किस्से ज़ेहन में


इस स्कोटिश कहावत को भले ही गंभीरता से न लिया जाये मगर बात पते की है कि "हम जब तक ज़िन्दा हैं हमें खुश रहना चाहिए क्योंकि बाद में हम लम्बे समय के लिए मरने वाले हैं." ये मेरे अनुवाद का दोष हो सकता है या फिर स्कोट्लैंड के लोग भी मानते होंगे कि जीने का चांस फिर मिलेगा. यह भी एक तरह से ख़ुशी भरी बात है. इस तरह जीवन को बार बार पाने की चाह तो हम सब में है किन्तु इसी एक जीवन को प्रसन्नता से बिताने की कोई इच्छा नहीं है.

प्रसन्नता के बारे में अपनी इस बात को आगे बढ़ाने के लिए मैं रुढ़िवादी, अज्ञानी और आदिम दम्भी लोगों के समूह के लिए उचित 'एक शब्द' लिखना चाह रहा था और मेरे दिमाग में आया, तालिबानी. इसके बाद मुझे गहरा अफ़सोस हुआ कि मैंने अपने भाषाई ज्ञान पर वातावरण में उड़ रही गर्द को जम जाने दिया है. तालिबान होने का अर्थ है विद्यार्थी होना. इस शब्द का उपयोग निरंतर अमेरिका के पाले हुए उस समूह के लिए हो रहा है, जिसे सोवियत रूस के विरुद्ध खड़ा किया गया था. अब इस शब्द का सहज लिया जाने वाला आशय कठमुल्लों का वह समूह है, जो कबीलाई दुनिया के ख़्वाब देखता है और कोड़े और बंदूक का राज कायम करना चाहता है. खैर मैं ऐसा ही एक शब्द सोच रहा था जिससे यह कहा जा सके कि हम अपनी प्रसन्नता को निरंकुश हुक्मरान होने जैसी अवस्था में ही साबुत पाते हैं. किसी की असहमति या कोई एक मतभेद हमें असहज और प्रतिगामी बना देता है.

हम अधिकारों का कूड़ेदान हो गये हैं. हम अड़ियल टट्टू हो गये है. इसी में हमें प्रसन्नता है. ऐसे होने का आशय हुआ कि वास्तव में जो कुछ सामान्य रूप से हमें घेरे हुए है, वही हमारा प्रतिबिम्ब निश्चित करता है. यह इन्टेलेक्च्युलिज़्म की अवधारणा है. यह उस मूल विचार के आस पास केंद्रित है, जो कहता है कि हमें अननोटिस्ड चीज़ें रूल करती हैं. जबकि ख़ुशी एक प्रत्याशित चीज़ है इसलिए हाथ नहीं आती. बौद्धिकतावाद के प्रमुख नाम हेनरी डेविड थ्रौउ, नेचुरल हिस्ट्री के भी जरुरी नाम है. उनकी आत्मकथा वाल्डेन या जंगल में जीवन, छिछले समझ कर त्याग दिए गये अनुभवों की खासियतों का महीन रेशम बुनती है. उन्होंने प्रसन्नता के बारे में कहा कि "ख़ुशी एक तितली की तरह है. आप जितना इसका पीछा करते हैं वह उतना ही आपको छलती जाती है. जब आप दूसरे कामों में ध्यान लगाते हैं तो वह कोमलता से आपके कंधे पर आकर बैठ जाती है."

मैं इस बात के किसी भी सिरे को पकडूँ, पहुंचना वहीं है कि जब हम खुश रहना ही नहीं चाहते हैं तो एकाधिक बार के मनुष्य जीवन के प्रति आकर्षित क्यों होते हैं. मृत्यु जैसा शब्द सुनते ही क्यों हम जीवन के पाले में खड़े हो जाते हैं. हमारी आस्थाएं इतनी संवेदी है तो ये किन तंतुओं के जाल में उलझ कर निष्क्रिय हो गई है. हम अपने इस लम्हे को चीयर्स क्यों नहीं कह पाते हैं. यही बात कहने के लिए उसका इंतजार है, जिसका आना अनिश्चित है. शायद हम एक भव्य लम्हे की प्रतीक्षा में हैं ताकि हमें ख़ुशी भरा देख कर कोई इसके मामूली होने का भ्रम न पाल ले. अर्थात हम खुश भी उनके लिए होना चाहते हैं जिनको हमसे कोई गरज नहीं है. हम अपनी हेठी होते न देखें, इस आशा में खुश होना त्याग देते हैं.


"खुश रहा करो" यह हर बात में कहना अच्छा लगता है मगर दिक्कत ये है कि ख़ुशी अन्दर से और अवसाद या दुःख बाहर से आना चाहिए. किन्तु हमने इसे लगभग उलट दिया है. ख़ुशी को हम बाहर खोजते हैं और अवसाद को भीतर सहेजते हैं. मेरा बेटा अंकगणित में पांच और नौ उल्टा लिखता था. हम उसे सही करवाते मगर फिर एकांत में वह उसे अपने ही तरीके से लिखता. उसे कहते कि आपने क्या गलत लिखा है पता लगाओ. तो वह उलटे लिखे हुए पांच और नौ को कभी पहचान नहीं पाता था. जब हम उन अंकों पर अपनी अंगुली रखते तब उसे वे दिखाई देते थे. उसने धीरे धीरे उन गलतियों को दुरुस्त कर लिया मगर मैं वहीं अटका रह गया कि ख़ुशी बाहर और दुःख भीतर... हमारी ये उलटी गणित भी ठीक होनी चाहिए.

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मेरे सेलफोन में एक मेसेज रखा है. ख़ुशी, एक जादू का तमाशा है. यह सत्य है या भ्रम, हम कभी नहीं जान पाते हैं.

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जोर्ज़ बालिन्त की जो कहानी मैं सुनाने वाला था. वह ख़ुशी के बारे में नहीं है. वह मनुष्य के अकेलेपन और उजाड़ मन पर आई खरोंचों के प्रतीक, रोने के बारे में है. मेरी आत्मा इन आंसुओं में बसती है. खैर ! मैंने अब तक वह कहानी लिखनी शुरू नहीं की है. उस कथा के पात्रों की पदचाप सुनाई देने लगी है. वे जब बातें शुरू करेंगे तो मैं लम्बे वक़्त के लिए गायब हो जाऊँगा. उनकी दुनिया के तिलिस्म में अकूत बेचैनी और अकुलाहट होगी. दो दिन से बुखार है. बदन दर्द और हरारत से भरा है... फिर भी याद की लालटेन में जलता - बुझता हुआ एक चेहरा काफी बड़ी ख़ुशी है. इस पोस्ट के आखिर में तुम्हारे लिए प्यारे शाईर गौतम राजरिशी का शेर.


किताबें बंद हैं यादों की जब सारी मेरे मन में,
ये किस्से ज़ेहन में माज़ी के रह-रह कौन पढ़ता है.