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Showing posts from June, 2011

दोपहर के वक़्त का टुकड़ा...

उमस भरे मौसम में बायाँ हाथ ट्राउज़र के पाकेट पर रखे हुए और दूसरे हाथ की अंगुलियाँ उसके बालों में फिराते हुए जाने क्यों लगता है कि वक्त खोता नहीं, हमारे भीतर बचा रहता है. जो चीज़ें घेरे हुए थी, उन्हें बिना किसी खास शिकायत के ख़ुद ही चुना था. सलेटी रंग की जींस, पूरी आस्तीन के शर्ट, सफ़ेद जोगर्स, बच्चों के रंगीन कपड़े, चैक प्रिंट वाले बैड कवर, कफ़ और कॉलर से आती खुशबू, दीवारों के रंग, तकियों से भरा डबल बैड और शराब पीने का बेढब अंदाज़. लेकिन इन सालों में जो छूट गया था, उस पर पसंद काम नहीं करती थी. अक्सर वही याद आता. एक खाली दोपहर के वक़्त का टुकड़ा, छिटका हुआ उत्तेजना का पल, हवा में बची रह गयी गरम साँस, छूटता हुआ हाथ, दूर जाती हुई आँखें और देह से अलग हुआ जाता आधी रात के राग का आलाप... साल गिरते रहे. नए मौसमों का शोर झाड़ू-बुहारी, रसोई-दफ़्तर, बच्चों-बूढों और शादियों-शोक के साथ बीतता गया. ज़िन्दगी के पेड़ की कोमल हरियल छाल, कठोर और कत्थई होती गयी मगर याद कभी अचानक आती थी. ऐसा न था कि वह गली से गुज़रे मुसाफ़िर की किसी दोशीजा पर अटकी निगाह वाली मुहब्बत थी. उसे छू कर देखा था. उसकी आवाज़ को

ख़ूबसूरती का ख़याल और बेसलीका बातें

ऐसा नहीं है कि सब अपने होने के बारे में जानते हैं. परिचित शब्द सुनाई देते तो हैं तो उनको दो के पहाड़े की तरह अपनी वह पहचान याद आ जाती है. यह सीखने की प्रक्रिया में शेष बचा रह गया हिस्सा है. जबकि अधिकतर यह भी भूल चुके हैं कि बर्फ के रेगिस्तान वाले देशों के नाम क्या है और अमेरिका में सिर्फ़ हथियारों के कारख़ाने ही नहीं वहां कुछ बहुत लम्बी नदियाँ भी हैं. जिनके किनारे रहने वाले लोग ओबामा को नहीं जानते जैसे बाबा रामदेव अब भी इस रेगिस्तान के एक लोक देवता ही हैं. यह पीढी जाने किस सम्मोहन में जी रही है कि उनके युवा दिनों के सपनों की निशानियाँ भी शेष नहीं बची. एक अस्पष्ट और लयहीन शोर से घिरे हुए निरर्थक सवाल जवाब में अपना वक़्त बिता रही है. इस टैक दुनिया में इलोक्ट्रोंस के हाहाकार के बीच कुछ पुराने ख़याल के सवालों की गंध जब मुझ तक आती है तो सुख से भर जाता हूँ कि वे दिन कहां गए जब ख्वाबों की लड़कियाँ स्थायी रूप से काई की तरह चिपकी नहीं रहती या फ़िर लडके एक बासी ब्रेड पेकेट के सबसे मोटे वाले टुकड़े की तरह फ्रीज़ में सबसे आगे अटके नहीं रहते थे. ये शायद फास्ट ट्रेक एवोल्यूशन है कि जिस हु

सलेटी रंग पर कढ़ाई

उसके हाथ को थामे हुए पाया कि हम उन युद्धबंदियों की तरह थे, जिनके शहरों को अनिवार्य विवशता में ध्वस्त किया जा चुका था. शीशे के पार जो घर दिखाई देते थे, उनकी खिड़कियों में बचपन के बाद के कमसिन दिनों में देखी हुई सूरतें नहीं थी. जून के लगभग बीतते हुए दिनों में गुलाबी दीवारों पर टिकी हुई छतों के ऊपर बादलों के टुकड़े थे. ऐसी उमस भरी दुपहरी की कई कार्बन कॉपी ज़ेहन में पहले से ही मौजूद थी. वे कितने बरस पीछे का खाका खींचती थी ये कोई भूलने जैसी बात नहीं थी. सड़क किनारे का गुलमोहर अभी कच्चा पेड़ था फिर भी उसकी छाँव में एक मुकम्मल इंतज़ार किया जा सकता था. घर से उस तक पहुँचने वाले रास्ते के बाई तरफ जलकुम्भी की बढती हुई बेल में खो गया था धूसर तलछट ठीक मेरे अतीत की तरह , वहां चीज़ें कायम थी मगर उनको ढक लिया था किसी जिद्दी रंग ने . वह एक साफ़ खिला हुआ दिन था गहरी धूप में कुछ बादलों के फाहे , कुछ कबूतरों का अजाना नाच , कुछ सूनापन , कुछ कारें और सड़क के मौन किनारे हमने अपने आंसुओं को पोंछते हुए कहा " अच्छा हुआ ..." फ़िर उसने कहा , तुम

क्या बुझेगा राह से या सफ़र बुझ जायेगा

इस महीने की छः तारीख़ की रात मैंने एक बड़ा उदास और अंधकार भरे भविष्य को सम्बोधित ख्वाब देखा. ख्वाब रात से पहले दिन का तापमान अड़तालीस डिग्री से ऊपर था. लोग इसके बावजूद अपने जरुरी काम करने के लिए बाज़ार में मसरूफ़ थे. जिस चीज़ को छू लो, वह अंगारा जान पड़ती थी. रेगिस्तान के बीच में बसा हुआ क़स्बा है. सदियों पहले अच्छी ज़मीनों से खदेड़ दिए गए लोग इस मरुस्थल में आ कर बस गए थे. संभव है कि वे भ्रमणशील जिज्ञासु थे अथवा भगोड़े या फ़िर विद्रोही. हम अपनी प्रतिष्ठा के लिए खुद के पुरखों को विद्रोही मानते हैं. दो हज़ार सालों में उन्होंने सीख लिया था कि गरमी की शिकायत करना बेमानी है. मैं भी उनका ही अंश हूँ. मैंने भी गहरे खारे पानी को पीते हुए चालीस साल का सफ़र तय किया है. धूप सर पे न हो तो चौंक जाते हैं. उसका साथ इतना गहरा है कि सौ मील तक एक भी सूर्यदेव का मंदिर खोजना मुश्किल काम हैं. यूं देवता इतने हो गए हैं कि हर मोड़ पर सुस्ताते हुए मिल जाते हैं. सूर्य सहज उपलब्ध है इसलिए दुनिया के उसूलों के अनुसार उसका उतना ही कम महत्त्व भी है. ख़्वाब किसी अँधेरी दुनिया की बासी जगह पर आरम्भ होता है. व

प्रेम का कोई तुक नहीं होता

उसे तो बात कहने का भी सलीका न था. साँझ ढले रात की चादर पर खुद को बिखेर देता. सूखे पत्तों के टूटने जैसी उसकी आवाज़ थी. कहता था कि मुझे रात के माथे की सलवटें गिनना आता है. इसी कारण देर तक जागने की आदत हो गयी है. सुबह अनार के फूलों पर आने वाली पतली लम्बी चोंच वाली नीले रंग की चिड़िया उसे कहती सुबह हो गयी है. वह कहता इतने सवेरे कैसे उठ जाती हो, तुम किसी से प्रेम नहीं करती क्या ? चिड़िया कहती हाँ करती हूँ. चिड़िया ने उसे एक अतुकांत गीत सिखाया. क्योंकि प्रेम का कोई तुक नहीं होता. हर शाम संवरती थी, तेरे साथ से महकती थी जिसमें कांटे चुने, जिसने सपने बुने ये बीते दिनों की एक बात है वो लड़की भी नहीं रही, वो दिन भी तो बदल चुके और मैं भी कोई और हूँ.... बारहा न पूछो हवाओं से, अनमनी सी घटाओं से इस किस्से में आएगा उसका नाम भी जिसके हाथों उसका खून हुआ, ज्यों मरते हैं ख्वाब हज़ार बार वो ख्वाब भी नहीं रहे, वो रुत भी तो बदल चुकी और मैं भी कोई और हूँ... ये सवाल ही गलत है कि ना सूद ना उधार थे क्या देखना, क्या पूछना, उसके ज़ख्म बेहिसाब थे गणित भी क्या कीजिये, झड़ चुके सब पात का, बीते हुए हालात का वो सूखे पा