जबकि न था, कभी कोई वादा


संकरी गलियों और खुले खुले खलिहानों, नीम अँधेरा बुने चुप बैठे खंडहरों, पुराने मंदिर को जाती निर्जन सीढियों के किनारे या ऐसे ही किसी अपरिचित वन के मुहाने के थोड़ा सा भीतर, वक़्त का एक तनहा टुकड़ा चाहिए. मैं लिखना चाहता हूँ कि मेरे भीतर एक 'वाइल्ड विश' मचलती रहती है. उतनी ही वाइल्ड, जितना कि नेचुरल होना. जैसे पेड़ के तने को चूम लेना. उसकी किसी मजबूत शाख पर लेटे हुए ये फील करना कि सबसे हसीन जगह की खोज मुकम्मल हुई.

मैं कई बार इन अहसासों के जंजाल से बाहर निकल जाने का भी सोचता हूँ. फिर कभी कभी ये कल्पना करता हूँ कि काश अतीत में लौट सकूँ. हो सकूँ वो आदमी, जो मिलता है ज़िन्दगी में पहली बार...

ऐसा भी नहीं है
कि न समझा जा सके, मुहब्बत को.

वह भर देता है, मुझे हैरत से
यह कह कर
कि तुम बता कर जाते तो अच्छा था.

जबकि न था, कभी कोई वादा इंतज़ार का.
* * *

कोई कैसे जाने, रास्ता तुम तक आने का

वक़्त के घोंसले में खो गयी
उम्मीदों भरी, वन चिरैया की अलभ्य आँख.
* * *