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Showing posts from January, 2012

ताम्रपत्र सरीखा है, मोरचंग

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उस मंडप में रह रह कर मंच से बजती थी तालियाँ और सामने कुछ सौ लोगों की भीड़ कौतुहल भरे हृदय में दबाए बैठी थी अनेक आशंकाएं. उन्होंने कहा कि हकीम खां एक महान कलाकार है लेकिन आखिर कमायचा हो ही जायेगा लुप्त इसलिए हम सब कमायचों को इक्कठा कर के सजा देना चाहते हैं संग्रहालय में, आने वाली पीढ़ी के लिए. मोरचंग बनाने के सिद्धहस्त लुहार आजकल व्यस्त हो गए हैं लोहे की कंटीली बाड़ बनाने के काम में इसलिए मणिहारे माला राम गवारिये के पास बचे हुए पीतल के इन छोटे वाद्य यंत्रों को भी घोषित किया जाता है राष्ट्रीय संपत्ति. उन्होंने गर्वीली आवाज़ में कहा कि ताम्रपत्र सरीखा है ताम्बे से बना मोरचंग. रंग बिरंगी झालरों की चौंध में उन्होंने तीन हाथ लंबे खोखली लकड़ी से बने वाद्य नड़ के बारे में बताया कि यूरोप के पहाड़ी गाँवों के चरवाहों के अलावा दुनिया में सिर्फ तीन ही बचे हैं इसलिए ये अनमोल धरोहर हैं. उन्होंने धोधे खां को ओढाई शाल और श्री फल के साथ एक हज़ार रुपये से सम्मानित किया. बायीं तरफ रखवा लिया हरे रंग का झोला, संरक्षित कर लिए दो जोड़ी अलगोजा. आंसू भरी आँखों से कलाकार ने बताया कि सिंध से लायी जाळ कि जड़ से

उस बज़्म में हम...

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अगर धूप तल्ख़ न हो जाये तो बहुत देर लेट सकता हूँ, आसमान को तकता हुआ. सुन सकता हूँ, रौशनी के अँधेरे में डूबी उलटी लटकी रोशनदानों जैसी असंख्य खिड़कियों से आती आवाज़ें. इधर नीचे आँगन में कोई ज़र्द पत्ता विदा होने के पलों में जाने क्या कहता फिरता है कि टूट जाती है, मेरे ख़यालों की सीढ़ी...  मगर मैं फिर से लौट जाता हूँ ऊंची मेहराबों में टंगी अदृश्य खिड़कियों की ओर. याद आती है एक बेवजह की बात... नेहरू बाज़ार की लम्बी दुकान में चित्रकार फ्रेडरिक की पेंटिंग के क्लोन को देखते हुए एक ज़िद्दी लट आ बैठती थी उसके कॉलर पर और ईर्ष्यालु टेबल पंखा घूम-घूम कर उसे उड़ा देता हर बार मैं अपने हाथ को रख लेता वापस जेब में. सरावगी मैंशन में एक कोने वाली छोटी सी दुकान में बची हुई थी किसी दोशीज़ा की खुशबू गोया कोई नमाज़ी गुज़रा था इश्क़िया गजानन की गली से और देखा मैंने कि तुम उलझी खड़ी हो जींसों के रंग में. बाद अरसे के सलेटी जींस के घुटनों पर खिल आये सफ़ेद फूल, सॉफ्ट टॉयज और तस्वीरों में कैद चेहरों से उड़ गया रंग याद के आलिंगनों में आता रहा पचास पैसे में एक ग्लास पानी बेचने वाला

घास की बीन

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बया ने रात भर पत्तों के बीच देखा आकाश दोपहर में किया याद, रेगिस्तान के ख़ानाबदोश सपेरों को और फिर घने बबूल पर टांग दी, घास की बीन. आंसुओं की बारिशों से भीगी रातों में, ठुकराए हुए घोंसलों से उठती रही एक मादक वनैली गंध. आदम मगर बुनता रहा, दिल के रेशों से घर, हर बार बिखरता रहा उजड़े ख़्वाबों का चूरा मन के गोशों से उठती रही हर बार एक उदास कसैली गंध. क्यों एक दिन हो जाता है इश्क़ मुल्तवी, सौदा ख़ारिज, क्यों ताजा खूं की बू आती है, क्यों परीशां परीशां हम हैं?

हसरतों के बूमरेंग

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आधे खुले दरवाज़े से आती हुई रौशनी पीछे नहीं पहुँच पा रही थी. वह मुझसे दो हाथ जितनी दूरी पर खड़ी थी. गाढे रंग के कसे हुए ब्लाउज की चमकीली बाँहों और चौड़े कंधों पर अँधेरा पसरा हुआ था. दरवाज़े की झिरी से आती हुई रौशनी कम थी. उसकी आँखें मुझसे मुखातिब थी और हम शायद बहुत देर से बात कर रहे थे. हल्के अँधेरे और उजालों की छुटपुट आहटों के बीच लगा कि कोई आया है. दो कमरों के पहले तल वाले उस घर की बालकनी दक्षिण दिशा में खुलती थी. पतली सीढ़ियों से उस स्त्री के पति की पदचाप सुनाई देने लगी. हम दोनों जड़ हो गए. एक अमूर्त अपराध की शाखाएं हमें कसने लगी. वह दरवाज़े के पीछे रसोई के आगे वाली जगह पर खड़ी रही. आते हुए क़दमों की आवाज़ों से मुझे लगने लगा कि मैं कोई गलत काम करते हुए पकड़ा गया हूँ. तूफ़ान आने से पहले उड़ते हुए दिखाई देने वाले पत्तों की तरह आशंकाएं मेरे आस पास तेजी से मंडराने लगी. जबकि हम दोनों ही नितांत सभ्य तरीके के एकांत में थे. मैं दरवाज़े के पीछे से निकल कर बालकनी की ओर चल पड़ा. लोहे की हल्की रेलिंग से नीचे देखते हुए पाया कि यहाँ से उतरना बहुत कठिन है. स्वप्न में एक विभाजन हुआ. वह अचानक से टू

शाम के टुकड़े

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कभी कभी कोई इंतज़ार नहीं होता. चेहरों से उतर जाती है पहचान, स्मृतियाँ कायम नहीं रह पाती. सिटी कोतवाली से कुछ आगे ऊपर की ओर जाती संकड़ी पेचदार गलियों के किनारों को कुछ अधिक काट कर बनाया गया रास्ता ज़रा बायीं तरफ मुड कर ख़त्म होता सा दीखता है. वहीं पर बड़ी हवेली की गोद में राज के कारिंदों के लिए मकान बने हुए हैं. पीछे पहाड़ी का हिस्सा है और सामने नीचे की ओर सर्पिल रास्ते घाटी में खो जाते हैं. इन रास्तों के किनारे बेढब सिलसिले से मकान बुने हुए हैं. हर शाम घरों के चौक में रखी सिगड़ी से उठता धुंआ पत्थरों की दीवार को चूमता रहता है. इच्छाओं की अनगढ़ सफ़ेद लकीर हवेली की छत तक जाते हुए जाने क्या सोचती हुई, मुड़ मुड़ कर देखती रहती है. सुबह सूरज सिर्फ किले के दरवाज़ों पर ही दस्तक देता. दोपहर की बिना धूप वाली गलियों में तम्बाकू बाज़ार से तीन गली पहले पान वाले से मुनक्का खाते हुए बीता दिन, किसी विस्मृत शहर की तस्वीर सा याद आने लगता है. ढलुवा पथरीली सड़कों पर आहिस्ता चढ़ते उतरते, याद के पायदानों पर बीते दिनों के पांव नहीं दिखते. एक कड़ा वर्तमान बाहं थामे रखता है. नीले घरों

मर जाने से बहुत दूर

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तुम कहां होते हो. जब किसी बहुत पुरानी धूसर स्मृति से जागा कोई अहसास मेरे पास होता है. काश मैं बता सकूँ कि किस स्पर्श की नीवं पर बैठी है उदास चुप्पी. काश तुम देख सको कि किसी के जाने से बदल जाता है, क्या कुछ... कि और एक बेवजह की बात. मर जाने से बहुत दूर जनवरी के इन दिनों में सोचूँ क्या कुछ कि नौजवान डाक्टरनी की खिड़की पर उतरती है धूप अक्सर साँझ के घिरने से कुछ पहले. लुहारों के बच्चे होटलों पर मांजने लगे हैं बरतन आग के बोसे देने वाली भट्टियाँ उदास है कि अब उस जानिब नहीं उठती है कोई आह जिस जानिब था मर जाने का खौफ, हमसे बिछड़ कर. अचानक ख़यालों के ओपरा में हींग की खुशबू घोल गया है अभी उड़ा एक मटमैला कबूतर. और दीवार पर उल्टी लटकी गिलहरियाँ अब भी कुतर रही है, दाने समय के, जनवरी के इन दिनों में...

डिस्क्लेमर : कहना गलत गलत

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"उनसे जो कहने गए थे फैज़ जान सदक़ा किये अनकही ही रह गयी वो बात सब बातों के बाद" ब्लॉग लिखता हूँ. इसलिए नहीं कि लेखक हूँ इसलिए कि कुछ शब्द मन की कोमल दीवारों से टकराते हुए आवारा फिरते हैं, उनको सलीके से रख देना चाहता हूँ. कवि नहीं हूँ मगर कुछ बातें साफ कहते हुए मन को असुविधा है. इसलिए उनको बेवजह बातें कहता हुआ, आड़ा तिरछा लिखता हूँ. वे बातें कविता सी जान पड़ती है. उदास नज़्मों और कहानियों की बातें अच्छी लगती है मगर ऐसा भी नहीं कि ख़ुशी को देखे हुए बरस बीते हों. सुंदर और हुनरमंद लोग अच्छे लगते हैं. मेरे बहुत सारे क्रश हैं. उनके पास होना चाहता हूँ मगर कोई ऐतिहासिक प्रेम करने में असमर्थ हूँ. अब तक जो अच्छा लगा, उससे कह दिया है कि आपसे बहुत प्रेम है. इस शिष्ट समाज के भद्र शब्दों से मुझे परिभाषित नहीं किया जा सकता है. इसके लिए अनेक शब्द हैं जो मुझे बयान करने के लिए कई बार जरुरी हो सकते हैं जैसे लम्पट, नालायक, बे-शऊर आदि... हथकढ़ मेरी डायरी है. यह पब्लिक डोमेन में इसलिए खुलती है कि लोग जान सकें कि रेगिस्तान में एक आदमी अपनी तमाम खामियों के साथ खुश होकर जी रहा है. इस