कोई भुला भी न सके...

भीगी हुई आँखों से देखते हुए अपने पांवों को समेटने लगी. उसने ख़ुद को इस कदर सौंप रखा था कि सिमट जाना असंभव था. वह रंग थी और बिखर गयी थी. ख़यालों की नामुराद दुनिया आँखों के सामने उग आई. अब वह उन धुंए से लिपटी रहने वाली अँगुलियों को छू कर देख सकती थी. कितने ही बरस पहले जिन खुशबुओं को हवा अपने साथ उड़ा ले गयी. वे अचानक काले घने बालों से उतर कर लम्बे लाल रंग के सोफे पर बैठी थी.

एक शाम बुझते हुए साये दीवार पर छूट गए. सालों तक दीवार का वह हिस्सा उतना ही ताज़ा बना रहा. वह आते जाते अंगुली के नर्म नाजुक पोरों से दीवार की उसी जगह पर एक अदृश्य रेखा खींचती हुई चलती थी. उसी दीवार से छन कर बेग़म अख्तर की आवाज़ आती थी. न जाने उसका मुहब्बत में हश्र क्या होगा जो दिल में आग लगा ले मगर बुझा न सके...

कुछ नहीं हुआ साल गिरते गए और जे एल ऍन मार्ग पर मौसमों के साथ नए फूल खिलते गए.

सफ़ेद संगमरमर के लम्बे चौड़े फर्श पर प्रार्थनाओं के बचे हुए शब्द बिखर गए. उसके बालों में हाथ फेरते हुए लड़की ने कहा. इधर आओ मेरे पास, यहाँ मेरी धड़कनों के करीब. तुम यहाँ रहते हो. गिरहों से उठती खुशबू से परे लड़का बरसों पहले की किसी गंध की तलाश में झुकता गया. उसने ज़रा और झुक कर अपने महबूब के पांवों को चूम लिया.
लड़की ने पांव पीछे खींच लिए. लड़के ने ऊपर की ओर देखा, जहाँ आसमान बीच से ठीक दो अलग टुकड़ों में बंट जाता है.

बारिश गिरती ही गयी...

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