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Showing posts from May, 2011

आग के पायदानों पर बैठी स्वर्ण भस्म

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तुम उसके दुःख को नहीं समझ सकते. मुस्कान और निर्लिप्तता के तालों में कैद उसकी गहन चुप्पी तक नहीं पहुँच सकते. वह सदाबहार खिले फूलों का तिलिस्म है. आग के पायदानों पर बैठी स्वर्ण भस्म है, वह असंभव और अनंत है. उसे समझने की कोशिशें व्यर्थ हैं. वह अपनी आँखों से तुम्हारे रोम रोम से संवाद करना जानती है. जब भी उससे मिलने जाओ दिल का खाली कटोरा लेकर जाना और चुप से उसके पास धर के बैठ जाना. जब वह उठ कर जाने लगे तब तुम कटोरे को समेट कर देह की झोली में रखना और लौट आना. इसे एक बार फिर दोहराना कि स्त्री असीम और अतुलनीय है. वह सात समंदर पार से, चीड़ के पेड़ों से भरे पहाड़ से, गंगा के पानी में पांव डाले हुए, नवाबों के शहर में शाम को ओढ़े हुए या महानगरों की उमस भरी छत पर बैठे हुए अपने एक आंसू से प्याला भर देगी और कभी दुखों के विस्तार को समेट कर अपनी हथेली में छुपा लेगी. तुम दस बीस चेहरे लगाने का हुनर जानते हो और उसे उन सभी चेहरों को सब्र के संदूक में करीने से रखने का फ़न आता है. स्त्री के बारे में अगर और ज्यादा जानोगे तो तुम उससे डरने लगोगे. इसलिए वह तुम्हें जानने नहीं देना चाहती, इसीलिए तुम

औरत की जगह

बाढ़ के पानी पर बर्फ जम आई थी अब वहां दूर तक स्केट किया जा सकता था. एक दुपहरी में दस लड़कियाँ कन्धों पर स्केट लटकाए, गौरैयों की तरह चहकती हुई झुण्ड में पहुँच गयी. लड़कों को ये बर्दाश्त ही नहीं हुआ कि वहां लड़कियाँ भी स्केट करे. उन्होंने चीखते हुए उन पर हमला बोल दिया. रीयल जिम्नेजियम स्कूल के एक मोटे लड़के ने सबसे आगे खड़ी लड़की के पास पहुँचते ही अपनी बांह एक झटके से हवा में घुमाई और अपनी नाक छू ली. वह छोटी लड़की डर के भाग गयी. उसके पीछे डर कर चीखती भागती लड़कियों को देख कर लड़के ठहाके लगने लगे. एक लड़की गिर पड़ी. लड़कों ने कहा अगर ऐसा ही होने लगा तब तो औरतें फ़ौजी बैरकों में भी आने लगेंगी, बल्कि लड़ाई के मैदान में लड़ने भी पहुँच जाएगी. औरतों की जगह घर है या फ़िर चर्च... यानोश कांदोलान्यी की कहानी रक्त अनुबंध के इसी भाग पर मैं रुक जाता हूँ. इसलिए कि ईश्वर के रखवाले दुनिया की जिस जगह भी हैं, उन्होंने औरतों के लिए जगहें निर्धारित कर रखी है. मेरे मित्र जब तुम एक सामूहिक ईश्वर के पक्ष में खड़े होते हो तब दुनिया की आधी और जरुरी आबादी के विरोध में खड़े होते हो. कुछ माह पहले एक पुस्तक का उल्ले

तेरी ही तरह सोचता हूँ कि गुमख़याल हूँ.

तेरे होठों के पास की लकीरों में रंग भरता हुआ मोम कंधों से फिसलता पीठ के कटाव में खो जाता हूँ फ़िर साँस लेते ही टूट जाता है इच्छाओं के फ़रेब का जादू . दिन भर सुकून के पानी में प्यास की आग फूंकती रात भर इश्क़ से भीगे रेशमी फाहे निचोड़ती है तेरी याद... और ये मौसम बदलता ही नहीं. तुम दुर्लभ हो , फिनिक्स के आंसुओं की तरह और मैं अजीर्ण हवस से भरा अशुभ छाया प्रेत . * * * जयपुर के चौड़ा रास्ता पर एक दुकान के आखिरी कोने में ऊपर की तरफ रखा हुआ एल्बम दूर से दिख गया था . 'कहना उसे' अब भी कभी - कभी ख़्वाबों में दिखाई देता है . कितने मौसम बीतते गये. शाखों पर नई कोंपलें फूटती रही, फूल खिलते रहे, मगर वो न समझा है न समझेगा. अपने सुनने के लिए उसी एल्बम की ये ग़ज़ल यहाँ टांग रहा हूँ. फ़रहत शहज़ाद और मेहदी हसन : तन्हा तन्हा मत सोचा कर...

वह एक भयंकर ईश्वर था.

पांच हज़ार साल ईश्वर की उपासना करने के बावजूद ज्ञात देवों ने मनुष्य जाति पर कोई महान उपकार नहीं किया है. सब एक ही बात पर पर अटके हुए हैं कि ईश्वर ने मनुष्य की रचना की है इसलिए उसका आभारी होना चाहिए. उनके पास अभी तक इस बात का जवाब नहीं है कि उस महान रचयिता ने क्रूर हत्यारे और वहशी आदमखोर क्यों रचे हैं ? इसके जवाब में भी एक कुतर्क आता है कि अच्छाई के लिए बुराई को रचना जरुरी है. तो क्या ईश्वर कोई बुकी है जिसने अपने आनंद के लिए मनमर्जी के खेल को फिक्स किया है. कई दिन पहले एक कहानी पढ़ी थी, "पाल वायला'स लाइफ". देसो सोमोरी की इस कथा का मुख्य पात्र पेशे से चित्रकार है. वह कलाकारों के अक्सर गायब हो जाने वाले आनुवांशिक गुण से भरा हुआ है. वह सही मायनों में मस्तमौला है. एक बार लौट कर आया तो दाहिने हाथ की दो अंगुलियाँ नहीं थी. लोगों के पूछने पर इतना सा कहा - कुछ नहीं होता, ऐसे अधिक हीरोइक लगता है. रंगों और ब्रशों के लिए अभी बहुत कुछ बचा है और मैंने अपना उत्साह अभी नहीं खोया है. एक दिन पाल को नया काम मिला. एक धनी व्यक्ति ने क्राइस्ट का चित्र बनाने का प्रस्ताव दिया. उसने

टिमटिमाती हुई रोशनियों में

मैं शायद कभी भूल भी जाऊं मगर अभी तो याद है कि रात के आँगन में उतरने के वक़्त हम लगभग रोज ही बात किया करते थे. एक दिन अचानक इससे तौबा हो गयी. उस दिन के बाद भी मैं वैसे ही हर रात को ऑफिस में होता. कुछ ग्रामोफोन रिकार्ड्स के केट्लोग नंबर दर्ज करता. रिक्रेशन रूम के पिजन बोक्स से ग्लास निकालता और ऑफिस की सीढियों पर आकर बैठ जाता. कभी मन होता तो छत पर चला जाता. वहां से पहाड़ी के मंदिर, आर्मी केंट, एयरफोर्स बेस और शहर से आती रोशनियों को देखता. उन टिमटिमाती हुई रोशनियों में मुझे तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती थी. ऐसी आवाज़ जो मेरे बेहद करीब होती. मैं उससे लिपट कर खुशबू से भर जाया करता. वे रातें नहीं रही. जिन सीढियों पर बैठ कर तुमसे बात किया करता था, उन पर तन्हाई के आने से पहले ही ऑफिस छोड़ दिया करता. विगत दो महीने से फ़िर शाम की शिफ्ट में हूँ मगर करता क्या हूँ ये ठीक से याद नहीं है. हाँ सात दिन रेत में धूप का सफ़र करते हुए बीते हैं. परसों की धूप बड़ी तल्ख़ थी. तापमान चवालीस डिग्री था और लू के थपेड़ों में कई सारे वाहन गाँव जाने वाले रास्ते में सुस्ता रहे थे. पगरखी से ऊपर उघडे हुए मेरे पांव

तेरे खाके भी मेरे पास नहीं रह सकते...

अब भी वहां तन्हाई की खुशबू बसी हुई है. एक खेजड़ी के पेड़ के नीचे थोड़ी देर सुस्ताने के लिए बैठने पहले मैं दो किलीमीटर पैदल चल चुका था. दोपहर के दो बजे भी कुदरत मेहरबान थी. लू बिलकुल नहीं थी जबकि तापमान बयालीस डिग्री के आस पास था. मैं जिस हेलमेट के सहारे धूप से बचाव का सोच आया था वह बाइक के साथ पीछे छूट चुका था. मोटे किन्तु बेहद हलके तलवों वाले सेंडल में हर कदम पर रेत भर रही थी. मैं अपने ब्रांडेड चश्में से दिखती आभासी छाँव में देखता कि सामने कोई घर, कोई आदमी दिख जाये. खेजड़ी की छाँव में बैठे हुए दूर बिना साफ़ा बांधे एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया. मैं रास्ता पूछने के लिए उसका इंतजार नहीं कर सकता था कि वो पौन किलोमीटर दूर था. आगे किलोमीटर भर की दूरी पर हरे पेड़ दिख रहे थे और उनके बीच किसी का घर होने की आशाएं भी. आखिर मैं नदी की रेत में उतर गया. कोई पांच साल हो गए फ़िर भी सूखी उड़ती हुई रेत में नदी के बहाव का फैलाव साफ़ दीखता था. नदी अपने रास्ते के सब सुख दुःख बहा कर ले गयी थी. किनारे पर बचे हुए पुराने पेड़ों और झाड़ियों की ओट से हरिणों का एक समूह अचानक मुझ से चौंक कर भागा. पेड़ों प

जली तो बुझी ना, कसम से कोयला हो गयी हाँ...

वे हर साल क्लासिक हो जाने को बेताब रहा करते थे. मोहिनी अट्टम के बाद टी एस इलियट की कविता पर लघु नाटिका, शेक्सपीयर के नाटक के बाद भरत नाट्यम ले कर आते और सुदूर किसी अफ्रीकी देश के लोक नृत्य को करने के लिए कोवों के पंखों से बना ताज पहन, कमर पर पत्ते बाँध कर आदिवासी समुदायों के लोक नृत्य लूर जैसा प्रदर्शन करते हुए वैश्विक हो जाया करते. अंग्रेजी नाटक करते हुए बच्चों में माईकल मधुसुदन दत्त जैसा ब्रितानी एसेंट कभी नहीं आता लेकिन वे शब्दों को खोखले मुंह से गले में ब्रेड फंसी बिल्ली की तरह बोलते जाते. मैं हर बार तो नहीं जा पाता हूँ लेकिन कई बरसों से विद्यालय प्रबन्धन समिति का सदस्य होने के नाते प्रेमपूर्ण निमंत्रणों को निभाने की कोशिश करता हूँ. इस शाम के तीन घंटे बड़े सुन्दर  होते  हैं. मैं प्रतिभागी बच्चों से संवाद करने में ये समय बिता दिया करता हूँ. मेरी जिज्ञासाएं अक्सर उनकी वेश भूषा और आइटम के कंटेंट को लेकर होती है. साल दर साल बच्चे, शिक्षक और प्राचार्य बदलते रहते हैं लेकिन वह खुशबू नहीं बदलती. अभिभावक कहते हैं कोई पढाता ही नहीं है. प्राचार्य अपने उद्बोधन में कहते हैं इस रे