काला डॉट नहीं है। इस शर्मसार कर देने वाले अमानुषिक कार्य की भर्त्सना करता हूँ लेकिन मैं काला डॉट नहीं लगाना चाहता हूँ। ऐसा न करने के पीछे कुछ कारण हैं। सबसे पहला कारण है कि मैं बाहरी लक्षणों की जगह मूल व्याधि के उपचार का पक्षधर हूँ। मैं चाहता हूँ कि ज्वर पीड़ित समाज के तापमान को कम किया जाना चाहिए लेकिन उससे भी आवश्यक कार्य है कि ज्वर के कारणों की पहचान कर उनका उचित उपचार किया जाए। समाज की संरचना और उसके चरित्र को बुनने वाले कारकों पर गहन दृष्टिपात किया जाए। चिंताजनक स्थिति में ठहरा हुआ हमारा ये समाज शारीरिक और मानसिक रूप से रुग्ण हो चुका है। इस स्थिति से घबराकर, भयभीत होकर और अनिष्ट की आशंकों से घिर कर हम चिल्ला रहे हैं। इस सामाजिक स्थिति के जो कारण हम गिना रहे हैं, वे इसके वास्तविक कारण नहीं है। इस स्थिति के संभावित उपचार भी वे नहीं है जिनकी हम मांग कर रहे हैं।  आपकी स्मृति में अब तक यह ठीक से होगा कि जब तक सरकारी विध्यालय नहीं थे, हम पोशालों में पढ़ा करते थे। ये पोशालें क़स्बों, गांवों और गलियों मे

क्रश का फिर से मुझ पर टूट पड़ना

हाय !! ये क्या हाल हुआ? मैं फिर से उसकी सूरत के सम्मोहन में खो गया। इसी साल मार्च में उस पर पहली बार ध्यान गया था। उसके गले में एक चोकोर ताबीज़ बंधा था। चाँदी का चमकता हुआ वह ताबीज़ हल्के सलेटी कुर्ते के रंग को बेहतरीन कंट्रास दे रहा था। उसकी भोंहें धनुष जैसी, दाँत सफ़ेद और रंग गोरा। उसे देखते हुये कल अचानक से याद आया कि हाँ ये वही है। साल भर पहले भी मैं इसी सूरत में खोया हुआ था कि वही लंबा, दुबला और आकर्षक बदन। मैंने कई कहानियाँ सोची कि कच्छ के पास पसरी हुई नमक से भरी चमकीली धरती पर इसका साया कैसा दिखाई देता होगा। इसके कंधे पर रखा हुआ लाल और काले चेक का बड़ा सा स्कार्फ अगर किसी के गालों को छू जाए तो कैसा लगेगा। काश कि मैं इसके पास बैठूँ और कहूँ कि तुम सबसे सुंदर हो। मुझे प्रिय हो और वह डर कर भाग जाए और मैं प्रणय निवेदन गाते हुये पीछा कर सकूँ। मैं खो ही जाऊँ इसे खोजते हुये। पिछले साल के इस क्रश का फिर से मुझ पर टूट पड़ना सच एक बड़ा सितम ही है। मैंने रिकॉर्ड करते समय सोचा कि मैं इसका नाम न पूछूंगा कि मेरा क्रश जाता रहेगा। इस तरह जान पहचान बढ्ने से आकर्षण की मृत्यु हो जाएगी।

साहेब, इंडिया ले चलो

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"जब आप मीरपुर खास के भिटाई कस्बे में पहुंचेंगे तो चौराहे के ठीक बीच में एक तम्बूरा आपका स्वागत करेगा। तंबूरे की विशाल प्रतिमा वाली इस जगह का नाम भी तम्बूरा चौराहा है।" मुझसे ऐसा कहते हुये संगीत के साधक नरसिंह बाकोलिया के चेहरे पर तंबूरे की विशाल प्रतिमा से भी बड़ा सुख उतर आया।  "मैं मई में पाकिस्तान गया था। शंभू नाथ जी के साथ पंद्रह दिन मीरपुर खास के क़स्बों में उनके शिष्यों की आवभगत में रहने के बाद एक शाम संगीत की बात चल पड़ी। ठीक उसी शाम से उन महफिलों का दौर शुरू हुआ जिनमें भाषा और सियासत की सरहदों के निशान भूल गए। अगले पंद्रह दिन मेरा मिलना ऐसे लाजवाब संगीतकारों और रसिकों से हुआ कि मुझे दिन और रात छोटे जान पड़ने लगे। वे गरीब लोग हैं। मगर बहुत सम्मान देते हैं। इतना सम्मान मैंने कभी अपने घर आए प्रिय से प्रिय को न दिया होगा। उनका जीवन बहुत कठिन है। वहाँ अब भी बरसों पुराने घरों जैसे घर हैं। वैसी ही रेत उड़ती है। वैसे ही घरों में साग छोंके जाने की खुशबू आती है। उनका पहनावा मगर अलग है कि वे सलवार कुर्ता और सर पर टोपी पहनते हैं। किसी काम में डूबे हुये आदमी

वाह वाह गुज़रा फ़कीरां दा...

तुम ठीक हो, मैं खराब हूँ। मगर गफूर ख़ान मांगणियार और जमील ख़ान की आवाज़ में कुछ सुनोगे? कुछ सूफ़ी.... जैसा मुझ कमअक्ल को समझ आता है, वैसा अर्थ कर दिया है। इस दुनिया ने दिखावे में दाढ़ी को सफ़ेद कर लिया है और पराया माल खाने वालों को सब्जी भी मीठी लगती है। न कभी मंदिर मस्जिद गया, न ही कभी कब्र का अंधेरा देखा, बुल्ले शाह कहता है तुझे उस दिन मालूम होगा जब मुंह पर (कब्र की) मिट्टी गिरेगी। ज्ञान की हजारों किताबें खूब पढ़ी, अपने आपको कभी पढ़ा ही नहीं। दौड़ दौड़ के मंदिर और मस्जिद गया मगर ख़ुद के मन में घुस कर कभी देखा ही नहीं। इस तरह लड़ता है शैतान से आदमी, यूं कभी खुद से तो लड़ा ही नहीं। बुल्लेशाह कहता है आसमान कब पकड़ में आया है कि मन में बसे हुये को छूकर देखा ही नहीं किया। प्रिय हो प्रिय का सम्मान भी हो, वहीं मित्रता निभाने का सुख भी हो मित्रता निभाने वाली ऐसी जगहों पर ही पीर और फरीद बसते हैं। वाह वाह हम फ़कीरों का ज़िंदगी को इस तरह बिताना वाह वाह हम अमीरों का ज़िंदगी को इस तरह बिताना कि हम कभी मांग मांग कर रोटियों के टुकड़े खाते हैं, कभी हम अमीरों का भोज करते हैं कभ

के वतन बदर हों हम तुम

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मनुष्य की बुद्धि में एक दौड़ बैठी हुई है। वह हरदम इसी में बना रहता है। दौड़ने का विषय और लोभ कुछ भी हो सकता है। इस दुनिया की श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त करने की इस दौड़ में दौड़ते हुये को देख कर हर कोई मुसकुराता है। उसकी मुस्कुराहट इसलिए है कि वह दौड़ रहे आदमी के अज्ञान पर एक अफसोस भरी निगाह डाल लेता है। अगर कोई धन के लिए दौड़ रहा है तो दूसरा आदमी सोचता है कि इसके साथ धन कहाँ तक चलेगा। अगर कोई यश की कामना लिए दौड़ रहा है तो विद्वान आदमी सोचता है कि यश एक अस्थायी चीज़ है। एक दिन इसका साथ छोड़ जाएगी। जो आदमी ज्ञान के लिए लगा है उसे देखते हुये कोई आलसी सोचता है कि इसने आराम तो किया ही नहीं ऐसे ही पढ़ते हुये खप जाएगा। इस तरह के अनिश्चित परिणाम वाली एक दौड़ हम सबके भीतर जारी रहती है। हम सब उसके सही या गलत होने के बारे में कोई खास यकीन नहीं ला सकते है। मगर मुझे जब कोई इस तरह दौड़ते हुये रोक लेता है तब थोड़ी झल्लाहट के बाद मैं सुकून पाने लगता हूँ। परसों रेलवे क्रॉसिंग के पास रोक लिया गया। मुझसे पहले भी बहुत सारे लोग खड़े थे। मैं पुराने शहरों की संकरी गलियों में रास्ता खोजते जाने के अ

आबूझ राजा राज करे...

ख़ुशगवार मौसम। धूप ज़रा सख्त लेकिन छांव सर्द अहसास लिए हुये। भुट्टा खाँ के कानों में सोने के गोखरू चमकते हैं। मुझे देख कर मुसकुराते हुये अपने कानों को छूते हैं फिर अपने गले पर ऐसे हाथ फेरते हैं जैसे ख़ुद के गले को प्यार कर रहे हों। इशारा ये था कि आज आवाज़ ने धोखा दे रखा है। मैं इशारे से कहता हूँ कि आप फ़नकार हैं आवाज़ को पकड़ लाएँगे, जहां भी होगी। वे फिर मुसकुराते हैं। कल सुबह मैं एक अनचाहा ख्वाब देख कर जागा था। आज के इस वक़्त भी मैं कुछ भूल जाने जैसी कोशिश में था। लेकिन जो अनिश्चय था वह मुझे बरगला रहा था। मुझे नहीं मालूम कि मैं क्या चाहता था और क्या नहीं? दोपहर के तीन बजे थे। दफ़्तर का काम अपनी लय में डूबा था और मैं अपने ख़यालों की दुनिया में खोया हुआ था। एक डे-ड्रीमर के पास दो दुनिया होती है। उसका निष्क्रमण जारी रहता है। मुझे कुछ चाहिए था। एक सर्द से स्टूडियो में शीशे के उस पार से कोई गरम गुनगुना स्वर आया। मुझे पहला अंतरा सुनते ही लगा कि दवा मिल गयी है। ये इस बेवजह की उदासी को छांट देगी। रेकॉर्ड होते ही मैंने टॉक बैक पर अपनी तर्जनी अंगुली रखी- "आप बहुत खूब गाते हैं। आपने म

दफ़अतन शैतान की प्रेमिका का आना

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शैतान ने कई दिनों तक चाहा कि एक तमीजदार आदमी होने की जगह वह सब कुछ भूल जाए। वे सारे शुबहा जो उसे अक्सर रोकते थे मगर वह एक शैतान होने कि ज़िद में उन सब को किनारे करता हुआ रात की बाहों में सर्द अंगारे रख कर सो जाया करता था। उन सब बेतरतीब मगर ख़ूबसूरत रातों में एक हसीन दोशीजा के होने का अहसास साथ बना रहता था। हालांकि उसने कई बार इस बात पर शक़ जाहिर किया था कि तुम नहीं हो मगर उधर से आवाज़ आती कि मैं हूँ।  आज सुबह होने से पहले के पहर में एक ख्वाब देखा। ख्वाब क्या कहिए कि वह पहली नज़र में किसी हसरत की छाया सा कुछ था। याद के पहले हिस्से में जो बचा हुआ है उसमें लंबे पलंग पर शैतान की प्रेमिका अधलेटी थी। पेंट करने के लिए दो प्याले रखे थे। शैतान उन दो प्यालों में भरे हुये एक ही रंग को देख कर हैरान हो गया। उसने चाहा कि इस बात का खुलासा हो सके इसलिए शैतान की प्रेमिका को अपने हाथ में पकड़ी हुई कूची से कुछ रंग केनवास पर उतारने चाहिए। लेकिन उसने साफ मना कर दिया। उसके चहरे पर एक अजब उदासी का रंग था। यह कोई सलेटी जैसा रंग था। शैतान को याद आया कि क्या उसका प्रिय रंग सलेटी है?  शैतान की प्रेमिका

गोली मार दो, क्या रखा है?

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दोपहर होने तक फरेब से भरे इश्क़ की दास्तां के पहले तीस पन्ने पढे थे। एक गहरी टिंग की आवाज़ आई। फोन की रिंग ऐसे ही बजती है। किसी निर्विकार, निर्लिप्त और संवेदनहीन हरकारे की आवाज़ की तरह। रिंग दोबारा बजने के बीच भी एक लंबा अंतराल लेती है। मैंने रज़ाई से दाहिना हाथ ज़रा सा बाहर निकाल कर बिस्तर को टटोला कि फोन कहाँ रखा है। दोस्त का फोन था। फोन पर हुई लंबी बातचीत में भरपूर गोता लगा आने के बावजूद कहानी जहां छूट गयी थी मैं वहीं पर अटका हुआ था।  चार बजे एक अखबार के दफ्तर में बैठा था।  अखबार वाले मुझे एक हज़ार शब्द लिखने के एवज़ में ढाई सौ रुपये देते हैं। मुझे ये न्यूनतम मजदूरी से भी कई गुना नीचे का मामला लगता है। लेकिन इस अखबार के लिए मैं इन चंद रुपयों के लिए नहीं लिखता हूँ। ये दिनेश जोशी का कहा हुआ है, इसलिए लिखता हूँ। "अहा ज़िंदगी" वालों ने एक कवर स्टोरी लिखने के दो हज़ार रुपये दिये थे। मैंने उस चेक को केश करा लिया मगर उस मित्र को खूब सुनाया, जिसने ये स्टोरी मेरी रज़ा के खिलाफ़ मुझसे ही सिर्फ दो दिन में लिखवाई थी। इतनी बड़ी पत्रिका को चार हज़ार शब्दों का मोल आठ आने प्रत

वो एक तस्वीर थी

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एक श्वेत श्याम स्थिर छवि।  वह गायक इसी लम्हे को जीने के लिए क़ैद कर लिया गया था। मगर वह जा चुका था। उसकी आवाज़ का कौमार्य शेष रह गया था। बार बार आलिंगन में बांध लेने और आवाज़ के होठों पर बोसे दिये जाने के लिए। आवाज़ की खनक से उदासी बुनने के हुनर के कारण कई लोगों ने खिड़की के बाहर देखते कितनी ही शामें बुझा दी होंगी। मुझे आवाज़ की भाषा की रेशमी तारबंदी के पार जाने का मन हुआ। ज़रूरी नहीं था कि पश्चिम के संगीत से ही बड़े खाली कमरों वाले घर की रात को भरा जा सकता हो, उदासी से। मैंने एक कमायचा के उस्ताद की छवि को उसी जगह रखा दिया। आवाज़ फिर भी वैसी ही थी। मन के गहरे से आती कोई पुकार। प्रेम करने का अनुरोध। कोई बिना ज़ुबान के बोलता हुआ कि आओ मेरे बदन को अपनी बाहों में भर लो। मुझे भिगो डालो। अजगर की तरह कस लो उस लम्हे तक के लिए जब तक कि भीतर की सारी हसरतों और दुखो का चूरा न हो जाए।  वो श्वेत श्याम छवि एक मरे हुये आदमी की थी। वो आवाज़ नहीं थी, संगीत का एक टुकड़ा था, वह एक खूबसूरत दुख था, सफ़ेद काला रंग था।  वो आवाज़ कुछ नहीं थी। एक नन्ही लड़की को चूम लेने या फिर उसे ऐसे ही जाने द

न आओगे मगर सुना है

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जिनके हिस्से में ज़िंदगी बची रहती है, उनके हिस्से में रात भी आ जाया करती है। और रात के ग्यारह भी बजा करते होंगे अगर वे गुज़र न रहे हों किसी के ख़याल से। मैंने कल की रात सर्द रातों की आमद की खुशी में ओढ़ ली थी एक नए गिलाफ़ वाली रज़ाई जैसे किसी त्योहार पर घर में आते हैं नए कपड़े और दर्जियों की अंगुलियों की खुशबू के साथ चली आती है, खोये हुये घरवालों की भीनी याद। कल की रात दायें पाँव के नीचे दबा हुआ रज़ाई का एक सिरा चुभता रहा कुछ देर ऐसे जैसे कि शाम हुये घर आया हूँ और कोई याद का टुकड़ा आ बैठा है किसी असमतल भूगोल की तरह। सिर्फ दुखों की काली परछाई से नहीं बनी होती कोई रात  और हर सुबह नहीं खिलती किसी अविश्वसनीय उम्मीद की तरह  फिर भी हर तरह की शिकायतों और बेसलीका उदासियों के बीच  मैंने किसी मौसमी चिड़िया की तरह पाया है, तेरी याद को।    जिस तरह कई साल बीत गए हैं यूं ही उसी तरह मैंने कर दिया एकतरफ रज़ाई का किनारा, मगर सो न सका कि दीवार पर हथेलियाँ रखता हुआ कोई आता रहा करीब अंधेरे में और मैं बेढब रास्ते में चलते हुये हर बार गिरता रहा, चौंक कर खुलती रही नींद।