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Showing posts from September, 2012

यही रोज़गार बचा है मेरे पास

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मेरे कंधे पर शाम की छतरी से टूट कर दफ़अतन गिरा एक लम्हा था। एक चादर थी, चाँद के नूर की और उसकी याद का एक टुकड़ा था। मैं उलटता रहा इंतज़ार की रेतघड़ी। रात के बारह बजे उसने कहा ये मुहब्बत एक जंगल है और तुम एक भी पत्ती नहीं तोड़ सकते। नहीं ले जा सकते अपने साथ कुछ भी... याद ने खाली नहीं किया बेकिराया घर मैं उम्मीद की छत पर टहलता ही रहा। पड़ोस की छतों पर बच्चे सो गए केले के छिलकों की तरह रात का कोई पंछी उड़ रहा था तनहा।   मेरे सेलफोन के स्क्रीन पर चमकते रहे थे चार मुकम्मल टावर जैसे किसी कॉफिन के किनारे लगे हुए पीतल के टुकड़े। और एक वहम था आस पास कि किसी को आना है। *** पाप की इस दुनिया में दुखों की छड़ी से हांकते हुए ईश्वर ने लोगों से चाहा कि सब मिल कर गायें उसके लिए। शैतान ने अपना अगला जाम भरते हुए देखा कि ईश्वर की आँखें, उससे मिलती जुलती हैं *** तुम ख़ुशी से भरे थे कोई धड़कता हुआ सा था तुम दुःख से भरे थे कोई था बैठा हुआ चुप सा. *** सब कुछ उसी के बारे में है चाय के पतीले में उठती हुई भाप बच्चों के कपड़ों पर लगी मिट्टी अँगुलियों में उलझा हुआ धागा खिड़क

आभा का घर

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मुझे बहुत सारे बच्चे याद आते हैं। अपनी मम्मा की साड़ी, ओढ़ना, चुन्नी और बेड कवर जैसी चीजों से घर बनाने का हुनर रखने वाले बच्चे। वे सब अपने घर के भीतर किसी कोने में, सोफे के पास, छत पर या जहाँ भी जगह मिलती, घर बनाने में जुट जाते। वे वहीं सुकून पाते। वे सब बच्चे एक बड़े से बिस्तर पर इस बात के लिए लड़ते कि देखो दीदी ने मेरे पैर को छू लिया। भैया से कहो अपना हाथ हटाये। दूर सरक कर सो ना, यहाँ जगह ही नहीं है। वे ही बच्चे अपने बनाये हुए घर में घुटनों को मोड़े हुए ख़ुशी से चिपके रहते हैं।  मैंने उन बच्चों को देखा लेकिन कभी सोचा नहीं कि एक घर बनाया जाना जरुरी है। पापा ने चार बेडरूम का दो मंजिला घर बना रखा है। यह एक पुराना घर है मगर इसमें कोई तकलीफ़ नहीं है। इसमें बीते सालों की बहुत सारी खुशबू है, बहुत सारी स्मृतियाँ हैं खट्टे मीठे दिनों की, इसमें हमारे गुम हुए बचपन की परछाई है. हम सब इस घर में सुकून पाते हैं।  आभा मुझसे बेहतर है, वह हर हाल में खुश और सलीके से रहने का तरीका जानती है। उसने कभी कहा ही नहीं और मैंने कभी सोचा ही नहीं कि घर बनाना चाहिए। ज़िंदगी का अप्रत्याशित होना कितना अच

तुम्हारे लिए

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तुम्हारे लिए  एक खुशी है  फिर एक अफसोस भी है  कि कोई लगता है गले और  एक पल में बिछड़ जाता है।  खिड़की में रखे  सलेटी रंग के गुलदानों में  आने वाले मौसम के पहले फूलों सी  इक शक्ल बनती है, मिट जाती है।  ना उसके आने का ठिकाना  ना उसके जाने की आहट  एक सपना खिलने से पहले  मेरी आँखें छूकर सिमट जाता है।  कल रात से  मन मचल मचल उठता है,  ज़रा उदास, ज़रा बेक़रार सा कि ये कौन है  जो लगता है गले और बिछड़ जाता है।  एक ख़ुशी है, फिर एक अफ़सोस भी है। * * * मैंने इंतज़ार की फसलों के कई मौसम गुज़रते हुये देखे हैं। उदासी के सिट्टों पर उड़ती आवाज़ की नन्ही चिड़ियाओं से कहा। यहीं रख जाओ सारा इंतज़ार, सब तरफ बिखरी हुई चीज़ें अच्छी नहीं दिखती।  उसी इंतज़ार की ढ़ेरी पर बैठे हुये लिखी अनेक चिट्ठियाँ। उसने चिट्ठियों पर बैठे शब्दों को झाड़ा और उड़ा दिया खिड़की से बाहर। मैंने दुआ की उसके लिए कि कभी न हो ऐसा कि वह ढूँढता फिरे उन्हीं शब्दों की पनाह।  

फिर से आना जरुरी है

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एक छोटे से जीवन में कितने तो लोग आते हैं और जाने कितना कुछ टूटता बिखरता जाता है। किसी भी नुकसान की भरपाई कभी नहीं होती। कुछ नुकसान तस्वीरों की शक्ल में पड़े रहते हैं किताबों के बीच या बंद दराज़ों में, बाकी सब दिल की टूटी फूटी दीवारों पर, गीली भीगी आँखों में। कुछ लोग किसी दुआ की तरह आते हैं और फिर हवा के झौंके की तरह चले जाते हैं। हमारे साथ फिर भी सारी दुआएं चलती ही रहती हैं, बरगद की छाँव जैसे शामियाने की तरह। दुःख बनाये रहते हैं दुआओं के बरगद की जड़ों में अपनी बाम्बी कि ज़िंदगी कभी भी दोनों तरफ़ से एक जैसी नहीं हुआ करती है। कुछ जो जीवन में आते हैं अचरज और हैरत की तरह, वे ज़िंदगी के मर्तबान से चुरा ले जाते हैं सारे अहसास, बचा रहता है उदासी से भरा हुआ तलछट, सूना और बेरंग। बस ऐसे ही हो जाते हैं सब दिन रात। कोई करता रहता है इंतज़ार कि उन गए हुये लोगों के लिए एक दावत कर सके। मगर ये ख़्वाहिश कभी नहीं होती पूरी कि उसके लिए उनका फिर से आना ज़रूरी है। हैरत और अचरज की तरह। 

शगुफ्ता शगुफ्ता बहाने तेरे

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मु झे लंबी छुट्टी चाहिए कि मैं बहुत सारा प्रेम करना चाहता हूँ। मैंने सुकून के दिन खो दिये हैं। मैंने शायद लिखने के आनंद को लिखने के बोझ में तब्दील कर लिया है। मैं किसी शांत जगह जाना चाहता हूँ। ऐसी जगह जहां कोई काम न हो। जहां पड़ा रहूँ बेसबब। शाम हो तो कभी किसी खुली बार में बीयर के केन्स खाली करता जाऊँ या फिर कभी नीम अंधेरी जगह पर विस्की के अच्छे कॉकटेल मेरे सामने रखे हों। कभी न खत्म होने वाली विस्की... सपने में आई उस सुंदर स्त्री के केश खुले हुए थे और वे दोनों कंधों के आगे पीछे बिखरे हुए थे. ऐसा लगता था कि उन केशों को इसी तरह रहने के लिए बनाया हुआ था. सपने में उस स्त्री का कोई नाम नहीं था. उसके बारे में बात करने के लिए मान लेते हैं कि उसका नाम गुलजान था.    जब उसकी चीखने जैसी आवाज़ सुनी तब मैं स्नानघर में नहा चुका था या शायद नहाने की तैयारी में था. वह आवाज़ हमारे सोने वाले कमरे से आई थी. मैंने तुरंत स्नानघर का दरवाज़ा खोला और एक तोलिया लपेटे हुए कमरे की तरफ आया. जिस जगह पर खड़ी होकर आभा साड़ी बांधती हैं. उसी जगह, उसी अलमारी की तरफ मुंह किये हुए गुलजान खड़ी थी. उसके पास ही

नहीं जो बादा-ओ-सागर

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वह एक उच्च प्राथमिक विद्यालय था. चारों तरफ हल्की भीगी हुई रेत के बीच तीन कमरों के रूप में खड़ा हुआ. सुबह के दस बजने को थे. विद्यालय भवन की चारदीवारी के भीतर कई सारे नीम के पेड़ थे. कुछ एक जगह नए पौधे लगे हुए थे. उनकी सुरक्षा के लिए सूखे हुए काँटों से बाड़ की हुई थी. विद्यालय के मुख्य दरवाज़े के आगे बहुत सारे चार पहिया वाहन खड़े हुए थे. मैदान के ठीक बीच में बने हुए प्रार्थना मंच पर रंगीन शामियाना तना हुआ था. रेगिस्तान में दूर दूर बसी हुई ढाणियों के बीच के इस स्कूल में लगे हुए साउंड एम्प्लीफायर से कोई उद्घोषणा किये जाने का स्वर हवा में दूर तक फेरा लगा रहा था. गाँव भर के मौजीज लोग और आम आदमी सलीके से रखी हुई कुर्सियों पर बैठे हुए थे. कोई दो सौ लोगों की उपस्थिति का सबब था एक वृत्त स्तरीय विद्यालयी खेलकूद प्रतियोगिता का समापन समारोह.  मैं सितम्बर महीने में हर शहर और कस्बे में देखा हूँ कि किशोरवय के लड़के लड़कियों के दल अपने विद्यालय का झंडा लिए हुए गंतव्य की ओर बढ़ते जाते हैं. वे अक्सर विद्यालय गणवेश में ही होते हैं. कुछ एक विद्यालय भामाशाहों से आर्थिक सहायता जुटा कर इन नन्हे बच्चो

इन्हीं दिनों

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इन्हीं दिनों  मैंने अपने क़बीले के सदर से कहा कि एक टूटी हुई टांग वाला भेड़िया हो जाना और फिर घिर जाना तूफ़ान में कैसा होता है? इन्हीं दिनों उस बूढ़े आदमी की तवील ख़ामोशी के बीच दुनिया के किसी कोने में एक लंबी दाढ़ी वाले आदमी की खूनसनी वसीयत लिए कोई हँसना चाहता था क़यामत जैसी हंसी मगर वह किसी पहाड़ की गुफा से आती अधमरे लकड़बग्घे की खिसियाई हुई आवाज़ थी। इन्हीं दिनों एक बड़े कबीले ने कहा आओ हम दोनों मिलकर बनाए नए हथियार। उसी पल सदर ने ज़िंदगी भर के राज में पहली बार आँख मारी और अपनी कामयाबी पर खींची एक छोटी मुस्कान की लकीर। इन्हीं दिनों कुछ लोग हाथों में लिए हुये त्रिशूल मार डालना चाहते थे, उस लकड़बग्घे को ताकि वे हंस सकें उसकी जगह क़यामत की हंसी। इन्हीं दिनों मैंने अपना सवाल ले लिया वापस और कहा कि आपकी टांगों में कमजोरी है मगर आपसे बेहतर कोई नहीं है। कि जब मैंने चाहा था चुरा लूँ हनुमान जी की लाल लंगोट और उसे बना लूँ परचम तब मेरे ही कबीले के लोग हो गए थे मेरे खिलाफ़ कि देवताओं के अपमान से बेहतर है नरक जैसा जीवन जीते जाना। इन्हीं दिनों मेरे

वे फूल खिले नहीं, उस रुत

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मैंने ऊंट से कहा कि रेगिस्तान की धूल का कोई ठिकाना तो होता नहीं फिर किसलिए हम दोनों यहीं पर बैठे हुए अच्छे दिनों का इंतज़ार करें. ऊंट ने कहा कि मैंने कई हज़ार साल जीकर देखा है कि कहीं जाने का फायदा नहीं है. इस बाहर फैले हुए रेगिस्तान से ज्यादा बियाबान हमारे भीतर पसरा हुआ है. देखो यहाँ से उफ़क़ कितना साफ दिखता है. रात में यहाँ से तारे भी कितने ख़ूबसूरत नज़र आते हैं. ऊंट की इन्हीं बातों को सुन कर इस सहरा में रहते हुए मुझे ख़ुशी थी कि सुकून के इस कारोबार पर शोर की कोई आफ़त नहीं गिरती.  हम दोनों ने मिल कर एक पेड़ के उत्तर दिशा में घास फूस से छोटी झोंपड़ी बनाई. ऊंट मुझे कोई छः महीने पहले एक कुंए के पास प्यासा बैठा मिला था. इससे पहले वह किसके साथ था? ये मुझे मालूम नहीं मगर ये उसी शाम की बात है. जिस सुबह दिन के उजाले में कौंध गई एक रौशनी से डर कर रेगिस्तान के इस कोने में छुप गया था. हम दोनों दिन में एक बार रोहिड़ा के पेड़ का चक्कर काट कर आते थे. मैंने ऊंट से कहा था कि जिस दिन इस पर गहरे लाल रंग के फूल खिल आयेंगे, हम दोनों पूरब की ओर चल देंगे. फूल मगर इस रुत नहीं आये.  ऊंट

आदिम प्यास से बना रेगिस्तान

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रेगिस्तान समंदरों के पड़ोसी है मगर पानी नहीं है इसलिए ये रेगिस्तान हैं। मैं रेगिस्तान में ही जन्मा और फिर इसी के इश्क़ में पड़ गया। मुझे अगर कोई रेगिस्तान के किसी दूर दराज़ के गाँव, ढ़ाणी से निमंत्रण मिले तो मैं वहाँ जाने के लिए व्याकुल होने लगता हूँ। लोग हरियाली और समंदरों को देखने जाते हैं। मैं अपनी इस जगह की मोहब्बत में गिरफ्तार रहता हूँ। शोर और खराबे से भरी दुनिया में सुकून की जगहें रेगिस्तान के कोनों में ही मिल सकती है। साल उन्नीस सौ पिचानवें की गर्मियों के आने से पहले के दिन रहे होंगे कि राज्य सरकार की ओर से एक जल परियोजना का उदघाटन किया गया था। पानी का मोल रेगिस्तान समझता है। इसलिए इस आयोजन का भी बड़ा महत्व था। इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग के लिए जाते समय मैंने अद्भुत रेगिस्तान की खूबसूरती को चुराना शुरू कर लिया। रास्ते की हर एक चीज़ को देखा और उसे रंग रूप को दिल में बसा लिया। सड़क के दोनों तरफ बबूल की झाड़ियाँ थीं। जिप्सी के खुले हुए कांच से भीतर से आती हुई हवा बहुत तेज थी। गर्मी से पहले का मौसम था। सड़क निर्जन थी। कोलतार पर गिर कर परावर्तित होती हुई उगते सूरज की चमक रि

तुम्हारे सिवा कोई अपना नहीं है

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वे अलसाई नन्हीं आँखों के हैरत से जागने के दिन थे. बीएसएफ स्कूल जाने के लिए वर्दी पहने हुए संतरियों को पार करना होता था. उन संतरियों को नर्सरी के बच्चों पर बहुत प्यार आता था. वे अपने गाँव से बहुत दूर इस रेगिस्तान में रह रहे होते थे. वे हरपल अपने बच्चों और परिवार से मिल लेने का ख़्वाब देखते रहे होंगे. वे कभी कभी झुक कर मेरे गालों को छू लेते थे. उन अजनबियों ने ये अहसास दिया कि छुअन की एक भाषा होती है. जिससे भी प्यार करोगे, वह आपका हो जायेगा. लेकिन जिनको गुरु कहा जाता रहा है, उन्होंने मुझे सिखाया कि किस तरह आदमी को अपने ही जैसों को पछाड़ कर आगे निकल जाना है.  मुझे आज सुबह से फुर्सत है. मैं अपने बिस्तर पर पड़ा हुआ सूफी संगीत सुन रहा हूँ. इससे पहले एक दोस्त का शेयर किया हुआ गीत सुन रहा था. क्यूँ ये जुनूं है, क्या आरज़ू है... इसे सुनते हुए, मुझे बहुत सारे चेहरे याद आ रहे हैं. तर्क ए ताअल्लुक के तज़करे भी याद आ रहे हैं. मैं अपनी ज़िंदगी से किसी को मगर भुलाना नहीं चाहता हूँ. उनको तो हरगिज़ नहीं जिन्होंने मुझे रास्ते के सबब समझाये. नौवीं कक्षा के सर्दियों वाले दिन थे. शाम हुई ही थी कि ए

उनींदे की तरकश से

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किसी शाम को छत पर बैठे हुये सोचा होगा कि यहाँ से कहाँ जाएंगे। बहेगी किस तरफ की हवा। कौन लहर खेलती होगी बेजान जिस्म से। किस देस की माटी में मिल जाएगा एक नाम, जो इस वक़्त बैठा हुआ है तनहा। उसको आवाज़ दो। कहो कि तनहाई है। बिना वजह की याद के मिसरे हैं। रेगिस्तान में गीली हवा की माया है। पूछो कि तुम कहीं आस पास हो क्या? अगर हो तो सुनो कि मेरे ख़यालों में ये कैसे लफ़्ज़ ठहरे हैं.... तुम्हारे आने तक  सब्र के आखिरी छोर पर रखा एक तवील उफ़ एक काले रंग का रेगिस्तान का तूफ़ान। **** चूने की मूरत  उखड़ती हुई पपड़ियों से झांकते अतीत के ललाट पर लिखी हुई सदमों की कुछ छोटी छोटी दास्तानें। *** जादूगरी   तनहा बैठे गरुड़ के पंखों के नीचे छुपी हुई उदासी जैसी, सीले दिनों की कोई शाम  रखता हूँ अपने पास कई बार ख़ुशी के लिए ऐसे टोटके काम आ जाते हैं। **** किस्मत वे अनगिनत तीर उड़ गए थे किसी उनींदे की तरकश से उन पर लिखा था जाने किसका नाम मगर हवा बह रही थी, मेरी ही तरफ। *** अज्ञान  मुसाफिर जानता है सूरज बुझ जायेगा रेत के कासे के पीछे प्रेम को इसके बारे में, कुछ भी नह