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Showing posts from February, 2011

लौट कर मन की हवेली में जाना

कोई खुशबू उसको लाई होगी या फिर उसको कुछ याद आया होगा कि कल रात चार मेहराब की हवेली के आंगन में एक मुसाफिर तनहा घूम रहा था. ये रात भी कुछ काली थी और कुछ उसके चेहरे पर गहरी उदासी भी पसरी थी. किसके सीने से लगने को तड़पता होगा, किसकी याद के हिस्सों को चुनता होगा, किसके लिए यूं फिरता होगा, किस के लिए मुसाफिर बाद बरसों के उस आँगन में आया होगा ? एक कांपते हुए पत्ते को छू कर बोला हवेली जगा अपने ख़यालों की जन्नत, बुला जवां साजिंदों को, हवा में घोल दे संदूकों में रखे पैरहन की खुशबू, तलवार भोहों से कह दे गिराएँ बिजलियाँ, रख दे उन रुखसारों पे लरज़िश कि मैं शराब पीते पीते थक गया हूँ. आधी रात को उदास आवाज़, छोटी सिसकियाँ और लम्बी चुप्पी को सुनने के बाद, आपके पास अपना कुछ नहीं रह जाता. ऐसे में सोचता हूँ ज़िन्दगी की इस गाड़ी का रूट चार्ट बड़ा वायर्ड है. दो पल को धड़कनें सुनने को आदमी ज़िन्दगी भर नाउम्मीदी को हराने में लगा रहता है. ओ मुल्ला नसरुद्दीन के कमअक्ल गधे आँख खोल कि सामने कहवा का प्याला रखा है. जो शराब थी वो उतर गई, जो ख़याल था वो डूब गया...

हर शाम उसका यूं चले आना

अभी बाहर मौसम में सीलन है. कपड़े छू लें तो अचरज होता है कि किसने इतना पानी हवा में घोल दिया है. यहाँ बारिशें इस तरह आती थी जैसे खोया हुआ महबूब बरसों बाद सडक के उस पार दिख जाये. सात साल में एक बार यानि कुदरत का हाल भी कमबख्त दिल सा ही था और दिन तो बिस्तर पर रह गये टूटी हुई चूड़ी के टुकड़े से थे. दूर तक सूना आसमान या फिर काँटों से भरे सूखे पेड़ खड़े होते. जिन सालों में बारिशें नहीं थी तब दुःख भी ज्यादा दिन तक हरे नहीं रहते थे. सालों पहले की शामें अक्सर तन्हाई में दस्तक देती और मन के घिसे हुए ग्रामोफोन से निकली ध्वनियाँ अक्सर भ्रमित ही करती. सोचने को चेहरे और बुनने को याद के कुछ धागे हैं. हाथ में लिए दिनों को फटकते हुए पाया कि शाम के इन लम्हों के सिवा पूरा दिन जाया हुआ. जब तक अपने भीतर लौटता हूँ, मेरा हमसाया दो पैग ले चुका होता है. अव्वल तो पहचानने से इंकार कर देता है और मंदिर के बाहर जूते रखने के खानों में करीने से रखे जूतों की तरह दुआ सलाम को रखता जाता है. पुरानी बची हुई शिनाख्त के सहारे मैं उसे कहता हूँ कि तुम को खुद नहीं पता कि तुम्हारे कितने चहरे हैं ? अभी जो मुस्कुराते

कुछ ख़त जेब से गिर जाते हैं

तुम्हारी भाषा को संवारने की जरुरत है. छोटी चेरी जैसे नाक वाली सुंदर लड़की, मैं तुम्हे सबसे प्रिय लगने वाले नाम से पुकारना चाहता हूँ. लेकिन बरसों से मेरी भाषा में ऐसे शब्दों ने स्थान बना लिया है जो सिर्फ देश, काल और घटनाओं के सूचक मात्र हैं. इनमें सिर्फ ठण्ड है. ऐसे में संवाद करते समय मेरे अवचेतन की भाषा मुझे उसी रास्ते हांक कर ले जाती है. सम्भव है कि गहरे प्रेम के शब्द खो गए हैं और मैं स्थूल प्रकृति वाले शब्दों से ही काम चलाता रहा हूँ. इसी तरह मेरी भाषा निर्जीव होती चली गई है. लड़कियाँ अपनी बाँहों से परे धकलते हुए गालियां देंगी, इसलिए उनसे छुप गया. दुकानदार मुझे शराबी न समझे इसलिए मैं ऑफिस के ड्राईवर से ही आर सी मंगाता रहा हूँ. ऐसे कई फोबियाओं से घिरे होने ने मुझे नए शब्दों से वंचित रखा है. मुझ में अधैर्य भरा है. खुद को धूसर रंग की ठहरी हुई चीजों से घिरा हुआ पाता हूँ. प्रकृति की जिस सुंदर तस्वीर से तुम बात करना चाहती हो, जिस नीले आसमान की तुम महबूबा हो, दरियाओं के जो गीले किनारे तुम्हारे दिल के कोनों से टकराते हैं, पंछियों का कलरव या बारिश की धुन या फिर तुम्हारे बालों को छू

पलकन की चिक डाल के साजन लेऊं बुलाय

एक ही बहाने को कई बार उलट पुलट कर देखा और समेट कर वैसे ही रख दिया. वो खुशबू जो भीगे मौसम का आभास देती थी, अभी तक मेरे कमरे में बसी हुई है. फरवरी में भी बारिशें गिर रही हैं. यकीन नहीं होता कि उसी रेगिस्तान में रह रहा हूँ जिसने आसमान को तकते हुए कई बरस सूखे गुज़ार दिये थे. बेवक्त आँखें उदास हो जाती है और पिछले पल सुनी गई आवाज़ की स्मृतियां बरसों पुरानी लगने लगती है. सुबह जागते ही रोजनामचा खुल जाता है. लोककथा के रास्ते एक दिन हो जाऊंगा स्मृति शेष मुझे ख़ुशी है कि किसी भी वजह से आता है तुम्हारा ख़याल जिसके भी किसी से हैं प्रेमपूर्ण संबन्ध, उसके पास पर्याप्त वजहें हैं रोने के लिए. आज कल घरों की छतों को चूमते हुए चलते हैं बादल चमकती रहती हैं बिजलियाँ रात और दिन गरजती पुकारती स्मृतियों के झोंके उतने ही वाजिब है, जितनी वे पुरानी है. इस बेवक्त के भीगे सीले मौसम में भी अभी आया नहीं है वह दौर जब हर कोई अपनी पसंद की लड़की के साथ हो सके इसलिए मेरी छोटी सी आत्मकथा को नीम बेहोशी में पढना कि तुम इसमें हर उस जगह हो जहां लिखा है उम्मीद और मैं वहां हूँ जहां लिखा है स्मृति शेष. एक अरसे से सोच रहा हूँ

बस यही माल मुसाफिर का है...

तुम्हारी अँगुलियों में ये खुशबू कैसी है ? रात एक ख़ुशबाश ख़्वाब को बिना सिलवटों के समेटते हुए नीद आ गई थी. कॉफ़ी के खाली कासे को खुली खिड़की में रखने के बाद सुबह की आँख खुली तो सामने घूमेश्वर महादेव मुस्कुरा रहे थे. इस मुस्कराहट के ऊपर एक बड़ा पीपल खिला हुआ था जिसकी एक बाँह डिवाइडर के उस पार तक जाती थी. फूल वाला भी पीपल की छाँव का बराबर का हिस्सेदार था. सुबह की धूप में फूलों को पिरोता हुआ बिजली के ट्रांसफार्मर के नीचे रखी टोकरियाँ संभालता जाता. उसकी ज़िन्दगी का ख़याल पीठ में बैठे महादेव रखते हैं. हल्के हरे रंग के सेल्फ प्रिंटेड सलवार कुरते में आई अधेड़ महिला मंदिर में विराजमान महादेव के लिए घंटी बजाती है. मैंने सोचा अब वह झुक कर नंदी के कान में अपनी अर्जी रख देगी लेकिन उसने हाथ जोड़े और विनम्र भाव से मुड़ गई. उसके मोजों का रंग मेरी ट्राउज़र से मिलता था. मौसम में नमी थी. पीपल के पत्तों के बीच से आते धूप के टुकड़े मेरी आँखों पर गिरते और मैं ख़यालों से लौट आता. घूमेश्वर महादेव के पार चौराहे पर आधुनिक शिल्प की प्रतिनिधि जोधपुरी लाल पत्थर की मूरत खड़ी है. दो लम्बी पत्तियां एक दूसरे से सर्पिल ढं

ऊपरी माले में टंगी झोली में अर्ज़ियाँ नहीं, कुछ अनगढ़ ख़्वाब रखे हैं

तुम कहां खोये रहते हो ? मैं खिड़की के पल्ले को थामे हुए देखता हूँ कि नीली जींस और सफ़ेद शर्ट में खड़ा हुआ दुबला सा शख्स कहीं देखा हुआ है . कुनमुनी स्मृतियों की गंध में इसकी पहचान नहीं बनती मगर कुछ है जो अपनी ओर खींचता है . उसको आवाज़ देता हूँ तो लगता है कि खुद को बुला रहा हूँ . ऐसे बुलाना कितना मुश्किल है फिर भी बाहर झांकता हुआ कहता हूँ . तुम नीचे क्यों खड़े हो ? उपर आओ ना ! देखो कि ये किस याद का लम्हा हैं जो चुभता जाता है . इस रास्ते कोई खुशबू नहीं आई . बस वक़्त था जो राख़ होकर बरसों से बाँहों पर जमता गया . लाल कत्थई रंग के चोकोर खानों वाला सोफे का मैटी कवर भी गर्द से भर गया है . दीवारों की सुनहरी रंगत और चिकने पत्थर की करीने से बनी सीढ़ियों पर चढ़ते हुए क्या वह फिर से बीच में बैठ कर सुस्ताने लगेगा , क्या उसे रेलवे अस्पताल के आगे खड़े इमली के पेड़ की हरी पत्तियां याद आयेगी , क्या वह घर बदल गए दोस्त के पुराने मकान