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Showing posts from September, 2011

आखिर थक कर सो जाओगे

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अँधेरे में दीवार का रंग साफ़ नहीं दिख रहा था. पच्चीस कदम दूर, उस दीवार की ईंटें बायीं तरफ से गिरी हुई थी. फ्रिल वाली स्कर्ट पहनी हुई नवयौवना उस लड़के तक जाना चाहती थी. लड़के का मुंह पूरब दिशा में था और वह उसके पीछे की तरफ थी. भौतिक चीज़ों से जुडी अनुभूतियों के साथ मेरा दिशा बोध जटिलता से गुंथा हुआ है. चीज़ें एक खास शक्ल में सामने आती है. जब भी मैं किसी दीवार पर बैठे हुए लड़के के बारे में सोचता हूँ तो तय है कि लड़का जिस तरफ देख रहा है, उधर पश्चिम है. लड़के के पैरों के नीचे की ओर ज़मीन बहुत दूर है. वह लड़का एक उदासी का चित्र है. इसलिए डूबते हुए सूरज की ओर उसका मुंह हुआ करता है. जिस तरफ वह देख रहा है उधर कोई रास्ता नहीं होता. घात लगाये बैठा समंदर या फ़िर पहाड़ की गहरी खाई लड़के के इंतजार में होती है. लड़के के थक कर गिर जाने के इंतजार में... मैं उसे नवयौवना ही समझ रहा हूँ किन्तु लिखने में लड़की एक आसान शब्द है. दरवाज़े के साथ एक जालीदार पतला पल्ला है. इसके आगे कुर्सी रखी है और फ़िर खुली जगह में रेत है. इस पर कुछ पौधे उगे हुए हैं. इन सबके बीच वह डिनर टेबल कहां से आई, मैं स

ये मग़रिब से आती हवा न थी...

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अँधेरे में रहस्य का आलाप है. इसमें सिहर जाने का सुख है. वहां एक कुर्सी रखी है. बादलों के बरस जाने के बाद वह कुर्सी खुली जगह पर चली आया करती है. सर्द दिनों में धूप का पीछा करती रहती है. गरम दिनों की रुत में सीढ़ियों के नीचे के कोने में दुबकी हुई थोड़ी कम गरम हवा का इंतजार करती है. उस पर एक कुशन रखा है. कुशन पर रंगीन धागों से ढोला-मारू की तस्वीर उकेरी हुई है. दौड़ते हुए ऊंट की गरदन टेढ़ी है यानि वह संवाद कर रहा है. कहता है. "मुहब्बत की कोई काट नहीं है, वह ख़ुद एक बिना दांतों वाली आरी है." मैं अभी भी कमरे में लेटा हुआ हूँ. रात के बारह बजे हैं. सोच रहा हूँ कि इस कुशन पर रेत के धोरों की तस्वीर धागों से बन जाती तो और सुन्दर दिखता. दौड़ते हुए ऊंट की पीठ पर सवार ढोला अपनी प्रेयसी मरवण से मुखातिब है. जिस वक़्त अपने कंधे पर प्रेयसी का हाथ नहीं पाता है, घबरा जाता है. प्रेम के लिए भागते जाने के इस अनूठे आयोजन का विस्तार असीमित है. अबूझ धोरों पर रेत की लहरों के बीच सुकून और बेचैनी की एक बारीक रेखा साथ रहती है कि इस रेगिस्तान में पकड़ा जाना मुश्किल है और अधिक मुश्किल है, बच

रात की स्याही से भीगी हवा

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यह कुछ ऐसा ही है जैसे ये सोचना कि दीवार के उस पार क्या है? मैं अपने बिस्तर पर कभी औंधा लेटा हुआ आँगन को देखता या पीठ के बल सोते हुए छत को ताकता सोचता हूँ कि बाहर की हवा में ठण्ड है. अचानक कोई झोंका आता है. हवा इस तरह से बदन को छूती है जैसे कोई आहिस्ता आहिस्ता दस्तक दे रहा हो. वह असंगत लय है. अभी एक बार छुआ थोड़ा रुक कर तेजी से दो तीन बार फ़िर से छू लिया. मैं एक छोटे से इंतजार के बाद उसे भूलने को ही होता हूँ उसी वक़्त हवा फ़िर से दस्तक देती है. जैसे किसी ने अपने ठन्डे हाथ धीरे से गाल पर रखे और वापस खींच लिए. ये कौन है? जो मेरे मन को दरवाज़े के बाहर खींच ले जाता है. वहां अँधेरा है. मैं उस जगह को रोज़ देखता हूँ, वहाँ कोई नहीं रहता. उस खुली जगह पर कोई नहीं है तो फिर वहां पर मेरा मन क्यों चला गया है. सूरज की रौशनी के बुझते ही शोर जब अपनी दुम को अपने ही मुहं में दबा कर सो जाता है तब क्या कोई दबे पांव वहाँ आकर रहने लगता है? संभव है कि चीजें जादुई हैं और वे हर घड़ी अपना रंग बदलती रहती है. हो सकता है क्योंकि हमारा रंग भी हर पल परिवर्तित होता रहता है. जैसे मन का रंग, सामर्

फ़िर भी हेप्पी बर्थडे...

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ख्वाहिशों की तितलियाँ बेक़रारी की आग को चूम कर उड़ जाती हैं. जाने किस नगर, किस देश को. झपकती हुई पलकों से देखे किसी अचरज की टिमटिमाती हुई याद रह जाती है. उन तितलियों के पंखों के कुछ रंग आस पास छूट जाया करते हैं. ऐसे में कुछ शामें बेसबब स्टेडियम की पेवेलियन में बैठे हुए, कई सुबहें सूजेश्वर के पहाड़ी रास्ते वाले शिव मंदिर की सीढ़ियों पर, कई दोपहरें बेखयाल नीम के पेड़ों की छाँव में बीतती रही. वहां हसरतों के घोंसले न थे. बस ज़रा खुला खुला सा लगता था. उन्हीं जगहों पर मैं महसूस करता था कि आवाज़ की सुंदर तितलियाँ, खुशबुओं को छूकर आई है और लम्हों की उतरन को मेरी कलाई पर रखती हुई मुस्कुराती है. वहीं बैठा हुआ जाने किस बात पर... अचानक किसी शोरगुल भरी कक्षा में पहुँच जाता हूँ. जहां विज्ञान के माड़साब किसी दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर में तब्दील हो कर बड़ी गहरी उदासी से बताते कि तितलियों की उम्र चौबीस घंटे हुआ करती है. वे गंभीर होकर खो जाते. जीवन के बारे में कोई ख़याल उनके दिमाग में अटक जाता था. इससे बाहर आने के लिए वे एक झटका सा देते हुए उस ख़याल को नीचे गिरा कर आगे पढ़ाने लग जाते

अग्नि के आचमन से

मैं ये जाने कब से सोच रहा हूँ कि तुमसे प्रेम करते हुए, मुझे देवीय कोप से भयभीत मनुष्यों की गरज नहीं है. मेरे पिता एक ऊँचे कद वाले और चौड़े हौसले वाले इंसान थे. उस भद्र पुरुष ने एक रात मुझे कहा था कि मैं अग्नि के आचमन और जल के अभिषेक से जन्मा हूँ. उस समय उनकी पेशानी पर बल थे. उनके तीखे नाक पर चमकता हुआ कोई उजाला छिटक रहा था. छोटी सी आँखों की लम्बी कोर के किनारे प्रेम से भीगे हुए थे. ऐसा देखते हुए मैंने पाया कि मैं एक नन्हा बच्चा हूँ. जो किसी की गोद में लेटा हुआ आँचल की ओट से ये सब देख रहा है. कल मैंने एक ख़याल बुना. इसे जागती आँख का सपना कहा जा सकता है. सपना इसलिए कि इसमें सोचा गया सब कुछ अविश्वसनीय है. मैं देखता हूँ कि राजपथों जैसी चौड़ी सड़क के किनारे एक कार में तुम बैठी हो. उस कार के बंद दरवाजों पर, शीशों पर, छत पर बेशुमार बारिश गिर रही है. बरसात के शोर में कई सारी आवाज़ें खो कर मौन में ढल गयी है. एक ऐसा मौन, जिसमें शोर ही मुखर है मगर सुनाई कुछ नहीं देता. बारिश की फुहारों और काली ऊदी घटाओं के बीच कोई उम्मीद नहीं झांकती. एक अरूप दर्द है. जिसका कोई ओर छोर नहीं, जिसकी

किसी ज़ीने पर पुराने दिन बैठे होते...

अच्छा रहता कि बारिश होती और एक दूजे का हाथ थामें सड़क के किनारे कार में बैठे रहते. इस तरह बहुत सा वक़्त साथ में बिताया जा सकता था. हम जरुर एक दूसरे को देख कर हतप्रभ चुप हो जाते. फ़िर थोड़ी देर बाद कार के पायदानों के नीचे से सरक कर कई बातें हमारे बीच आ बैठती. इस तरह मिलने के अचरज को हम गरम कॉफ़ी की तरह सिप करते जाते और इस स्वाद को दुनिया का लाजवाब स्वाद बताते. विलासी चौराहों की ओर देखते हुए या फ़िर रिक्शा धोते हुए आदमी के बारे में कुछ भी सोचे बिना, इस पर भी बात की जा सकती थी कि उन शहरों को लोग क्यों याद नहीं रख पाते जहाँ उनका कोई महबूब न रहता हो. बातचीत का विषय ये भी हो सकता था कि किस तरह कई बार वे दीवारें भी स्मृतियों में जगह बनाये रहती है. जिनके सहारे चिपक कर एक बार चूमा गया हो. या पूछ ही बैठते कि क्या दीवारें तुम्हारी ओर धक्का देने का गुपचुप हुनर भी जानती हैं? धूल हवा के पंखों पर सवार रहती और सूरज फूंक मार कर गोल-गोल धूल का खेल खेला करता था. अक्सर तनहा कमरे में दोपहर के वक़्त प्यार करने के ख़्वाब देखने में इतना समय जाया होता रहता था कि ख़ुद पर चिढ होने लगती थी. आले में

क़ैदख़ाने में सुंदर पीठ वाली लड़की

मैदान में हरे रंग के पत्ते एक दूसरे की बाहें थामें हुए ऊँचे झांक रहे थे, यहीं कुछ महीने पहले धूल उड़ा करती थी. छत डालने के काम आने वाले सीमेंट के चद्दरों से दुपहिया वाहनों के लिए शेड बना हुआ है. यहाँ बैठा हुआ, सेटेलाईट डाटा रिसीविंग डिश के पार नीले आसमान में तैरते हुए बादलों के टुकड़ों को देखता हूँ. सप्ताह भर से लगातार बारिश हो रही है. अक्सर फाल्ट होने से पावर कट हो जाया करता है फिर स्टूडियोज़ के बंद कमरों में सीलन और ठहरी हुई हवा भारी होने लगती. नाउम्मीद बैठे हुए अचानक तेज बारिश होने लगी. शेड के तीन तरफ पानी, फुहारें, एक लयबद्ध शोर, किनारे पर अटका एक भीगा हुआ पंख. दुनिया सिमट गयी है. यहीं बैठ कर इंतज़ार करो. सहसा आभास हुआ कि बारिश अपने साथ बहा ले जा रही है. मन की सतह का रंग बदल रहा है. अभी एक आवाज़ सुन रहा था. ताज़ा सीलन से भरी दोशीज़ा आवाज़. टूटती, बेदार और हिचकियों से भरी हुई... बारिश भी ऐसे ही गिरती है. * * * परसों रात उस बंदीगृह के फर्श का बनना अभी बाकी था. सीमेंट मिली बजरी की रेतीली सूखी परत पर कई जगह बिछाने के लिए बारदाने या फ़िर फटी हुई कम्बलें रखी थी. उसकी पीठ

मरक़दों पे तो चिरागां है शब-ओ-रोज़

मैं एक अजनबी की तरह पार्क में दाखिल हुआ. वहां कुछ जगहों पर दूब नहीं थी और खास तौर से जिस जगह पर कसरत करने के लिए दो 'बार' लगी थी वहां बिलकुल भी नहीं थी. उस नौजवान आदमी ने बार पर टिकी हुई हथेलियों पर अपने शरीर को सीधा उठाये हुए मेरी तरफ देखा. जबकि उसकी पीठ मेरी ओर थी. उस आदमी की उम्र कोई पच्चीस साल रही होंगी. इसके बाद मैंने एक नन्हे बच्चे को देखा जो ज़मीन और बार के बीच जाने किस चीज़ पर बैठा था. वह बच्चा चूँकि बैठा हुआ था इसलिए उसके कद और उम्र के बारे में कुछ कहना मुश्किल होगा किन्तु वह चार साल की उम्र से छोटा ही रहा होगा. उसके पास एक लड़की खड़ी थी. इन तीनों को एक साथ देखने से लगा कि वह निश्चित ही एक परिवार है. अर्थात पति, पत्नी और उनका बेटा. सूखी हुई घास की तरफ बढ़ते समय मेरी चाल निरुद्देश्य सी दिखती होगी लेकिन जल्द ही उन सब के पास पहुँच गया. जैसे अभी अभी बिना मकसद के चल रहा था और अभी अभी लगता है कि किसी ख़ास काम के सिलसिले में इन्हीं से मिलने आया हूँ. वह लड़की निरंतर मेरी ओर देख रही है, ऐसा मुझे लगता है. इसलिए कि मैं निरंतर उस नौजवान को देख रहा हूँ. जो वर्जिश में लगा है.

आज की एक रात रुक जाओ...

ढोला तमीणे देस में म्हें दीठा तीन रतन, एक ढोलो दूजी मरवण तीजो कसूम्बल रंग ! ओ माणीगर रेवो अजूणी रात, पूछों रे मनडे़ री बात माणीगर रेवो अजूणी रात थांरे कारणिये ढो़ला जीमणियो जिमाऊं, जीमणिये रे मिस आवो रे बादिला माणीगर रेवो अजूणी रात, पूछों रे मनडे़ री बात थांरे कारणिये केलूडी़ रोपाओं, दांतणिये रे मिस आवो रे बादीला माणीगर रेवो अजूणी रात, पूछों रे मनडे़ री बात... ओ प्रिये तेरे देश में मैंने तीन रत्न देखे हैं, एक प्रिय दूसरी प्रियतमा और तीसरा कसूम्बल रंग ओ सौदागर आज की एक रात रुक जाओ तो मन की बात पूछूं आपके लिए एक भोज का आयोजन करूँ, भोजन के बहाने से आ जाओ ओ हठीले ओ सौदागर आज की एक रात रुक जाओ... आपके लिए केलू का पौधा लगवा दूँ, दातुन के बहाने से आ जाओ ओ हठीले ओ सौदागर आज की एक रात रुक जाओ... रेगिस्तान में रात जब लाल रंग में घिरने लगती है तो उसे कसूम्बल रंग कहते हैं. मैं ऐसे ही रंग की रातों को ओढ़ कर सो रहा हूँ. विरह की उदासी से घिरी बैठी किस प्रेयसी ने ऐसे लोक गीतों को जन्म दिया होगा कि ज़िन्दगी बस उसके साथ की एक रात का ख़्वाब बन कर रह गयी. गफूर और