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Showing posts from June, 2012

कुछ शामें भूलने लायक नहीं होती

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हर शाम ऐसी नहीं होती कि उसे भुलाया जा सके. उस दिन मौसम बेहतर था. वक़्त हुआ होगा कोई सात बजे का और गर्मी के दिन थे. शेख कम्प्यूटर्स के आगे दो कुर्सियों पर लड़कियां बैठी हुई थी. उन कुर्सियों पर अधपके कवि, कथाकार और नाट्यकर्मी मिल जाते थे. मैंने उनके साथ बेहतरीन शामें बितायी थी. हम यकीनन दुनिया की बेहतरी की बातें नहीं करते थे मगर मनुष्य के छोटे-मोटे, सुख- दुःख बातों का हिस्सा जरुर हुआ करते थे.  उन दो लड़कियों के ठीक सामने की कुर्सी खींच कर बैठते हुए पाया कि आज दोस्तों की गैरहाजिरी है. वे दो लड़कियां छोटी और राज़ भरी बातें बाँट रही होंगी कि बातों के टुकड़े पकड़ कर मुस्कराने लगती और ऐसा लगता कि बात पूरी होने से पहले ही सुनने वाला समझ गया है. दोनों लड़कियों ने सलवार कुरते पहन रखे थे. उनके पांवों में स्पोर्ट्स शू थे. वे कुछ इस बेखयाली में बैठी थी कि उनको देखते हुए लगता था. अब छुई-मुई लड़कियां बीते दिनों की बात है.  मैं उनसे बात करने लगा. वे एकदम सपाट ज़ुबां वाली थी. ऐसी लड़कियां आपको चौंका देती हैं. वे छोटे और सलीके वाले जवाब दे रही थी. थोड़ी ही देर बाद मालूम हुआ कि वे पुलिस में क

तुझको छू लूं तो फिर ऐ जान ए तमन्ना

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मुश्किल, आसानी, प्यार, उदासीनता, खालीपन और ज़िन्दगी से जद्दोज़हद के अट्ठारह साल. कॉफ़ी, मसाला डोसा और दोपहर की ट्रीट वाले साल जोड़ लें तो कोई बीस साल और क्रश वाले बेहिसाब दिन... एक नज़र में टूट जाता है क्या कुछ मगर एक नज़र बचाए रख सकती है कितना. हेप्पी वाला दिन. उम्मीद भर से नहीं आता हौसला बरदाश्त करने का कि सब कुछ भी दे दें, तो भी कितना कम है, ज़िन्दगी के लिए. सीली सी आँखों के पार, गुज़रे सालों में देखा है बहुत बार कि ऐसा कुछ नहीं है दुनिया में जो बांध सके दो लोगों को, मुहब्बत के सिवा. * * *

बारिशें, तुम्हारे लिए

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बीते सालों में दरवाज़े के नीचे से सरक कर आये ग्रीटिंग कार्ड और सजावटी अलमारियों में रखे हुए इन्स्पयारल गिफ्ट्स. पुराने न हो सकने वाले जादुई कवर वाली परी कथाओं की किताब जैसी याद. धुंए से भरी अंगुलियाँ, सिनेमाघरों की जेनेटिक गंध, सफ़ेद चद्दर, क्लोरीन वाला पानी, कॉफ़ी टेबल पर रखे हुए छोटे रंगीन टोवेल्स, फ्लेट की चाबी, मरून वेलेट और टर्मरिक क्रीम जैसी खोयी हुई चीज़ों को खोज लेने की ख्वाहिश. एक सूना रास्ता है, अँधेरे की चादर ओढ़े हुए. आस पास कोई भारी चीज़ है, डगमगाती, ऊपर गिरने को विवश लेकिन सलेटी रंग गुज़रता रहता है. कुछ होता ही नहीं, ज़िन्दगी चलती रहती है. जैसे कोई चुरा ले जाता है, सारी हेप्निंग्स. मुसाफ़िर की जेबों में कुछ था ही नहीं मगर उसने सोचा कि क्या रखूं, तुम्हारी खिड़की में. जून के महीने में यहाँ बारिशें भी नहीं होती... * * * [Image Courtesy : Daniel Berehulak ]

तेरे भीगे बदन की खुशबू से

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साहेब खम्मा घणी, मेरा ध्यान दरवाज़े की ओर गया. जाने कितनी ही दावतों में मेहदी हसन, ग़ुलाम अली और नुसरत फ़तेह अली खान जैसे साहेबान की ग़ज़लों को बखूबी गाने वाला फ़नकार दरवाज़े पर खड़ा था. सियासत के लोगों के यहाँ महफ़िलें हों या फिर अफसर साहेबान की रंगीन शामें, मुझे इसकी आवाज़ जरुर सुनाई देती थी. लोक गायिकी के रणदे पर घिसा हुआ सुर, ग़ज़ल को भी बड़ी नफ़ासत से गाता. सौ रुपये चाहिए, बच्चा अस्पताल में भर्ती है. मैं जब भी अस्पताल जाता हूँ, उसका लड़का नर्सिंग स्टाफ के लिए चाय लाता हुआ मिल जाता है. मुझे देख कर रुक जाता है. कहता है नमस्ते. फिर देर तक मुस्कुराता रहता है. मेरे मन में पहला विचार आता है कि आज इसका लाचार फ़नकार बाप जाने किस आदमी से बच्चे के नाम पर सौ रूपये मांग रहा होगा ताकि एक और दम-ताज़ा दिन को कच्ची शराब में डुबोया जा सके. मैं कभी कभी सोचता हूँ कि पूछूं, मनोहर साहब, फिर जाने कब मिलेगी ज़िन्दगी. * * * एक और फ़नकार है. शीशम की लकड़ी से बने खड़ताल को अपनी अँगुलियों में इस तरह घुमाता है जैसे बिजली कड़कने का बिम्ब रच रहा हो. पिछली बार जब रिकार्डिंग पर आया तो हाथ से खड़ता

काश, इतना सा हो जाये

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बिना बारिशों वाले रेगिस्तान में पेड़ों की पत्तियां काँटों में तब्दील हो जाती है और अपनी ही शाखाओं पर खरोंचें लगाती रहती है. ऐसा ही हाल शैतान का भी हो गया. उसने ख़ुद से पूछा कि तुम को राहत किस करवट आएगी. फ़ौरी तौर पर जो उपाय सूझे, उनको एक कागज पर लिख कर, दीवार पर टांग दिया. वक़्त गुज़रता रहा, अक्षर धुंधले होते गये, एक दो मौसमों ने आते जाते उन पर निगाह डाली लेकिन बदला कुछ नहीं फिर भी शैतान ने सुन रखा है कि दर्द भरे दिन आखिर विदा हो जाते हैं और मुहब्बत का कोई अंज़ाम नहीं होता. काश कि उसने उठा ली होती अपनी नज़रें, मेरी ज़िन्दगी की किताब से. या फिर हुआ होता एक अच्छा इरेजर, मिटा लेते कोई चेहरा याद के हिसाब से. होता कोई लोकल अनेस्थिसिया ईजाद जो दर्द में देता आराम जब मुसलसल हो रही हों, उसे भुलाने की नाकाम, कोशिशें हज़ार. काश सूरज कर लेता कुछ दिनों को वाइंड अप और घर लौटते हुए हम, भूल जाते, उसका नाम. या पड़े होते बियाबान में, तनहा पत्थर की तरह या फिर हो जाते, इतने मूढ़ कि समझ न सकते, बोले - सुने बिना. कोई लुहार भी हुआ होता जो जानता, काटना बेड़ियाँ अहसास की. का

मदहोशी में, होश है कम कम

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ये ट्राईटन मॉल के हॉयपर सिटी स्टोर के अधबीच का भाग था. मैं वस्तुओं की प्रदर्शनी में अपने लालच और जरुरत का तौल भाव कर रहा था. रौशनी के इस बाज़ार में चीज़ों के आवरण बेहद चुस्त और सम्मोहक थे. अचानक मेरे पीछे से एक नौजवान आवाज़ आई. " मैं, ओलिव आयल के बिना खाना नहीं खा सकता हूँ." मैंने मुड़ कर उस आदमी को देखा. गठीला बदन चुस्त जींस और गोल गले का टी शर्ट पहने हुए था. उसने ये बात अपने साथ चल रही, एक महिला से कही थी.  नौजवान की कही हुई इस बात पर अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं की जा सकती थी. सबसे बेहतर प्रतिक्रिया होती कि इग्नोर कर दिया जाता लेकिन मेरे मन में पहला ख़याल आया कि इस आदमी को शाम का खाना भी मिलेगा या नहीं. अपने छोटे भाई की तरफ देखते हुए. मैंने कहा. "भाई शाम का खाना तय है?" भाई ने कहा कि हम अच्छे खाने की उम्मीद कर सकते हैं. मुझे ख़ुशी हुई कि अभी हम भ्रम में नहीं जी रहे हैं.  ओलिव आयल के बिना खाना न खा सकने वाले उस आदमी को अभी मालूम नहीं है कि कई बार खाना सामने रखा होता है मगर ज़िन्दगी उसे खाने की इजाज़त नहीं देती.  * * * रामनिवास बाग़, जयपुर शहर