इन्हीं दिनों


इन्हीं दिनों 
मैंने अपने क़बीले के सदर से कहा
कि एक टूटी हुई टांग वाला भेड़िया हो जाना
और फिर घिर जाना तूफ़ान में कैसा होता है?

इन्हीं दिनों
उस बूढ़े आदमी की तवील ख़ामोशी के बीच
दुनिया के किसी कोने में
एक लंबी दाढ़ी वाले आदमी की
खूनसनी वसीयत लिए
कोई हँसना चाहता था क़यामत जैसी हंसी
मगर वह किसी पहाड़ की गुफा से आती
अधमरे लकड़बग्घे की खिसियाई हुई आवाज़ थी।

इन्हीं दिनों
एक बड़े कबीले ने कहा
आओ हम दोनों मिलकर बनाए नए हथियार।
उसी पल सदर ने
ज़िंदगी भर के राज में पहली बार आँख मारी
और अपनी कामयाबी पर खींची एक छोटी मुस्कान की लकीर।

इन्हीं दिनों
कुछ लोग हाथों में लिए हुये त्रिशूल
मार डालना चाहते थे, उस लकड़बग्घे को
ताकि वे हंस सकें उसकी जगह क़यामत की हंसी।

इन्हीं दिनों
मैंने अपना सवाल ले लिया वापस
और कहा कि आपकी टांगों में कमजोरी है
मगर आपसे बेहतर कोई नहीं है।

कि जब मैंने चाहा था
चुरा लूँ हनुमान जी की लाल लंगोट
और उसे बना लूँ परचम
तब मेरे ही कबीले के लोग हो गए थे मेरे खिलाफ़
कि देवताओं के अपमान से
बेहतर है नरक जैसा जीवन जीते जाना।

इन्हीं दिनों
मेरे सदर, ये सच लगता है कि मुझको
कि सब अपनी तक़दीर लिखा कर लाते हैं।

इन्हीं दिनों, मैं शायद सबसे अधिक हताश हूँ।
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[Image courtsey : indiamike.com]