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Showing posts from March, 2012

इस बात का एतबार नहीं है...

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पहाड़ पर बैठ कर उसकी सख्ती के बारे में सवाल नहीं करने चाहिए. उसकी मज़बूरी के बारे में सोचना चाहिए कि उसके पास इंतज़ार के सिवा कोई चारा नहीं है, वरना नदियाँ किसे प्यारी नहीं होती. बेवजह की बातें... देखो अँधेरे में इन तारों को और मैं देख रहा हूँ अँधेरे में चमकते हैं, तारे. रुखसत कर दो, तकलीफ़ का ख़याल दिल से और मैं तकलीफों पर लगाने लगा, लाल निशान. कि कल रात मुझे लगा, तुम बैठी हो कुर्सी के हत्थे पर टिकाये कोहनी और मैंने ले रखा है, सहारा, कुर्सी के पायों का. * * * ओ रॉल्फ सायमन स्कूल में आखिरी बैंच पर बैठती है, कोई लड़की क्या उसके पास बची है थोड़ी खाली जगह, थोड़ा सा धैर्य ? ओ केथरीन बर्कले अब कितने चुम्बन दूर रह गया है, सोम के युद्ध का मैदान. ओ लेफ्टिनेंट फ्रेडरिक हेनरी कहां गयी शराब, कहां गयी औरतें और कहां गयी नींद. * * *

तुम लौटा नहीं सकते

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कितने साल हो गए कोई सस्ता सा लतीफा सुनाये हुए और आख़िरी बार कई बरस पहले दिल्ली के एक ढाबे पर दोस्त को दिया था धक्का. कितना ही वक़्त हो गया दस बीस लोगों के बीच बैठे हुए कि खो दिए दोस्त और किसी एक झूठी बात के लिए रोते ही रहे. तुम लौटा नहीं सकते बरबाद दिनों को और मैं भूल भी नहीं सकता हूँ उनको.  मुश्किलों के बाद सख्त हो गया है दिल कहो अब करें भी क्या इसका कि इसे छूना नहीं चाहता है, कोई संगतराश.   हालाँकि आदमी आया नहीं है दुनिया में खिलने फूल की तरह उसे उठानी है आसमान को छूती हुई मेहराबें ईमान की, उसे खिलानी है रौशनी इल्म की.  मगर उम्मीद बाकी है, मेरे पास कि एक नन्हीं लड़की के हाथ में है जादू चीज़ों को वापस असल शक्ल में लाने का. हालाँकि कोई भी लौटा नहीं सकता है, किसी के बरबाद दिनों को. * * * [Image courtesy : Satya]

तुम भी देखना उचक कर...

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ये क्या हुआ है मुझको कि कागज ख़राब किये जाता हूँ. इससे तो पहले बेहतर था कि चुप रहते थे. कब से बैठा हूँ कि छंट जाये अल्लाह मियां की भेजी हुई गर्द मगर वह फिर मसरूफ़ हो गया लगता है किसी की याद में, जैसे मैं खोया रहता हूँ... ये एक बेवजह की बात पढो. तस्वीर घर से दिखते पहाड़ों पर बुझे बुझे सूरज की है. गर्द से भरा है आसमान और साँस लेने में है तकलीफ़ कुछ ऐसे कि किसी कमसिन लड़की का पहली दफा छूटा है, महबूब के हाथ से हाथ. सूरज आ चुका है सर पर कब का, अँधेरा मगर कायम है लोग जा चुके हैं मुझसे दूर... बहुत दूर मैं जुटा रहा हूँ सामान, आख़िरी सफ़र को और पाता हूँ कि एक तेरी आवाज़ गायब है, मेरी झोली से. ओ महबूब, ज़रा तुम भी देखना उचक कर, अपने घर की बाम से कि गर्द से भरा है आसमान या साँस लेने में तकलीफ़ की वजह कुछ और है...

है कुछ ऐसी ही बात...

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कुछ दस्तकें ख़यालों की दुनिया से लौट आने के लिए होती हैं. हालाँकि उदास होने की कोई बात नहीं कि कितना भी सूखा हो बियाबाँ मगर आँखों को धोने के लिए दो चार दिन बाद कहीं पानी मिल ही जाता है फिर ये आँखें खुद को किसलिए आंसुओं से धोने लगती है. बस ये समझ नहीं आता है. एक उसकी याद के सिवा सब अँधेरा है. इस स्याही से बाहर आने के लिए उसकी आवाज़ का सहारा चाहिए लेकिन आवाज़ नहीं मिलती. ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे फ़ौरी तौर पर किया जाना जरुरी हो सिर्फ़ दर्द को सहना जरुरी है कि इससे बड़ा सम्मान कुछ नहीं होता. ये जानते हुए भी उसे हड़बड़ी में भुला देने की कोशिश में लग जाता हूँ. ज़िंदगी का कोई सलीका तो होता नहीं इसलिए अचानक कोई चला आता है. वह अनमनी नींद को थपकी देता है. नींद के सरल और मृत्यु सरीखे रास्ते से बुला लेना कोई ख़राब बात नहीं है मगर वह जगा कर अक्सर खुद कहीं चला जाता है. इसके बाद एक फासला रह जाता है. इस फासले के दरम्यान बची रहती है, तन्हाई... अच्छे या बुरे हालात हर हाल में बदल ही जाएंगे मगर कई बार आप जीने की वजह के बारे में सोचने लगते हैं. और जीने की वजह आपसे बहुत दूर होती है. वे दस्तकें, हमार

मुझे आदत है, घरों में झांकते हुए चलने की

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दुखों के बारे में नहीं सोचना चाहिए, यह भी नहीं कि हमारे साथ ऐसा क्यों हुआ. अगर हम जान सकते मुड़ना तो रास्ते का कोई आखिरी छोर नहीं होता. अक्सर मैं एक ऐसी ज़हीन लड़की से करता हूँ बात जो करती है दावा कि मुश्किलें सबके साथ है. और ऐसे में कोई भी उठा लेगा तुम्हारा फायदा इसलिए बंद रखो खिड़कियाँ दिल की . मगर बंद तो रह नहीं पाता कोई भी बीज एक दिन फूट कर खिल ही जाता है, कभी न कभी. बावजूद इसके अविश्वास से भरी लड़की ने खूब बातें की मुझसे उसके पहलू से उठते हुए, मैं कहना चाहता था कि जिन्होंने की थी एक आसान दुनिया की कल्पना उनको अपने मेनू से हटा देना चाहिए था प्रेम. कुछ प्रार्थनाएं बेकार ही होती हैं हम मांग रहे होते हैं किन्तु वे पूरी नहीं हो पाती.  हमें खुश करने के लिए कहता है, हर कोई कि जो चीज़ें नहीं बनी होती है हमारे लिए ईश्वर उनसे बचा लेता है हमको . इन बेढब बातों के बीच मुझे एक पते की बात मालूम है कि मैं एक लालची आदमी हूँ जो अक्सर ये हिसाब लगाता है कि क्या नहीं मिला कल रात भी, मैं भर लेना चाहता था उसे अपनी बांहों में... मुझे आदत है घरों में झांकते हुए चलने की और

उदास किराडू और थार फेस्टिवल

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कल रात को साढ़े ग्यारह बजे स्टूडियो से लौटते हुए अनगिनत बाइक सवार और मोटर गाड़ियों से सामना हुआ. उनको देख कर मुझे दो लोगों की याद आई एक ललित के पंवार और दूसरे संजय दीक्षित. मैं नहीं जानता कि दोनों में समानताएं क्या है मगर एक साथ याद आने का साझा कारण था, "थार फेस्टिवल". थार एशिया के सबसे बड़े मरुस्थल का नाम है और फेस्टिवल का अर्थ मुझे मालूम नहीं है. आंग्ल भाषा का शब्दकोष लेकर बैठूं तो उसमें पर्व या त्यौहार जैसा कुछ पाता हूँ. तो मेरी स्मृति में इस रेगिस्तान में कोई थार नाम का पर्व या त्यौहार कभी रहा नहीं. जो लोग मेरे सामने से गुज़र रहे थे, वे इसी आयोजन से लौट रहे थे और शायद कैलाश खेर को सुन कर सूफ़ियाना अनुभूति से भरे हुए रहे होंगे. ललित के पंवार की याद आने की एक वजह थी कि इस रेगिस्तान की मिट्टी से जुड़े सरोकार और चिंताएं उनके दिल में रहती हैं. कुछ दिन पहले उन्होंने गहरे ह्रदय से कहा था कि मरु प्रदेश की इस अनूठी धरोहर को विश्व के पर्यटन मानचित्र पर वो सम्माननीय स्थान क्यों नहीं मिल पा रहा? उनके इस सवाल में तल्खी नहीं एक दिली पीड़ा थी. ललित जी शायद आईटीडीसी के सबसे बड़े अधिका

खोये हुए सफ़र का एक लम्हा

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रेल के सफ़र में मेरी नज़र बार बार सामने की बर्थ पर लेपटोप को सीने से लगाये लेटी हुई लड़की की ओर उठ जाती. जाने किसलिए, अक्सर ऐसा लगता है कि कुछ जगहों या सफ़र के हिस्सों को पहले भी देख चुका हूँ. परसों शाम बाज़ार की एक सूनी गली में ऐसी ही लड़की को देख कर चौंक उठा था. क्या पीछे छूटे हुए धुंधले चेहरे, एक दिन हमारे सामने से किसी साये की तरह गुज़र जाते हैं या फिर हम ही उनको पुकारते हैं. अपने भ्रम रचते हुए खुद को दिलासा देने के खेल में लगे रहते हैं. फ़िलहाल रेत पर बैठा हूँ. दोपहर होने तक ये गरम नहीं होगी कि अभी फाल्गुन विदा हुआ है. मैं कहीं पहुँच जाने के सफ़र पर नहीं हूँ. रेलगाड़ी कहीं खो गयी है. दूर एक घने पेड़ की छाँव है, कुछ परिंदों की आवाज़ें हैं और जहां तक रेत है वहां तक रास्ता है... मंज़िल सिर्फ़ सफ़र है, एक तनहा सफ़र. सफ़र कर रही लड़की के पांवों में थी पतली सी चप्पल और फानूस की गहरी रौशनी के रंग सी घुटनों को ढकने वाली तंग पतलून. जब वह देख रही होती खिड़की से बाहर दिखती थी कला दीर्घा में बेजोड़ चित्रों की नुमाईश के बीच एक नन्ही बच्ची सी. * * * खिड़की के पास बैठी लड़

आ कि तेरी जेब में रखूं...

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बड़े दिनों से गुनगुनाये जाने लायक बेवजह की बात नहीं लिखी थी. कई साल पहले एक दोस्त साथ थे, वे पहाड़ में अपने घर को चले गए. रेत के शब्दों और पहाड़ की आवाज़ की जुगलबंदी खो गयी. शाम ढले वे अक्सर गुनगुनाया करते "दर्द से पीले पड़े पत्तों की लेकर एक सौगात सुहानी, शाम पुरानी आई है कि याद तुम्हारी आई है..." फिर अचानक रुक जाते और कहते. "केसी आप उदास उदास न लिखा करो, देखो जीवन कितना सुंदर है. मैं आपको देख रहा हूँ और आप..." मैं उनको बीच में टोकता कि "मैं फ्रायड आलू और ग्लास को देख रहा हूँ..." इसके बाद हम दोनों देर तक मुस्कुराते.  नन्ही प्यारी बच्ची तान्या , आज डबराल अंकल यहाँ होते तो वे इस नयी बेवजह की बात को तुम्हारे लिए गाना जरुर पसंद करते. हालाँकि इसके मीटर और फीट का हिसाब नहीं किया है. जब अपने संगीतकार आयेंगे तब देख लेंगे. फ़िलहाल हेप्पी वाला बर्थडे.  आ कि तेरी  जेब में रखूं  लफ़्ज़ों की ताज़ा कलियाँ,  सपनों की आवारा गलियां.  ओढ़नी के ऊदे   बादल,  बाँहों की   कोमल टहनियां.  नदियों के गीले किनारे,  भीगे पेड़ों के सहारे  सूखे पत्तों का बिछौना