खोये हुए सफ़र का एक लम्हा


रेल के सफ़र में मेरी नज़र बार बार सामने की बर्थ पर लेपटोप को सीने से लगाये लेटी हुई लड़की की ओर उठ जाती. जाने किसलिए, अक्सर ऐसा लगता है कि कुछ जगहों या सफ़र के हिस्सों को पहले भी देख चुका हूँ. परसों शाम बाज़ार की एक सूनी गली में ऐसी ही लड़की को देख कर चौंक उठा था. क्या पीछे छूटे हुए धुंधले चेहरे, एक दिन हमारे सामने से किसी साये की तरह गुज़र जाते हैं या फिर हम ही उनको पुकारते हैं. अपने भ्रम रचते हुए खुद को दिलासा देने के खेल में लगे रहते हैं.

फ़िलहाल रेत पर बैठा हूँ. दोपहर होने तक ये गरम नहीं होगी कि अभी फाल्गुन विदा हुआ है. मैं कहीं पहुँच जाने के सफ़र पर नहीं हूँ. रेलगाड़ी कहीं खो गयी है. दूर एक घने पेड़ की छाँव है, कुछ परिंदों की आवाज़ें हैं और जहां तक रेत है वहां तक रास्ता है... मंज़िल सिर्फ़ सफ़र है, एक तनहा सफ़र.

सफ़र कर रही लड़की के पांवों में थी
पतली सी चप्पल
और फानूस की गहरी रौशनी के रंग सी
घुटनों को ढकने वाली तंग पतलून.

जब वह देख रही होती खिड़की से बाहर
दिखती थी
कला दीर्घा में बेजोड़ चित्रों की नुमाईश के बीच
एक नन्ही बच्ची सी.
* * *

खिड़की के पास बैठी
लड़की के चेहरे पर रौशनी और रंगों का
अविराम कोलाज बनता और मिटता जाता था

जैसे कोई गवैया विलंबित आलाप के बाद
रच रहा हो द्रुत का जादुई सम्मोहन.
* * *