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Showing posts from October, 2011

होश कहां होता है, इज़्तराब में...

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मैंने चाहा कि लेवेंडर की पत्तियां अपनी हथेली में रख कर मसल दूँ. मैं झुक नहीं पाया कि मेरे कमीज़ और हथेलियाँ में कोई खुशबू भरी है. फुरसत के चार कदम चलते हुए जब हसरतों के कुरते की सलवटों में छिपे हुए बेक़रार रातों के किस्सों को पढना चाहें तो आधा कदम पीछे रहना लाजिमी है. ज़रा आहिस्ता चलता हूँ कि अपने कौतुहल में लिख सकूँ, ज़िन्दगी की लहर का किनारा क्या उलीचता और सींचता रहता है. इस लम्हे की खुशबू के उड़ जाने के डर के बीच ख़याल आता है कि क्या मेरा ये लम्हा किनारे की मिट्टी पर बिखरे हुए सीपियों के खोल जैसी किसी स्मृति में ढल कर रह जायेगा. मैंने फूलों और चीज़ों को उदासीन निगाहों से देखा और फ़िर सोचा कि रास्तों के फ़ासलों की उम्र क्या हुआ करती है? खुशबू की ज़द क्या होती है? इस वक़्त जो हासिल है, उसका अंज़ाम क्या है? मुझे याद आया कि ईश्वर बहुत दयालु है. वह सबके लिए कम से कम दो तीन विकल्प छोड़ता है. उनमें से आप चुन सकते हैं. मेरे पास भी दो विकल्प थे. पहला था कि मैं वहाँ रुक नहीं सकता और दूसरा कि मैं वहाँ से चला जाऊं. एक आम आदमी की तरह मैंने चाहा कि शिकायत करूँ लेकिन फ़िर उसके

चाँदनी रात में

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ढ़लान शुरू होने की जगह पर बने घर का हल्की लकड़ी से बना दरवाज़ा टूटा हुआ था. उसकी ढलुवाँ छत पर रौशनी बिखरी थी कि ये डूबते चाँद की रात थी. वह दरवाज़ा थोडा खुला, थोडा बंद ज़मीन और चौखट के बीच अटका हुआ था. जैसे कोई उदासीन प्रेम एक तयशुदा इंतज़ार में दीवार का सहारा लेकर बैठा हो. घर की दर ओ दीवार को बदलती हुई रुतें चूमती निकलती है. बरबाद हुए कोनों को झाड़ने पौंछने और मटमैली दीवारों को सफ़ेद चूने से रंगने के काम वाले इन्ही दिनों घाटी में मौसम की पहली बर्फ गिरा करती है. रेगिस्तान की रातें भी ठण्ड से भर जाती है और पानी से भरी हवा वाली सुबहें खिला करती है. दो रात के बाद इस बार रुत कायम न रह सकी. चाँद पूरब में हाथ भर ऊंचा खिला हुआ है. मैं अपनी छत के ठीक बीच में चारपाई लगा कर उस घर को याद करता हूँ, जो ढ़लान शुरू होने की जगह पर बना है. उस घर में कौन रहता था? नहीं मालूम कौन... * * * नीचे लॉन में खिले हुए पौधों पर चांदनी गिरती है तब उनको देखना अच्छा लगता है. किन्तु पड़ोस की छतों पर लोग जाग रहे होते हैं. उम्मीदें और अनसुलझे सवाल उनकी नींदें चुराए रखते हैं. वे क्या सोचें कि मैं क

जबकि वो उस शहर में नहीं रहती...

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मैं मर गई हूँ. तुम भी अपने बिस्तर में मर जाओ. उसने पहली बार देखा कि मरने के बाद चाँद तारों को देखना कितना अच्छा लगता है. नींद की प्रतीक्षा नहीं रहती. हवा और पानी की जरुरत ख़त्म हो जाती है. ब्रेड के बासी हो जाने या सर्द दिनों में दही के सही ढंग से जमने की चिंता से भी मुक्त हो जाते हैं. सबसे अलग बात होती है कि मरने के बाद कोई आपका इंतजार भी नहीं करता. वो इंतजार, जिससे उकता कर हर रात हम अपने बिस्तर में मर जाते हैं. ये सोचते हुए कि चाँद कायम रहा और सूरज रोज़ की तरह उगा तो सुबह देखेंगे कि हवा में ठंड कितनी बढ़ गयी है. इन दिनों मैं यहाँ नहीं था, यह सच है. मैं अजनबी भूगोल की सैर पर था. अपनी समझ खो चुके एक भटके हुए यात्री की तरह मेरी जिज्ञासाएं चरम पर थी. मेरे लिए वह नयी जगह थी. वहाँ पर बहुत सामान्य और उपेक्षा योग्य चीज़ें भी मुझे डरा रही थी. मैं एक पहली कक्षा का बच्चा था, जो दर्शनशास्त्र की किताब पर बैठा हुआ था. उस शहर में मेरा कोई नहीं रहता. उत्तर-पूर्व के ऊंचे पहाड़ों का रास्ता उसी जगह से जाता है. हाँ, बीस एक साल पहले मेरी एक बहन जोरहट में रहा करती थी. उसके फोन आया करते