निर्मल रेत की चादर पर


किताबें बड़ी दिल फरेब चीज़ होती हैं। मैं जब भी किसी किताब को अपने घर ले आता हूँ तब लगता है कि लेखक की आत्मा का कोई टुकड़ा उठा लाया हूँ। परसों राजस्थान शिक्षक संघ शेखावत के प्रांतीय अधिवेशन के पहले दिन चौधरी हरलाल शोध संस्थान के प्रांगण में तने हुये एक बड़े शामियाने में जलसे का आगाज़ था। मुझे इसे सम्मेलन में एक वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था मगर मैं अपनी खुशी से वहाँ था कि मेरे पापा ने सदैव शिक्षकों के हितों के लिए लड़ाई लड़ी है। इस आयोजन स्थल पर बोधि प्रकाशन की ओर से पुस्तक प्रदर्शनी भी लगी थी।

मुझे दूर से ही किताबें दिख गयी। जिन्होंने कभी किताब को हथेली में थामा होगा वे जानते हैं कि इनकी खशबू क्या होती है। आज कल मेरे कंधे पर एक भूरे रंग का स्कूल थैला लटका रहता है। इस थैले को मानू या दुशु में से किसी ने रिटायर किया हुआ है। मेरे पापा भी ऐसा ही करते थे। वे हम भाईयों की रिटायर की हुई चीजों को खूब काम मे लेते हुये दिख जाते थे। मैं सोचता था कि पापा कितने कंजूस है। अपने लिए एक नयी चीज़ नहीं खरीद सकते। लेकिन अब समझ आता है कि ऐसी चीजों में अपने बच्चों की खुशबू साथ चलती रहती है।

मैंने स्टाल पर किताबों में एक खास किताब को खोजना शुरू किया। वह नहीं दिखाई दी। मैंने पूछा- क्या आपके पास विजया कांडपाल की किताब है? उन्होने कहा कि हम वह किताब नहीं लाये हैं। इस किताब का नाम है प्रेमांजलि। इसमें फिलीपीन्स में जन्मे कवि संतिअगो विल्लाफनिया की कविताओं का हिन्दी अनुवाद है। विजया द्वारा अनूदित कवितायें प्रथम पाठ में एक सुंदर सम्मोहन बुनती हैं। कुछ कवितायें मैंने एक ब्लोग पर पढ़ी थी। इस कविता संग्रह के बारे में मुझे शैलेश भारतवासी ने बताया था इस किताब को न पाकर मुझे एक बार लगा कि ये निराश करने वाली बात हो गयी है लेकिन बोधि प्रकाशन से ही मेरे प्यारे कवि रामनारायण 'हलधर' के दोहों का संग्रह आया है। मैंने उत्साह से पूछा- हलधर जी की किताब है? उन्होने मुसकुराते हुये कहा- हाँ है न।

इसके बाद मैंने बड़े सुकून से कई सारी किताबें देखी। थोड़ी ही देर में मेरे हाथ में कुछ किताबें हो गयी। मैं खुश हो गया।

सरकार में ऊंचे ओहदे रखने वाले सियासत के नामी लोगों के बीच मंच पर मुख्य वक्ता वरिष्ठ लेखक नन्द भारद्वाज जी बैठे थे। उनके पास मैं भी अपना वही थैला लिए बैठा था। इस भूरे रंग के बैग में अब तक ओम पुरोहित कागद, बल्ली सिंह चीमा, माया मृग, और रामनारायण हलधर की किताबों का आनंद भरा हुआ था। मैं सियासत और उसके कामों के बारे में कोई राय देने का हक़ नहीं रखता हूँ इसलिए मैंने अपने उद्बोधन में हंगरी के कुछ शिक्षकों की कहानियों पर बात की। हंगरी की ये कहानियाँ एक मित्र ने पिछले साल दी थी। उस दोस्त ने कुछ और भी दिया होता तो भी वह मेरे साथ होता मगर कहानियाँ मेरे लिए सबसे अद्भुत उपहार है।

माया मृग जी से मेरा परिचय कूल जमा छह महीनों का ही है किन्तु मैं उनको एक ऐसी सोच वाले प्रकाशक के रूप में जानता रहा हूँ, जो किताबों को जन जन की चीज़ बनाने को प्रतिबद्ध है। सौ रुपये में दस किताबें खरीदने की सोचना आपको एक बेतुकी बात लग सकती है। ये सच भी है कि हर एक प्रकाशक ढाई तीस सौ से नीचे एक किताब की बात ही नहीं करता है। ऐसे में पाँच सौ रुपये में भूरे रंग का बैग भर सकना मेरे जैसे मध्यम वर्ग के आदमी के लिए बेहद खुशी की बात है। मैं माया मृग का एक कविता संग्रह भी लाया हूँ... कि जीवन ठहर न जाए।

मैंने जब स्नातक किया था उन्हीं दिनों डॉ आईदान सिंह भाटी ने मुझे कुछ किताबें दी थी। उनमें ओम पुरोहित "कागद" की किताब भी शामिल थी "धूप क्यों छेड़ती है"। ओम जी के बारे में राजेश चड्ढा खूब बात किया करते हैं। वे उनके सुख दुख के अभिन्न साथी हैं। मैं दो साल राजेश चड्ढा के सानिध्य में रहा हूँ। इस बार भी किताबों के बीच "कागद" नाम देखते ही मुझे चड्ढा जी की याद आई। मैंने दो किताबें ली, एक है "पंचलड़ी" और दूसरी "आँख भर चितराम"।

बल्ली सिंह चीमा और रामनारायण "हलधर" मेरे प्रिय कवि हैं। दोनों ही ज़मीन से गहरे जुड़े हुए हैं। इन दोनों की ग़ज़लों और दोहों में ग्रामीण जन जीवन की आर्द्र गंध है। ये दोनों ही हक़ और हक़ीक़त की बात बड़े कायदे से करते हैं। इन दोनों के बारे में सोचते हुए मैंने पाया कि मुझे घर जाने की जल्दी है। मैं इन किताबों को जल्दी से पढ़ लेना चाहता हूँ। मैं बार बार इन किताबों के पन्नों के फेरे लगाना चाहता हूँ। मैंने कई कई बार किसी जल्दबाज़ बच्चे की तरह किताबों को सूंघा और खुश होकर सो गया। आज मेरी गरदन में बेतरह दर्द है। मैं अपनी डॉक्टर दोस्त की बताई हुई दवा को नियम से लेने के बाद भी कोई आराम नहीं पा रहा हूँ। इसलिए इन किताबों की बात करने बैठ गया हूँ।

मैं आलोचक नहीं हूँ। मुझे सिर्फ प्रेम करना आता है।

कागद की एक कविता :

बेकला री चादर माथे
आरी तारी सरीखा
काढ़े कसीदा अचपली पुरवाई कोरे समंदर हबोलो खावतो।

थार कबीर अंगेजै चादर मुरधरी, पण राखे जस री तस।

कविता का टूटा फूटा अनुवाद :

निर्मल रेत की चादर पर
अस्थिर वायु उकेरती है सोनल ज़री का बारीक कशीदा
चित्रित करती है, लहरों से भरा समुद्र।

कबीर सदीठ थार ओढ़ता बिछाता है मरुधर की चादर मगर रख देता है अनछुई।
* * *

मुझे इन्हीं दिनों अपने दादा नन्द भारद्वाज जी से उनका कहानी संग्रह मिला है। आपसदारी। इसकी दो कहानियाँ मैंने राजस्थानी में पढ़ रखी हैं और एक बेहतरीन कहानी "तुम क्यों उदास हो मूरहेन" विगत दिनों व्यापक चर्चा में रही है। फिलहाल मैं उदास तो नहीं हूँ मगर मेरे पास बदन दर्द और हरारत के बीच एक कुछ बेचैन लम्हे हैं।

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