आभा का घर


मुझे बहुत सारे बच्चे याद आते हैं। अपनी मम्मा की साड़ी, ओढ़ना, चुन्नी और बेड कवर जैसी चीजों से घर बनाने का हुनर रखने वाले बच्चे। वे सब अपने घर के भीतर किसी कोने में, सोफे के पास, छत पर या जहाँ भी जगह मिलती, घर बनाने में जुट जाते। वे वहीं सुकून पाते। वे सब बच्चे एक बड़े से बिस्तर पर इस बात के लिए लड़ते कि देखो दीदी ने मेरे पैर को छू लिया। भैया से कहो अपना हाथ हटाये। दूर सरक कर सो ना, यहाँ जगह ही नहीं है। वे ही बच्चे अपने बनाये हुए घर में घुटनों को मोड़े हुए ख़ुशी से चिपके रहते हैं। 

मैंने उन बच्चों को देखा लेकिन कभी सोचा नहीं कि एक घर बनाया जाना जरुरी है। पापा ने चार बेडरूम का दो मंजिला घर बना रखा है। यह एक पुराना घर है मगर इसमें कोई तकलीफ़ नहीं है। इसमें बीते सालों की बहुत सारी खुशबू है, बहुत सारी स्मृतियाँ हैं खट्टे मीठे दिनों की, इसमें हमारे गुम हुए बचपन की परछाई है. हम सब इस घर में सुकून पाते हैं। 

आभा मुझसे बेहतर है, वह हर हाल में खुश और सलीके से रहने का तरीका जानती है। उसने कभी कहा ही नहीं और मैंने कभी सोचा ही नहीं कि घर बनाना चाहिए। ज़िंदगी का अप्रत्याशित होना कितना अच्छा है कि एक दिन अचानक से हम दोनों छोटे भाई के साथ बिल्डरों के चक्कर काटने लगे और फिर एक दिन अचानक घर मुस्कुराने लगा। उन बच्चों के लिए जो सिर्फ एक बेड कवर से घर बनाने का हुनर जानते हैं। 

ये सब उन्हीं की नवाज़िशें हैं। लव यू डैड। शुक्रिया मनोज, विजया, महेंद्र, प्रियंका और माँ।
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एक साल यूं ही दूसरे कामों में गुज़रता गया फिर एक दिन सिद्धार्थ जोशी साहब को संदेश भेजा कि इन दिनों नए घर में प्रवेश करने का कोई मुहूर्त है। उन्होने कहा सितंबर महीने की पच्चीस तारीख मुबारक है। आभा ने मेरी तरफ देखते हुये मुस्कुरा कर कहा। हॅप्पी बर्थडे...