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Showing posts from July, 2011

इन आँखों में भरी है सावन की बदरी

मुझे कुछ पुस्तकें प्रियजनों से उपहार में मिलती रहती है. अनियमित जीवनचर्या में वे महीनों तक किताबों की अलमारी में एक तरफ रखी रहती हैं. उस कोने को मैं न्यू एराइवल सेक्शन समझता हूँ. अभी मेरे पास तेरह नई किताबें हैं. इनके कुछ हिस्से पढ़ कर वैसे ही रख छोड़ा है. जाने ये कैसी आदत होती है कि एक ही वक़्त में एक काम नहीं कर पाता हूँ. जिस तरह कलगी वाले रंगीन पंछी अपनी पांखें साफ़ करने में दिन बिताते हैं. ज़िन्दगी की डाल बैठे हुए बारी बारी से कई सारी पांखों को अपनी चोंच से सही बनाते हुए दुनिया के हाल पर एक उचाट नज़र डाल कर, उसी काम में लग जाते हैं. मैं भी उनकी तरह बहुत सी पुस्तकों के अंश पढता हूँ और उन्हें वापस अनपढ़ी किताबों के बीच रख देता हूँ. पिछले साल मैंने नास्टेल्जिया का बहुत आनंद लिया. इसमें प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' के संस्मरणों का खासा बड़ा योगदान रहा. उनके संस्मरणों के संग्रह "अतीतजीवी" में एक सदी के जीते जागते, नामी किरदार चहलकदमी करते हैं. उस किताब के बारे में अगर कुछ लिख पाया तो इतिहास, दर्शन, मानवीय मूल्य, आत्मसम्मान, जिजीविषा जैसे अनेक टैग लगाने होंगे. गध्

वी ओनली सैड गुडबाय विद वर्ड्स...

मृत्यु अप्रतिम है. शोहरत की बुलंदी से एक कदम आगे वाली घाटी के निर्वात में प्रतीक्षारत रहती है. उसका सौन्दर्य मायावी है. पहली नज़र का प्यार है. वह जब अपने गुलाबी हाथों से हमें समेट रही होती है, दर्द बड़ी तेजी से छूटता है. आखिरी साँस के बाद दर्द यहीं रह जाता है प्रियजनों की आँखों में और हम तकलीफों के आवरण से आज़ाद हो जाते हैं. ख़यालों के इसी पैरहन को समेटते सहेजते हुए कल की रात बीती. ये बरसात के इंतजार के दिन है मगर कुछ नहीं बरसता... रात, एमी वाइनहॉउस की तस्वीरों को देर तक देखा. उसके गोदने देखे. वीडियो देखे. उसकी खबरें देखी. देखा कि उसका स्थान खाली हो चुका है. किसी भी खालीपन को भरा नहीं जा सकता क्योंकि कुदरत के मेनिफेस्टो में लिखा है कि एक जैसे लोग नहीं बनाये जायेंगे. ऐसे में मुझे बेल्ली होली डे और जिम मोरिसन की याद आई. अपनी वो बात भी याद आई कि आदमी के काम करने के दिन सात आठ साल ही होने चाहिए और उसके बाद अपने चाहने वालों से विदा लिए बिना असीम शांति में खो जाना चाहिए. मेरे मन में ऐसा विचार पिछले साल के बेहद उलझे हुए दिनों में आया था. एमी ने इसे फ़िर से कर दिखाया. उसने ऐ

म्यूजिक स्टूडियो में फ़िर आना, रुकमा

वे इस रेगिस्तान की मांड गायकी का आखिरी फूल थी. गुरुवार की सुबह एक अफ़साना बन कर शेष रह गयी है लेकिन उनकी खुशबू हमेशा दिलों में बसी रहेगी. मैं अब उनके बारे में सोचूंगा तो वे मुझे एक बड़े ढोल को थाप देती हुई दिखाई देगी. उनके भरे हुए लम्बोतर चेहरे पर सजी वक़्त की लम्बी लकीरें और काला-ताम्बई रंग याद आएगा. अल्लाह जिलाई बाई, रेशमा, मांगी देवी की परम्परा की इस गायिका का नाम रुकमा है. पोलियो ने दोनों पैर छीन लिए लेकिन वे गायिकी के हौसले से ज़िन्दगी के सफ़र को तय करती रही. हर पर्व पर गफूर घर के आगे ढोल पर थाप देता हुआ ऊँचे स्वर में कुछ देर गाता और फ़िर कहता. खम्मा घणी हुकम किशोर जी साब रे बारणे बरकत है. ओ रुकमों रो डीकरो कदी खाली हाथ नी जावे... हुकम पचा रूपया में हाथ नी घातु एक सौ इक्यावन... और फ़िर कुछ गाने लगता. उसके कहे का अर्थ होता कि इस घर से बरकत है. रुकमा का ये लड़का कभी खाली हाथ नहीं जाता. मैं पचास रुपये नहीं लूँगा पूरे एक सौ इक्यावन... सब मांगणियार इतने ही मीठे और आदर सूचक संबोधन से सबको बुलाते हैं. पिछली बार विवेकानंद सर्कल पर मिल गया. कहने लगा की माँ की तबियत ख़राब है. कल

अपूर्व, कोई दिन तो सुकूँ आएगा...

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मेरे प्यारे अपूर्व, दीवार की खूंटी पर टंगी फ़कीर की झोली से पुराने सत्तू की तरह मौसम उसी शक्ल और स्वाद में टपकता रहता है. सुबह-ओ-शाम के मातम को ज़िन्दा रखने के सामान की तलाश में अतीत के समंदर में गोते दर गोते लगाता हुआ किसी याद का टुकड़ा बीन लाता हूँ. अभी आखिरी सफ़ा दिखाई नहीं देता. वह सिर्फ़ ख़याल में धुंधला सा उभरता है लेकिन ज़िन्दगी के खर्च के हिसाब का पन्ना काफी लम्बा हो चुका है. ऐसा नहीं सोचता हूँ कि अगले अंधे मोड के बाद 'दी एंड' का बोर्ड दिखाई देगा मगर कुछ है जो मुझे हैरान और परेशान करता है. अक्ल के जोर से ज़िन्दगी के साज़ को कसना मुझे ज़रा सा गैर जरुरी काम लगता है. सुर कहां बिगड़ जाते हैं ? इस सवाल को पैताने रखता हूँ. सिरहाने के पास बीते हुए हसीन लम्हे हैं. भले ही इनका नासेह की नज़र में कोई मोल नहीं है. बस ऐसे ही वक़्त के छोटे छोटे हिस्से गिरते जाते हैं. मैं इस गिरने की आवाज़ से डर कर फिर से अपने अतीत में भाग जाता हूँ. मेरी ख्वाहिशों की कंदील पर जो चमकता हुआ नूर रक्स करता है. वह भी अतीत के रोशनदानों से उड़ कर आता है. मैंने अपने किस्सागोई के हुनर से अत

ये बेदिली कल तक न थी...

ये हर रोज़ का काम होगा और सदा से इसी तरह अजान दी जाती रही होगी. मैंने आज ही सुनी. जबकि मस्जिद, तीसरे चौराहे के ठीक सामने खड़ी है. उन दिनों मेरी उम्र पांच साल रही होंगी. जब इसे पहली बार देखा होगा. मदन लुहार की दुकान से होता, सड़क के किनारे सीमेंट के फुटपाथ पर चलता, अपने पिता को खोजता, उनकी स्कूल तक आ गया था. उस बात को बीते हुए पैंतीस बरस हो गए. चबूतरे वाले नीम के पेड़ के सामने खड़ी स्कूल और पास की मस्जिद एक ही दीवार बांटते हैं. रास्ता दोनों और जाने वालों के कदम चूमता है. मुझे इस स्कूल के बारे में पुख्ता सिर्फ़ यही पता है कि दूसरी पाली के बच्चे, दोपहर की अज़ान सुन कर गणित का घंटा बजने का हिसाब लगाते हैं. आज मस्जिद से निकलते हुए एक नमाज़ी को देखता हूँ. किसान छात्रावास के पास सायकिलों की दुकान चलता है. ख़ुदा के दरबार में अपनी अर्ज़ी लगा कर फिर से सायकिल के पंक्चर बनाने जाते समय स्कूल की खिड़कियों की तरफ देखता है. उसे याद न आता होगा कि अब तक वह कितनी सायकिलें कस चुका है मगर खिड़कियों से आती आवाज़ों को सुन कर शायद सोचता होगा कि वो माड़साब कितने लम्बे थे. बच्चों को यकीनन इससे को

इस शहर का नाम क्या है ?

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एक बेकार सी दोपहर के वक़्त पलंग के आखिरी छोर पर बैठे हुए लड़की ने कहा. वह मुझे पसंद है. ही इज़ सो केयरिंग ऐंड वैरी हम्बल. मालूम है, मेरी पहली रिंग पर वह फोन पिक करता है, जब मैं कहती हूँ अभी आओ तो वह उसी समय आता है. मेरे लिए रात भर जाग सकता है. उसने कई दिनों से अपनी जींस नहीं बदली क्योंकि वो मैंने उसे दिलवाई है. अभी वह क्रिकेट खेल रहा है मगर खेलते हुए भी मुझसे बात करता है. वो मेरे साथ रहना चाहता है. इसके बाद एक लम्बी चुप्पी दोनों के बीच आकर बैठ गयी. उनके बीच कुछ खास बचा नहीं था. जिसे वे प्रेम समझते थे वह वास्तव में एक दूसरे के होने से एकांत को हरा देने का प्रयोजन मात्र था. एक तरल अजनबीपन बढ़ने लगा तो उसके पहलू से उठते हुए लड़की ने आखिरी बात कही. तुम्हारे साथ सिर्फ़ रो सकती हूँ और उसके साथ जी सकती हूँ. उसके चले जाने के बाद कई सालों तक उस लड़के को कुछ खास इल्म न था कि किधर खड़ा है और किस झोंके के इंतज़ार में है. धुंधली तस्वीरों में उस शहर की सड़कें वीरान हो गई थी. घंटाघर के पास वाली चाय की थड़ी पर वह चुप सोचता रहता था. इस शहर का नाम क्या है ? नदी के किनारे बैठे हुए या

यूं भी किसी और सिम्त जाना था.

यात्रा वृतांत : अंतिम भाग रेलगाड़ी में एक सीट की जुगत के लिए याचना भरी आँखों से देखने वाले यात्री, रेल की कामना से ही मुक्त हो गए थे. जितनी व्याकुलता एक शायिका पाने की थी अब उतनी अधीरता शायिका से उतर कर रेल कोच से मुक्त हो जाने को थी. रेल कोच के दरवाज़े पर यात्री इस तरह खड़े थे कि मोक्ष प्राप्ति में सूत भर की दूरी से चूक न जाएँ. जोधपुर से आये धार्मिक पर्यटन वाले यात्री हो हल्ला करते हुए सामान का ढेर लगा रहे थे. उनके सामान को देखकर लगता था कि वे इस गर्मी यहीं बसने वाले हैं. उनके सामान से प्लेटफोर्म के बीच एक मोर्चा बन चुका था. उसके पास से हम अपने ट्रोली बैग घसीटते हुए निकले. उखड़ी हुई ईंटों पर बैग उछल-उछल जाता मगर खुली हवा में आनंद था. सुबह के पौने दस बजे थे. आसमान में बादल थे. हरिद्वार रेलवे स्टेशन पर आहिस्ता चलते हुए हम चारों एक दूजे को बारी-बारी से देखते. बादलों से कुछ एक बूंदें गिरीं. बेटे ने कहा- "पापा बारिश" मैंने उसका हाथ थामे हुए ही कंधे पर लटका बड़ा बैग सही किया और कहा- "बारिश नहीं बेटा. समुद्र मंथन के बाद गरुड़ अमृत घट को लेकर जा रहे हैं. उसी घड़े से कुछ बूँदे

खुली जो आँख तो...

यात्रा वृतांत : छठा भाग  साँझ और रात के मिलन की घड़ी में श्वेत-श्याम का वशीकरण अपने अधीन कर लेता है. रेल की पटरियों से परावर्तित होती जादुई चमक, सामान ढ़ोने के हाथ ठेले, वेटिंग लाइंस पर खाली खड़े हुए उदासीन डिब्बे, सिग्नल पर जलती हरी बत्ती, सौ मीटर दूर लाइन स्विचिंग केबिन का धुंधला सा आकार पानी में लहराती हुई तस्वीर सा झिलमिलाता रहता है. यात्री उतरते हैं और गुमशुदा सायों को रेलवे स्टेशन का हल्का प्रकाश फ़िर से नए रूप में गढ़ने लगता है. रेल के अब तक के सफ़र में मुसाफ़िरी का तरल सामान ख़त्म ख़त्म हो गया. पानी, चाय, कॉफी और एनर्जी ड्रिंक यानि कुछ भी शेष नहीं. सूरतगढ़ स्टेशन आख़िरी उम्मीद की तरह था. हमारा कोच ठीक वहीं रुकता है. जहाँ भूपेंद्र खड़े हैं. कभी कभी ज़िन्दगी मुझे ऐसे ही चौंका देती है. ख़यालों में जिन जगहों पर दौड़ता फिरता हूँ, वे अचानक सम्मुख खड़ी होती हैं. भूले बिसरे हुए लोगों के कंधों को मेरी अंगुलियाँ छूने लगती है तो डेस्टिनी जैसी वाहियात बात पर दिल आ जाता है. मैं सोचता रहा कि सूरतगढ़ में भूपेंद्र जी मिल जायेंगे और हमारा कोच उनके ठीक सामने रुका. बरसों बाद मैं उन

आरज़ुएँ हज़ार रखते हैं...

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यात्रा वृतांत : पांचवा भाग निकम्मा माने निः कर्मकः. जिसके पास काम न हो. यहाँ अनंत विश्राम है मगर वह कीमत बहुत मांगता है. विशाल भू भाग पर फैले इस रेगिस्तान का जीवन बहुत दुष्कर है. मनुष्य ने किस तरह से इसे आबाद रखा है, ये सोचना भी कठिन है. मुझे अक्सर दुनिया में दो तरह के लोग ही सूझते हैं. एक वे जो नदियों के किनारे बसे, दूसरे वे जिन्होंने सहरा को आबाद किया. सिन्धु घाटी सभ्यता से लेकर अमेजन के आदिवासियों तक को पढ़ते हुए पाया कि मनुष्य ने सदा बेहतर सुविधा वाली जगहों पर रहना पसंद किया है. जहाँ पानी सहजता से उपलब्ध हो और ज़मीन उपजाऊ हो. व्यापार के मार्ग भी वे ही रहे जहाँ नदियाँ और समंदर थे. तो ये कैसे लोग थे जो इस सूखे मरुस्थल में सदियों तक रहे. तीन सौ हाथ नीचे ज़मीन को खोद कर पीने का पानी निकाला और विषम परिस्थितियों में भी जीवन के सोते को सूखने न दिया. बीकानेर का रेगिस्तान रेल के साथ चलता है. खिड़की से बाहर छोटे छोटे से गाँव आते हैं. घरों की शक्लें बदल गयी है. झोंपड़ों वाला रेगिस्तान सीमा पर छूट गया. अब कच्चे घरों पर पक्के जैसी कारीगरी दिखती है लेकिन बाड़ वैसी ही, वही बब

प्यास भड़की है सरे शाम...

यात्रा वृतांत : चौथा भाग मनवार शब्द का शाब्दिक अर्थ है आग्रह. अब तक धार्मिक पर्यटन पर निकले परिवारों के पच्चीस से पैंतीस आयु वर्ग के नए गृहस्थों की टोली जो मोबाइल पर ऊँची आवाज़ में बात करने, गाने सुनने और चुहलबाजियों में व्यस्त थी, एकाएक अच्छे मेजबानों में रूपायित हो गयी. हम सब के भोजन के बाद देसी घी से बनी मिठाई के डिब्बे हमारे कूपे में भी दाखिल हुए और बच्चों को पकड़ लिया. खाओ, अरे पापा मना नहीं करते हैं, तो क्या तुम मिठाई खाते ही नहीं, ले लो बेटा. इस तरह की मनवार से कोई कैसे बच सकता है. वैसे भी राजस्थान के लोग मेजबानी और मनवार में अतुलनीय हुनर के धनी होते हैं. अट्ठारह सौ में बंगाल आर्मी में कमीशन लेकर आया केडेट जेम्स टोड कुछ साल मराठों को संभालने के लिए नियुक्त रहा फ़िर उसे राजपुताना में जासूस और निगोशियेटर बना कर भेज दिया गया. वह यहाँ आते ही मनवारों के सम्मोहन में गिरफ़्तार होकर कम्पनी और महारानी के आदेश को भूल गया. उसने पर्यटन किया. अद्भुत राजस्थान की भौगोलिक और सांस्कृतिक विशेषताओं को दर्ज किया. उस कर्नल जेम्स टोड की लिखी पुस्तक "एन्नल्स ऐंड एंटीक्युटीज़ ऑफ

खुशबू उसका पता है...

यात्रा वृतांत : तीसरा भाग नागौर मेरे ज़हन फ़िर लौट आया. बैलों वाला नागौर नहीं वरन अकबर के नौ रत्नों में से दो रत्न अबुल फज़ल और फैज़ी का जन्मस्थान नागौर. वह नागौर जिसके निवासी शेख़ मुबारक ने उलेमाओं के बीच गज़ब का कायदा स्थापित करवाने के लिए बादशाह अकबर के लिए अचूक आज्ञापत्र तैयार किया था. वह एक संविधान बनाने जैसा काम था. ये दो रत्न उसी शेख़ मुबारक के ही बेटे थे. मुझे एक और बड़ा नायाब आदमी याद आया. उसका नाम था अब्दुल क़ादिर बदायूँनी. जिसने बादशाह अकबर के यहाँ नौकरी पर रहते हुए भी चोरी छिपे उस वक़्त का सच्चा इतिहास लिखा और उस दौर में दिल्ली में वही सबसे अधिक बिकने वाली किताब थी. मुझे ये मुल्ला बदायूँनी जन्मजात नाख़ुश और नालायक पात्र लगता है. उसकी मृत्यु के बाद में जहाँगीर ने उसके खानदान को यह कहते हुए लूट कर जेल में डाल दिया था कि उस पुस्तक ने अब्बाजान की बेइज्जती की थी. इन यादों का कारण है कि मेरे पिता इतिहास पढ़ाते थे और छोटा भाई भी इतिहास का एसोसियेट प्रोफ़ेसर है. उनके द्वारा सुनाये गए रोचक किस्से हँसते हँसते मेरे मन पर अपनी छाप छोड़ते गए हैं. लेकिन मैंने कभी इतिहास नहीं

अमूर्त यादों से खिला रेत का समंदर

यात्रा वृतांत का दूसरा भाग . बेलगाम बढती हुई आबादी के बोझ तले दबे हुए चिंचिया रहे हिन्दुस्तान का एक छोटा रूप रेल के डिब्बे में समा आया था. मुद्रास्फीति के समक्ष घुटने टेक चुके भारतीय रुपये की तरह वातानुकूलन यन्त्र ने भी अपना असर खो दिया. मेरे देश के आवागमन की जीवन रेखा भारतीय रेल पर हर सैकेंड इतना ही बोझ लदा रहता है. हमारे तीसरे दर्ज़े के इस डिब्बे की दो सीटों पर दस जानें फंस चुकी थी. इस गाड़ी में अगर दूसरा या पहला दर्ज़ा होता तो मैं अवश्य उन्ही को चुनता. मेरे बच्चे इन अतिक्रमणियों को देख कर नाखुश थे लेकिन हर गरीब मुल्क में आदम कौम का कायदा यही है कि वे पहले बहस मुबाहिसे में उलझते हैं और बाद में अपने सहयात्रियों को भोजन की मनवार में लग जाते हैं. मैंने अपने इसी एक छोटे से अनुभव से बच्चों को राजी कर लिया कि इनमें से कुछ की सीट्स अगले स्टेशन तक कन्फर्म हो जाएगी. बाहर की तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं होना था कि कालका एक्सप्रेस के नाम से जानी जाने वाली ये रेल हिंदुस्तान के पूरे रेगिस्तान के बीच छः सौ किलोमीटर गुजरती है. बस एक जैसलमेर अलग छूट जाया करता है. मगर उसकी तस्वीर भी

आगाज़ हुआ फ़िर किसी फ़साने का...

उदासी को तोड़ने के लिए जून महीने में की गई यात्रा को लिख रहा हूँ. बात लम्बी है तो टुकड़े भी कुछ ज्यादा है. दिल में सुकून हो तो पढ़िए न हो तो जरुर पढ़िए क्योंकि दुनिया सिर्फ़ वैसी ही नहीं है जैसी हमें दिख रही है. ॥ गतिश्च प्रकृति रसभवस्थान देश काल चापेक्ष वक्तव्याः ॥ लय की निश्चित चाल के विभिन्न रूपों से जो विविधता और अनचीन्हा सौन्दर्य उत्पन्न होता है वह आनंददायी है . इस गति को हम जीवन भी कहते हैं और गति से भावव्यंजना होती है . प्राणियों में भिन्न प्रकार के रसों की निष्पत्ति से क्रियाएं शिथिल अथवा द्रुत हो जाया करती है . क्रोध , लोभ , सुख , प्रेम , भय आदि से प्रेरित होकर हमारे भीतर अत्यधिक प्रतिक्रिया होती है . घर में गति न्यूनतम होती है . यह ठहराव का स्थल है . इसलिए घर से बाहर आते ही मन और मस्तिष्क की गति परिवर्तित हो जाती है . मैं बरसों बाद इस तरह के अनुभव में था. सुबह के वक़्त ठीक से आंख खुली न थी और रेल के पहियों के मद्दम शोर में आस-पास बच्चों की ख़ुशी लहक रही थी. खिड़की से बाहर सोने के रंग की रेत